न्यू इंडिया में भी बालिका शिक्षा से वंचित!

Courtesy: Global Giving
ग्राम वाणी फीचर्स
लेंगिक असमानता को पाटना सतत विकास लक्ष्य की 5 लक्ष्यों में एक अहम् लक्ष्य था, लेकिन जिस लक्ष्य को पाने के लिए भारत जैसे अनेकों विकासशील राज्यों ने 2015 में संयुक्त राष्ट्र के इस अहम् लक्ष्य की साक्षी बना और अपने यहाँ सदियों से चली आरही लेंगिक असामनता को दूर करने का लक्ष्य रखा जिसमें बालिका शिक्षा 5 मानकों में एक अहम् मानक था. 2021 में भी भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में किशोरियां अक्सर कम उम्र में पढ़ना छोड़ देती हैं और कम उम्र में हीं उनकी शादी भी हो जाती है. बहुत सी रिपोर्ट ये बताती हैं कि हमारे समाज में एक-तिहाई लड़कियां 16 वर्ष की उम्र तक स्कूल छोड़ चुकी होती हैं और एक-तिहाई की 18 वर्ष की होने तक शादी हो जाती है– जिस से उनके भविष्य की कुशलता को लेकर चिंताजनक परिणाम होते हैं. ये स्थितियां तब हैं जब भारत विश्व गुरू बनने का एलान कर चूका है. यहां तकनीक के प्रसार पर जोर दिया जा रहा है सभी संस्थाएं महिलाओं को तकनीक के इस्तेमाल से उनके विकसित होने का अनुमान लगाती है, वित्तीय समावेशी कार्यक्रम , बालिका शिक्षा, स्वास्थय और आजीविका के संसाधनों को धरातल पर पहुंचाने के लिए रोजाना एक न एक नया मोबाइल एप बन कर तैयार रहता है , इसी क्रम में हम 4जी से 5जी की तरफ कदम बढ़ा चुके हैं और जल्द ही स्वास्थ्य शिक्षा और आजीविका की पूर्ति के लिए ऑनलाइन होने का दावा विश्व समुदाय के सामने ठोकने वाले होंगे.
तकनीक के पीछे—पीछे बेटी पढ़ाओ-बेटी बचाओ और महिला सुरक्षा के नाम पर दो संसदिए चूनाव भी जीता जा चूका , नारे तो खूब जोर शोर से गांवों तक पहुंच गए लेकिन शिक्षा नहीं पहुंची. ऐसे देश में जहां शिक्षा बच्चों का मूल अधिकार है, वहां हर 10 अशिक्षित बच्चों में से 8 लड़कियों का होना शर्म की बात है. शिक्षा के लिए जद्दोजहद करती ग्रामीण बालिकाएं बड़ी मुश्किल से यदि स्कूल या मकतब जाने भी लगें, तो भी अपने परिवेश और पारिवारिक हालात उन्हें शिक्षा से दूर करने में अहम भूमिका निभाते हैं. देश के 78 लाख बच्चों को पढ़ाई के साथ कमाई करनी पड़ती है, वहीं 8.4 करोड़ बच्चे आज भी स्कूलों से वंचित हैं. लड़कियों की शिक्षा और समाज में लड़कियों की बराबरी के मुद्दों की गंभीरता को देखते हुए मोबाइल वाणी पर तीन महीने तक एक अभियान चलाया गया, इस अभियान के तहत माता पिता और खुद किशोरियों ने अपनी आप बीती साझा की जो मौजूदा स्थिति को समझने में मदद कर सकता है. आइये गौर फरमाइए विश्व गुरु भारत की बेटियों की इन अहम् बातों पर.
बिहार राज्य के जमुई जिला के गिद्धौर प्रखंड से कुसुम कुमारी कहती हैं कि वो पढ़ना चाहती थीं पर स्कूल गांव से बाहर थे, जहां जाने के लिए घरवालों ने कभी हामी नहीं भरी. कुसुम कहती हैं कि गांव के बाहर स्कूल जाने में भी डर लगता है, घरवाले कहते हैं कि समय ठीक नहीं है, कुछ भी हो सकता है इसलिए स्कूल गए ही नहीं. अब जरा सोचिए, कुसुम की तरह ही कितनी सारी बेटियां हैं जो बस इस वजह से स्कूल नहीं जा पा रही हैं, क्योंकि उन्हें बहुत लंबा सफर तय करना पड़ेगा. ये रास्ता उनके लिए असुरक्षित भी हो सकता है. जाहिर सी बात है कि ग्रामीण इलाकों में जिस तरह से लड़कियों के प्रति अपराधों में इजाफा हो रहा है, ऐसे में ये डर जायज है. परिवार वाले भी इसी वजह से लड़कियों को नज़र के सामने रखते हैं. झारखण्ड राज्य के बोकारो जिला से स्वयं सेवी संस्था ग्रामीण आदर्श ग्राम विकास सेवा समिति के सचिव वासुदेव शर्मा मोबाइलवाणी पर अपनी बात रिकॉर्ड करते हुए कहते हैं कि गांव के 40 फीसदी बेटियां स्कूल नहीं जाती. वे साक्षर हैं पर कक्षा 5वीं के आगे की शिक्षा नहीं ली. इसकी बहुत सी वजह हैं. इनमें से जो सबसे प्रमुख है वो है स्कूल का गांव से दूर होना. स्कूल तक जाने वाले रास्ते सुनसान हैं, ऐसे में घरवालो को डर लगता है कि रास्ते में उनकी बेटियों के साथ कुछ हो ना जाए.
जबकि उन्हीं रास्तों से घर के बेटे भी स्कूल के लिए जाते हैं, लेकिन बेटों के मामले में ये डर नहीं है. इस डर और दूरी का खामियाजा केवल गांव की बेटियां भुगत रही हैं. सिवान जिला से जगतलाल माँझी कहते हैं कि गांव में मैट्रिक तक तो स्कूल हैं लेकिन उसके आगे की शिक्षा के लिए कोई प्रबंध नहीं है. प्राइवेट क्लास या सेंटर भी नहीं चलते, कि बच्चियों को वहां भेज दें. ऐसे में जिससे जितनी होती है उतनी पढ़ाई करते हैं.
पैसे की कमी कौन पूरी करे?
गांव की स्कूलों से दूरी एक वजह है और दूसरी वजह है पैसों की कमी. हालांकि सरकारी स्कूलों में शिक्षा नि:शुल्क है, एक वक्त का भोजन भी मिल जाता है लेकिन दूसरे खर्चें हैं जो पूरे नहीं होते. सारण जिले से एक श्रोता कहते हैं कि हमारे पास इतनी कमाई ही नहीं कि बच्चों की शिक्षा का खर्च उठा सकें. सरकार को लगता है फीस कम है तो पढ़ाना आसान है पर बच्चों के साथ दूसरे खर्चे भी हैं. ऐसे में लोग सोचते हैं कि बेटियों की बजाए बेटों को पढ़ाया जाए. कम से कम उन्हें काम मिलने की उम्मीद होती है. बेटियों के बारे में यही विचार अभी भी बना हुआ है कि उन्हें शादी करनी है, परिवार बसाना है और उन्हें काम की जरूरत नहीं. इसलिए शिक्षा में खर्च होने वाला पैसा लोग बेटियों की शादी के लिए बचा के रखते हैं. एक रिपोर्ट के अनुसार करीब 1.2 करोड़ भारतीय बच्चों का विवाह दस वर्ष की आयु से पहले हो जाता है. इनमें से 65 प्रतिशत कम उम्र की लड़कियां हैं और बाल विवाह किए गए हर 10 अशिक्षित बच्चों में से 8 लड़कियां होती हैं. प्रति 1,000 पुरुषों की तुलना में कम से कम 1,403 ऐसी महिलाएं हैं, जो कभी स्कूल नहीं गईं. भारत के पांच राज्य तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र में महिला साक्षरता की दर सबसे ऊंची है.
वाराणसी से प्रभाकर मिश्रा कहते हैं कि समाज में दहेज प्रथा इस तरह बनी हुई है कि बेटियों के माता पिता सोचते हैं कि शिक्षा पर खर्च करने से अच्छा है कि दहेज की रकम जोड़ लें. कई मामलों में ये देखा गया है कि बेटियों को पढ़ा लेने के बाद भी माता पिता को दहेज में खर्च करना पड़ता है. वैसे इस मामले में एक विपरीत रिपोर्ट भी है. जहां एक ओर बेटियों की शिक्षा से ज्यादा उनके दहेज पर बल दिया जाता है वहीं दूसरी ओर जो लोग बेटियों को शिक्षित कर भी रहे हैं, उनके मन में भी अंतिम लक्ष्य बेटियों की शादी ही है. ऐसा मत है कि लड़कियों की उम्र और शिक्षा, एक उचित वर से उनके विवाह के मौके को प्रभावित कर सकती है. अगर माता-पिता अपनी बेटी के विवाह की गुणवत्ता का ध्यान रखते हैं, चाहे वो परोपकारी या अन्य कारणों से हो, तब ये ‘विवाह बाजार के प्रतिफल’ शिक्षा संबंधी निर्णयों को और उस उम्र को प्रभावित कर सकते हैं जिसमें उपयुक्त जोड़ीदार की तलाश की जाती है. हाल के एक शोध कार्य (एडम्स एवं एंड्र्यू 2019) में हमने पाया कि बेटियों को शिक्षित करने के लिए अभिभावकों की मुख्य प्रेरणा इस विश्वास से है कि शिक्षा से अच्छा वेतन और सुरक्षित नौकरी वाले व्यक्ति से उसकी शादी होने का मौका बढ़ जाएगा. अभिभावकों के लिए विवाह बाजार के इस लाभ के अलावा किशोरियों को पढ़ाने की इच्छा कम ही होती है.अन्य चीजों के समान होने पर अभिभावक 18 साल की उम्र तक अपनी बेटी की शादी टालने के लिए इच्छुक होंगे, क्योंकि यह मानना है कि पढ़ाई छोड़ने के हर साल के साथ लड़की के विवाह की संभावना कमजोर पड़ती जाती है.

चुनौतियां और भी हैं
इन सबके अलावा चुनौतियां और भी बहुत सी हैं, जो बालिका शिक्षा की राह मुश्किल बना रही हैं. मानव विकास मंत्रालय द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार प्रतिवर्ष पूरे देश में 5वीं तक आते-आते करीब 23 लाख छात्र-छात्राएं स्कूल छोड़ देते हैं। लगभग एक तिहाई सरकारी स्कूलों में लड़कियों के लिए शौचालयों की सुविधा नहीं है, जिस कारण से वे स्कूल छोड़ रही हैं. इसके अलावा मानव संसाधन विकास मंत्री द्वारा लोकसभा में पेश किए गए आंकड़ों के अनुसार देशभर के प्राथमिक स्कूलों में शिक्षकों के 18 प्रतिशत पद और माध्यमिक स्कूलों में 15 प्रतिशत पद खाली पड़े हैं। मसलन सरकारी स्कूलों में शिक्षक के छह पदों में से एक पद खाली है यानी करीब 10 लाख शिक्षकों की सामूहिक रूप से भारी कमी है. वहीं भारत के 2600 लाख स्कूली बच्चों में से 55 प्रतिशत बच्चे सरकारी स्कूल जाते हैं. शिक्षकों की कमी झेलते हजारों स्कूलों के पास शौचालय तो क्या क्लास रूम तक नहीं है. देश में अभी भी करीब 1,800 स्कूल पेड़ के नीचे या टेंटों में चल रहे हैं.
सैम्पल रजिस्ट्रेशन सिस्टम बेसलाइन सर्वे की रिपोर्ट के अनुसार 15 से 17 साल की लगभग 16 प्रतिशत लड़कियां बीच में ही स्कूल छोड़ देती हैं. गुजरात इस मामले में देश के सबसे पिछड़े राज्यों में से एक है. गुजरात में 15 से 17 साल की 26.6 प्रतिशत लड़कियां किसी न किसी कारण से स्कूल छोड़ देती हैं. इसका मतलब यह है कि राज्य में 26.6 प्रतिशत लड़कियां 9वीं और 10वीं कक्षा तक भी नहीं पहुंच पाती हैं. छत्तीसगढ़ में 15 से 17 साल की 90.1 प्रतिशत लड़कियां स्कूल जा रही हैं, जबकि असम में यह आंकड़ा 84.8 प्रतिशत है। बिहार भी राष्ट्रीय औसत से ज्यादा पीछे नहीं है. यहां यह आंकड़ा 83.3 प्रतिशत है. झारखंड में 84.1 प्रतिशत, मध्यप्रदेश में 79.2 प्रतिशत, यूपी में 79.4 प्रतिशत और ओडिशा में 75.3 प्रतिशत लड़कियां हाई स्कूल के पहले ही स्कूल छोड़ देती हैं. अगर 10 से 14 साल की लड़कियों की शिक्षा की बात करें तो इसमें गुजरात सबसे निचले पांच राज्यों में आता है.
कोविड के बाद बदलनी होगी रणनीति
बालिका शिक्षा पहले ही किसी चुनौती से कम नहीं रही है, ऐसे में कोविड में ने समस्याएं और विकराल कर दी हैं. कोरोनावायरस और लॉकडाउन की वजह से स्कूल बंद हुए तो कई बेटियों की शिक्षा ही रूक गई. स्कूल खुल जाने के बाद भी इनमें से आधे से अधिक बेटियां वापिस नहीं लौटी हैं. खासतौर पर ग्रामीण भारत में. सेंटर फ़ॉर बजट एंड पॉलिसी स्टडीज (CBPS), चैंपियंस फ़ॉर गर्ल्स एजुकेशन (Champions for Girls’ Education) और राइट टू एजुकेशन फोरम (RTE Forum) ने हाल ही में एक सर्वे कर बताया था कि लॉकडाउन के समय से हुए स्कूलबंदी के कारण लड़कियों की पढ़ाई खासा प्रभावित हुई है और एक साल बाद अब जब स्कूल खुलने जा रहे हैं, तो लगभग एक करोड़ लड़कियों की पढ़ाई छूटने की आशंका (ड्रॉप आउट) भी बन गई है.
इस बीच सरकार को बेटियों की शिक्षा पर जोर देने की जरूरत थी तो उसके उलट बेटियों की शिक्षा वाले बजट से ही कटौती कर ली. बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना के तहत सुकन्या समृद्धि योजना, बालिका समृद्धि योजना, लाडली लक्ष्मी योजना, कन्याश्री प्रकल्प योजना और धनलक्ष्मी योजना जैसी छोटी-छोटी योजनाएं आती हैं, जिसमें कन्या का जन्म होने पर प्रोत्साहन राशि, छात्राओं के लिए एक निश्चित छात्रवृत्ति और उच्च शिक्षा व शादी के लिए सरकारी वित्तीय सहायता और गारंटीड बैंकिंग स्कीम आदि की व्यवस्था सरकार द्वारा की गई है. इन योजनाओं के संचालन के लिए एक निश्चित बजट और संसाधन की जरूरत होती है. वित्त वर्ष 2017-18 में बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना के लिए 200 करोड़ रूपये, 2018-19 में 280 करोड़ रूपये, 2019-20 में 85.78 करोड़ रूपये खर्च हुए थे जबकि 2020-21 में 220 करोड़ रूपए प्रस्तावित किए गए थे, जिसे बाद में संशोधित कर 100 करोड़ रूपए कर दिया गया. लेकिन इस साल केंद्र सरकार ने इस योजना को अलग से कोई बजट ना देते हुए इसे प्रधानमंत्री मातृ वंदना, महिला शक्ति केंद्र और महिलाओं के लिए शोध, मॉनीटरिंग जैसी योजनाओं के साथ मिलाकर इसे ‘सामर्थ्य योजना’ का नाम दिया है और कुल 2,522 करोड़ रूपये दिए हैं.
अगर इन चारों योजनाओं के पिछले साल के मूल बजट को एक साथ मिलाया जाए, तो यह राशि 2,828 करोड़ रूपए थी. बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ योजना का लगभग 70 फीसदी हिस्सा पहले भी सिर्फ विज्ञापन और प्रचार पर खर्च होता था, अब इसे अन्य योजनाओं के साथ मिलाकर और इसका बजट कम कर इसे और महत्वहीन कर दिया है. जबकि यह लड़कियों का ड्रॉप आउट रोकने के लिए एक महत्वपूर्ण योजना साबित हो सकती थी. जब देश की हज़ारों लड़कियों पर पढ़ाई छूट जाने का ख़तरा मंडरा रहा है, तब इस योजना के बजट बढ़ाए जाने की बजाए सरकार ने पिछले साल के वास्तविक बजट से 99.1% तक कम कर दिया है. इसके अलावा ‘समग्र शिक्षा’ कार्यक्रम पर इस बजट में 7,000 करोड़ रूपए कम आवंटित किए गए हैं.
सीबीपीएस, चैंपियंस फॉर गर्ल्स एजुकेशन (Champions for Girls’ Education) और आरटीई फोरम द्वारा किए गए सर्वे में भी यह निकल कर सामने आया था 37% लड़कों की तुलना में महज 26% लड़कियों को ही ऑनलाइन पढ़ाई के लिए फोन और इंटरनेट की सुविधा मिल पाती है. इसी सर्वे में ही 71 प्रतिशत लड़कियों ने माना था कि कोरोना के बाद से वे केवल घर पर हैं और ऑनलाइन पढ़ाई के समय में भी उन्हें घरेलू काम करने के लिए कहा जाता है. वहीं ऐसे सवाल पर सिर्फ केवल 38 प्रतिशत लड़कों ने ही कहा कि उन्हें पढ़ाई के समय घरेलू काम करने को कहा जाता है.
नए भारत में बदलाव बस इतना करना होगा की लोग लोग लड़के और लड़की में भेदभाव खत्म करें, तभी स्थिति में बदलवा संभव है . उत्तर प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, ओडिशा सहित अन्य राज्यों के प्रत्येक गांव में स्कूल ही नहीं हैं यानी पढऩे के लिए छात्रों को दूसरे गांव यानी की दसियों किलोमीटर दूर जाना पड़ता है. इसके चलते माता-पिता अपनी बेटियों को स्कूल नहीं भेज पाते और नतीजा भारत में ग्रामीण शिक्षा विफल रह जाती है. कुछ अच्छे उदाहरण भी है जैसे बिहार सरकार द्वारा साईकिल योजना की शुरू की गयी तो स्कूल की दूरी कम हुई लेकिन जहाँ 10- 12 किलोमीटर दूर जाना परे वहां यह साईकिल भी काम नहीं आता, अगर लड़कियां स्कूल पहुँच भी जाए तो छात्रों की तुलना में शिक्षकों का न होना भी छात्रों को गुणवत्ता युक्त शिक्षा से दूर करता है. कोरोना काल में मीती पिता की आर्थिक बदहाली और बच्चों को अशिक्षा की और धकेलने का काम करेगी. सरकारी स्कूलों की हालत अच्छी नहीं है और निजी स्कूल बहुत महंगे हैं. इसका नतीजा यह रहता है कि माध्यमिक शिक्षा में सफल रहकर आगे पढऩे के लिए कॉलेज जाने वाले छात्रों की संख्या कम हो जाती है, इसलिए गांवों में माध्यमिक स्तर पर ड्रॉप आउट दर बहुत ज्यादा है. भारत को एक मजबूत राष्ट्र बनाने की नींव प्राथमिक और ग्रामीण स्तर पर रखना जरूरी है, ताकि शुरू से ही शिक्षा का स्तर बेहतर हो. मुफ्त शिक्षा के बजाय ड्रॉप आउट के पीछे की वजह जाननी चाहिए, जो कि प्रगति के रास्ते में एक बड़ी बाधा है.
बेटी बीटा एक समान
सबको शिक्षा सब को काम!
पढेगी बेटी
बढ़ेगी बेटी!
जैसे नारे आज भी राजनितिक इक्षा शक्ति की कमी का शिकार है , और बच्चियां शिक्षा से दूर. यह है न्यू इंडिया की सच्चाई.