नया भारत- रिश्तों के शव, धर्म का नशा और सवालों का अकाल

BMW M340i worth Rs-83 Lakh submerged in rain water- Grugram-India
लेखक- सुल्तान अहमद
कभी इस मुल्क को ‘संसार का गुरु’ कहा गया था- ज्ञान, विज्ञान, विवेक और सहिष्णुता के लिए। मगर आज वही समाज अपने भीतर ऐसे किस्से पाल रहा है जिन्हें सुनकर भी रूह काँप उठे। क्या वाक़ई हम ‘नए भारत’ की तरफ़ बढ़ रहे हैं, या एक ऐसे गर्त की तरफ़, जहाँ रिश्ते, नैतिकता और विवेक सबका मखौल उड़ रहा है?
अख़बार के पन्ने खोलिए — कहीं एक युवती यौन उत्पीड़न से तंग आकर ख़ुद को आग लगा रही है, कहीं एक पत्नी प्रेमी के साथ मिलकर पति की हत्या करवा रही है, कहीं कोई पत्नी अपने पति के टुकड़े कर ड्रम में भर दे रही है, तो कहीं पत्नी पेशेवर हत्यारों से पति को मरवा रही है।
रिश्तों की मर्यादा किस कोने में छुप गई?
किसी घर में चाची भतीजे के साथ भाग जा रही है, तो कहीं मौसी भांजे से शादी कर रही है। कोई जिठानी देवर के साथ है, तो कहीं जेठ अपने अपनी छोत भाई की पत्नी को अपनी बी बी बना रहा है , कोई भाई अपनी सगी बहन को हवस की नज़रों से देख रहा है। कुछ जगहों पर तो हालात ऐसे हैं कि पति अपनी पत्नी की शादी उसी के प्रेमी से ख़ुद करवा दे रहा है — ताकि समाज के सामने इज़्ज़त बची रहे और खुद को udaar साबित कर सके।
ये घटनाएँ केवल अपराध नहीं, यह हमारे समाज की गहराती मनोवैज्ञानिक दरारें हैं। सवाल है- क्या इसके पीछे हमारी सामाजिक संरचना की कोई विफलता छुपी है? क्या यह हमारे तंत्र की असफलता है कि न्याय नहीं मिलेगा, इसलिए कोई ख़ुद को आग के हवाले कर दे? या यह उस नैतिक गिरावट का संकेत है, जिसमें रिश्तों के नाम पर सब कुछ जायज़ हो रहा है?
इधर दूसरी तरफ़- जब परिवार और समाज की नींव दरक रही है — वही सरकार लोगों को धर्म के नाम पर जोड़ने और तोड़ने में व्यस्त है। करोड़ों लोग शिक्षा, रोज़गार, स्वास्थ्य के बुनियादी अधिकारों को तरस रहे हैं। लेकिन सरकार धर्म यात्राओं पर सरकारी तंत्र लगा रही है, पुष्प वर्षा कर रही है, मुफ़्त भोजन बाँट रही है- ताकि आस्था का खेल चलता रहे।
मगर जिस जनता को मुफ़्त इलाज, स्कूल, रोज़गार नहीं मिल रहा, जीवन जीने का अधिकार नहीं मिल रहा है उसी जनता से सरकार काग़ज़ मांग रही है- “साबित करो कि तुम भारतीय हो।” हैरानी की बात यह है कि जिन्होंने कभी अपनी डिग्री नहीं दिखाई, वही जनता से नागरिकता का सबूत मांग रहे हैं। अगर कल को यही अधिकारी अपनी नागरिकता साबित करने पर मजबूर हो जाएँ, तो क्या वे भी घूस देकर ही काग़ज़ बनाएँगे?
विकास का मॉडल धराशायी?
अभी तो बस थोड़ी सी बारिश हुई-और देखिए, गुरुग्राम जैसा आधुनिक, चमकता-दमकता शहर पानी में डूब गया। सड़कों पर गाड़ियाँ आधी पानी में समा गईं, लोग घंटों ट्रैफिक में फँसे रहे, कई इलाकों में घरों के अंदर तक पानी घुस गया। कहने को ‘मिलेनियम सिटी’, लेकिन हालात गाँव-कस्बों से भी बदतर!
कहीं कोई नाला जाम, कहीं ड्रेनेज बंद — पूरा शहर बस देखता रहा, कोई मदद नहीं, कोई राहत नहीं। लोग सोशल मीडिया पर वीडियो बनाकर डालते रहे, पर नगर निगम, प्रशासन — सब अपनी जिम्मेदारी से मुँह मोड़ते रहे।
सबसे बड़ा सवाल यही है कि इस जलजमाव की जिम्मेदारी किसकी थी? क्या इतनी बारिश से निपटने के लिए गुरुग्राम तैयार नहीं था? क्या करोड़ों के बजट सिर्फ़ काग़ज़ों पर खर्च हो गए?
युवा परेशान हुए- स्कूल, कॉलेज, ऑफिस जाने में मुश्किल, कई जगह गाड़ियाँ बंद पड़ी रहीं, लोग धक्के खाते रहे। मगर प्रशासन नदारद!
यह जलभराव कोई अचानक आई आपदा नहीं थी – बरसों से गुरुग्राम की गलियों में पानी भरता रहा है। फिर भी हर बार वही ढाक के तीन पात!
आख़िर ये जवाबदेही कौन लेगा? जब बड़े-बड़े टावर, मॉल और सोसाइटीज़ बनाने की बात आती है तो सरकार और बिल्डर सब लाइन में खड़े होते हैं। मगर जब बुनियादी नालियाँ, ड्रेनेज और सड़कें दुरुस्त रखने की बात आती है -तो सबकी नज़रें दूसरी तरफ़ घूम जाती हैं।
क्यों न माना जाए कि यह सिर्फ़ ‘प्राकृतिक’ समस्या नहीं, बल्कि प्रशासन की ‘कृत्रिम लापरवाही’ है?
लोकतंत्र पर उठते बड़े सवाल?
लोकतंत्र का मतलब सिर्फ़ वोट डालना नहीं होता-सवाल पूछना भी उतना ही ज़रूरी होता है । मगर आज सवाल पूछना ‘राष्ट्रद्रोह’ जैसा लगता है। जिन इलाकों से सरकार को वोट नहीं मिलते, वहाँ के वोटर को घुसपैठिया साबित करने की साज़िश-कोई छुपी बात नहीं रही।
ऐसे में आम आदमी कहाँ जाए? उसके बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़कर क्या बनेंगे? स्कूल की फीस, किताब, यूनिफॉर्म, बस चार्ज-यह सब मिलाकर उसकी कमाई का बड़ा हिस्सा निकल जाता है। मजबूरी में सब झेलता है। लेकिन जब धर्म के नाम पर भीड़ इकठ्ठा करनी हो, तो सब मुफ़्त-बस भी, खाना भी, फूलों की वर्षा भी!
यहाँ तर्क की जगह अंधभक्ति पनप रही है। विज्ञान, विवेक, सवाल पूछने की आदत- सबको ‘पाखंड’ के गटर में धकेला जा रहा है। ऐसे में यह नया भारत किस दिशा में जा रहा है?
यह सब पढ़कर और देख-सुनकर दिमाग़ में एक ही सवाल गूंजता है- क्या इस देश के भीतर चल रहे इस मनोवैज्ञानिक उथल-पुथल पर किसी ने कभी गंभीर शोध किया? अगर नहीं, तो होना चाहिए — ताकि समझा जा सके कि यह समाज अपने ही परिवार, पड़ोस, सरकार और सिस्टम से इतनी नफ़रत क्यों पालने लगा है।
शायद आज का सबसे बड़ा सवाल यही है –क्या हम वाक़ई ‘नया भारत’ बना रहे हैं, या हम किसी ऐसे अंधे मोड़ पर पहुँच चुके हैं जहाँ रिश्तों के शव, धर्म का नशा और सवालों का अकाल- यही हमारी पहचान बन जाएँगे?
बाक़ी आप सुधि पाठक ख़ुद बताइए — कहाँ जा रहा है यह देश?