पहचान खोते पहाड़, दम तोड़ती जनता और पूंजी कमाती सरकार
लेखक- अमन गुप्ता
लगभग दो साल पहले की बात है, देश के सबसे पिछड़े इलाकों में से एक बुंदेलखंड के छतरपुर जिले में पाए जाने वाले बक्सवाहा के जंगलों के काटने का शोर हो रहा था, जंगल के आसपास बसे गावं वालों सहित तमाम पर्यावरणविदों ने सरकार के इस फैसले का विरोध किया, मीडिया, सोशल मीडिया में बक्सवाहा के समर्थन में जबरदस्त अभियान चलाया गया , जनता में जंगल के कटाव का जबरदस्त विरोध के भाव उतत्पन्न हुए , स्ट्रॉंग नरेटिव बुना गया , पर्यावरणविद और समजीक कार्यकर्ताओं ने अदालत के भी दरवाजे खटखटाए तब जाकर अदालत के हस्तक्षेप के बाद जंगल को काटने पर तत्काल रोक लगाई गई। सवाल उठता है राज्य और भारत सरकार जो अपने आप को डबल इंनजन की सरकार कहती है उसको क्या ऐसी जरूरत आन पड़ी वो जंगल को काटने के लिए मजबूर हो गई? इस आलेख में इसी की छोटी से पड़ताल करेंगे।
जंगलों को काटे जाने के पक्ष में जो बात निकलकर सामने आई वह यह थी कि हीरा व्यापार से जुड़ा एक बड़ा उद्योग घराना वहां हीरे का खनन करना चाहता था। जिसके लिए उसने और सरकार ने एक सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किये थे। जिसके बदले में वह उद्योग घराना उस क्षेत्र में विकास का बुनियादी ढांचा विकसित करने का वादा किया था जिससे वहां के लोगों का जीवन आसान बनाने का एक ढोंग रचा जाता। यह पोस्ट हमारे साझेदारों Wigs द्वारा प्रायोजित है
इसके उलट विरोध करने वाले लोगों की चिंता पर्यावरण को लेकर थी, उनका कहना था कि यह पठारी इलाका है जहां अत्यधिक गर्मी होती है, इसके साथ बुंदेलखंड की सबसे बड़ी जरूरत पानी है, जिसके लिए भी जंगलों का होना जरूरी है। क्योंकि यहां बरसात का समय बहुत कम होता है, ऐसे में अगर जंगलों को खत्म किया जाएगा तब यह दिकक्त और बढ़ेगी। बुंदेलखंड में औसतन 44 दिन वर्ष होती है वहीं उत्तरप्रदेश के दूसरे छेत्रों में यही वर्षा 60-65 दिनों की होती हैं , सम्पूर्ण उत्तरप्रदेश में वारीश साल में तकरीबन 1.7 इंच होता वहीं इस बुन्देलखण्ड छेत्र में यह वारीश 1 इंच से भी कम होता है , विरोध का तर्क आपको समझ आगया होगा, विरोध की इन तमाम वजहों के चलते कोर्ट ने सरकार के इस फैसले पर स्टे लगा दिया, वर्तमान में इस पर रोक लगी हुई है, लेकिन यह रोक कब तक इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। जनता जायद विरोध करेगी तो सरकार की तपस्या में खलल पहुँच सकता है इसलिए जनता भी सरकार की तपस्या में खलल तभी पहुँचती है जब उसके लिए तपस्या से जायद जीवन जरूरी होता है।
इन दिनों उत्तर प्रदेश के हमीरपुर-महोबा जिलों की सड़कों पर कटे पेड़ों की लकड़ी लादे ट्रेक्टर, ट्रकों को लगातार देखा जा रहा है। दिन में सैकड़ों बार दिखने वाले पेड़ लादे गुजर रहे इन वाहनों पर अब लोगों ने ध्यान देना तक बंद कर दिया है। किसी को भी नहीं पता कि यह कटे कटाए पेड़ कौन से जंगल के हैं , कहाँ और किस काम के लिए धोए जा रहे हैं । इसके उलट रोड के किनारे कटे हुए पेड़ों के सैकड़ों ढ़ेर लगे हुए हैं जिनकी ढुलाई के लिए दर्जनों ट्रक खड़े हुए हैं। लगातार हो रही इस कटान के बारे में कोई भी बात करने को तैयार नहीं है। मोबाईल वाणी के कार्यकर्ता और वालन्टीयर्स ने करीब 20-25 लोगों से बात करने का प्रयास किया लेकिन लोगों की चुप्पी उनमें व्यापात डर को उजागर करता है , अब लोकतंत्र में जनता सरकार और पूलिस से इतना डर जाए की अपने संसाधनाओं के हो रहे दोहन के खिलाफ आवाज भी न उठा से तो समझिए कुछ तो गड़बड़ है । बूढ़े बुजुर्गों का कहना है कि अपने जीवन काल में उन्होंने इस तरह की कटान पहले कभी नहीं देखी। जबकि पेड़ सभी की जरूरत हैं, और भारत सरकार पर्यावरण संरक्षण संधि पर हस्ताक्षर कर चुकी है।
प्राकृतिक संसाधनों का बेतहाशा दोहन बुंदेलखंड की पहचान बन चुका है। जो केवल पेड़ों की कटान तक सीमित नहीं है। मोबाईल वाणी की टीम ने जब भाड़े पर ट्रेक्टर चलाने वाले अखिल से बात की तो वो कहते हैं कि पिछले कुछ सालों में खेतों की मिट्टी निकालकर बेचने का चलन बहुत तेजी से बढ़ा है, शहर की सीमाओं से लगे गांवों में लोगों ने अपने खेतों के काफी गहरे तक खोद दिया है, कई जगहों पर तो हालात यह है कि खेतों को बीस तीस फीट की गहराई तक खोद दिया गया है। इसके पीछे का कारण पूछने पर वह बताते हैं कि मिट्टी का सबसे ज्यादा प्रयोद तो शहरों में हो रहे निर्माण कार्यों के लिए किया जा रहा है। वह बताते हैं कि मिट्टी बेचने वाले किसान की जमीन बंजर हो चुकी है और आखिर एक ही रास्ता बचत है मिट्टी को बेचकर कुछ आमदनी कर परीवार को पालना ।
प्राकृतिक संसाधनों को किस तरह से बर्बाद किया जा सकता है इसकी मिसाल देखनी हो तो बुंदेलखंड को देखना चाहिए जहां नदी से बालू, पहाड़ तोड़कर स्टोन क्रेशर के जरिए गिट्टी बनाने का काम कई दशकों से किया जा रहा है। इसके नतीजे के तौर पर पहले जहां पहाड़ दिखते थे अब वहां पर कुए से भी ज्यादा गहरे गडढ़े दिखते हैं। नदियों से बालू निकालना हो या फिर पहाड़ तोड़कर गिट्टी बनाना हो, यह सब काम यहां पर लगातार और खूब हो रहा है, सबसे बड़ी बात ज्यादा मुनाफा कमाने के लालच में इसका अवैध खनन बदस्तूर जारी है, जिसमें लिए पर्यावणीय सुरक्षा के लिए बनाए गये नियमों का भी ध्यान नहीं रखा जा रहा है। नदियों से बालू निकालने के लिए हैवी पोकलैंड मशीनों का प्रयोग या फिर उनकी ढ़ुलाई के लिए प्रयोग किये जाने वाले बड़े ट्रक जिन्हें नदी के अंदर रास्ता बनाकर ले जाया जाता है। जबकि सरकार के नियमों के साथ ही पर्यावरण संबधी मामलों के लिए बने ग्रीन ट्रिव्यूनल जैसी संस्था ने बालू खनन या फिर स्टोन क्रेशर चलाने के लिए बहुत सारे मानकों को तय किया है। लेकिन इनको लागू कराने वाली उत्तर प्रदेश सरकार इसको लेकर लगातार चुप है। लगातार हो रहे खनन के चलते बुंदेलखंड इलाके में बहने वाली ज्यादातर नदियां अपना रास्ता बदल रही हैं या उनकी खुद की इकॉलॉजी खराब हो रही है। बेतवा जैसी बड़ी नदी साल के ज्यादातर समय सूखी ही रहती है , थोड़े बहोत पानी कहीं-कहीं नजर आएंगे लेकिन इसका प्रयोग न तो सिंचाई के लिए हो पाता है और नहीं मवेशी को पिलाने के लिए ।
स्टोन क्रेशर वाली जगहों पर तो हालात और भी खराब हैं। उदाहरण के तौर पर झांसी-मिर्जापुर नेशनल हाईवे पर किनारे बसे कबरई गाँव और उसके आसपास के दस किलोमीटर के दाएरे में गुजरते हुए सांस लेना मुश्किल होता है, चौबीसों घंटे उड़ते धूल के धुएं में पांच मिनट खड़ा रहना ही मुश्किल होता है। इस सबके बाद भी सरकारें इस पर रोक लगाने के लिए तैयार नहीं है। जबकि इसके आपपास बसे दर्जनों गांव हर समय इसके बीच रहते हैं। कोई भी इस पर ध्यान देने वाला नहीं है। यह पर्यावरण के साथ-साथ लोगों के स्वास्थय के साथ भी खिलवाड़ है। यहां पैदा होने वाला हर बच्चा धूल और धुएं के गुबार में पैदा होता है, शायद यही उसकी नियती भी है।
मुद्दे की गंभीरता का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि इन क्रेशरों के चलते यहां बच्चों का बचपन तक खत्म कर दिया जा रहा है। बातों बातों में कबरई से पांच किलोमीटर पहले बसे गांव काली पहाड़ी के लोग बताते हैं की वे अपने छोटे बच्चों को घर से बाहर नहीं निकलने देते हैं। कारण पूछने पर कहते हैं कि गांव के चारों तरफ पहाड़ हैं, जिन्हें कंक्रीट बनाने के लिए लगातार तोड़ा जा रहा है। इन्हें तोड़ने के लिए डायनामाइट को भरकर ब्लास्ट किया जाता है। इतने बड़े ब्लास्ट के कारण पत्तथर के पहाड़ के टुकड़े यहां-वहां उड़ते हैं, जिससे हमेशा डर लगा रहता है, गांव वाले बताते हैं कि इसके लिए पहले से सुरक्षा अलार्म से चेतावनी दी जाती है, लेकिन इसका कोई फाएदा नहीं होता है। गांव वाले कहते हैं कि हर पहाड़ के ब्लास्ट का समय अलग अलग होता है, ऐसे में कब कहां से अलार्म बज जाएगा इसका पता नहीं होता है इसलिए हम बच्चों को घर के अंदर ही रखते हैं और ऐसा करने के लिए हमें सरकार मजबूर कर रही है।
स्वास्थय और पर्यावरण पर जंगल की कटाई ,पहाड़ों से पत्थर और बंजर जमीन से मिट्टी की ढुलाई से इस छेत्र पर परे प्रभाव को साफ देखा जा सकता है लेकिन इसके दुष्प्रभाव नहीं दिखते हैं वो है सरकार और रोक न लगाने का मुख्य कारण जो समझ आता है वो वेलफर सरकार की आर्थिक नीति जहां उसे हर संपदा में रेवेन्यू नजर आता है जिसके कारण खुद के बनाए कानूनों का भी उलँघन खुद सरकार को बर्दास्त है ।