तब तक रौशन ये टीका है

गौहर रज़ा
आज दमकते चेहरे पर
जो ख़ून का टीका
रौशन है
इस ख़ून में गर्मी
है अब तक
ये ख़ून अभी तक
ज़िंदा है
ये ख़ून ज़मानत है
उसकी
जब तीर-ओ-तफ़ंग-ओ-सफ़ लश्कर
बे-मानी बे-मसरफ़ होंगे
और मोहनी गोरी
पनघट तक
बे-खौफ़-ओ-ख़तर
जा पाएगी
तब दूर कहीं
मद्धम-मद्धम
शीरीं-शीरीं
बंसी की सदा
छा जायेगी
नन्हें-मुन्ने माथे पर
दादी कुछ पढ़कर फूकेंगी
बच्चे स्कूल को जाएँगे
फ़िरदौस-ए-बरीं
सब हुसन लिए
इस धरती पर
आ जायेगी
तब तक रौशन ये टिका है
तब तक इस ख़ून में गर्मीं है
तफ़ंग=भाले, सफ़=क़तार, लश्कर=फ़ौज, बे-मसरफ़=बेकार, शीरीं-शीरीं =मीठी मीठी, फ़िरदौस-ए-बरीं =स्वर्ग
लेखक जानेमाने कृषि वैज्ञानिक , उर्दू के कवि, सामाजिक कार्यकर्ता और डाक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता हैं )