ग्रामीण रोजगार योजना दुर्गम और कैसे महाराष्ट्र की सबसे गरीब महिलाओं को काम के लिए दूर तक पलायन करना पड़ता है

MGNREGA workers in Rajasthan. Photo: UN Women/Gaganjit Singh/Flickr CC BY-NC-ND 2.0
प्रियंका तुपे22 मार्च 2024
ट्रिगर वार्निंग: आत्महत्या का उल्लेख
आम चुनाव नज़दीक हैं, और हम किसे वोट दें, ओपिनियन पोल, पार्टियों में लड़ाइयां, कैंपेनिंग और न जाने क्या-क्या के बारे में कितना कुछ सुन रहे हैं! आज सुनते हैं कुछ लोगों की आत्मकथायें, जो हाशिए पर रहकर सरकार से दिन-रात रोटी, कपड़ा और मकान की उम्मीद में रहती है, क्योंकि सरकार का फ़र्ज़ बनता है कि वो अपने देश के नागरिकों की बुनियादी सुविधाएं देने में जवाबदेही रखे. ये कहानी है 3 जिलों की जो महाराष्ट्र में हैं: अकोला, अमरावती, और यवतमाल. 7 साल की कल्याणी* और उसका 6 साल का भाई रोहन* को उनकी आजी यानी दादी गंगूबाई उनको स्कूल के लिए तैयार होने में मदद करती हैं. बच्चों की आजी कहती हैं कि वे यह सब इसलिए करती हैं क्योंकि उनकी बहु तानाबाई ने काम फिर से शुरू कर दिया है. वह बच्चों को देखने के लिए एक दिन के लिए घर आई थी लेकिन उन्हें नहीं पता कि वह दोबारा घर कब आएगी. इसी तरह दूसरी कहानी है अस्मिता और अंजू पवार की, अमरावती के हिंगलासपुर गांव में दो युवा कॉलेज छात्र अपनी साल भर की भतीजी चिंकी* की देखभाल कर रहे हैं. उनकी माउशी रविता पवार की दिसंबर 2023 में आत्महत्या से मृत्यु हो गई, जब वह बेरोज़गारी और घरेलू हिंसा के तनाव का सामना नहीं कर पा रही थीं.प्रियंका बताती हैं कि बहनबॉक्स ने यवतमाल, अमरावती और अकोला के गांवों में कई छोटे बच्चों से मुलाकात की, ख़ासकर एसटी और एनटी–डीएनटी समुदायों जैसे चरण–पारधी, पारधी और धनगर समुदायों से, जिनके माता–पिता काम की तलाश में पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, चेन्नई, दिल्ली और मुंबई चले गए. बच्चों को बुज़ुर्ग दादा–दादी, या यहां तक कि बड़ी बेटियों की देखभाल में छोड़ दिया गया है, जिनमें से कुछ मुश्किल से 10 साल की हैं.महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम 2005 के तहत शुरू की गई MGNREGS उन सभी ग्रामीण परिवारों को न्यूनतम 100 दिनों के काम यानी कि शारीरिक श्रम की गॅरंटी देती है जो अकुशल शारीरिक श्रम पर रहते हैं. इसे एक अधिकार के रूप में परिभाषित किया गया है और जिन लोगों को इससे वंचित किया गया है वे बेरोज़गारी भत्ते के हकदार हैं.ज्यॉ ड्रेज़, जो कि विकास अर्थशास्त्री और MGNREGS के वास्तुकारों में से हैं, उन्होंने कहा, “पिछले दस सालों में, नरेगा अधिकार–आधारित, जहां श्रमिकों को हर कदम पर अपनी बात कहने का अधिकार है, वो विकेन्द्रीकृत रोज़गार कार्यक्रम के दृष्टिकोण से पूरी तरह से दूर हो गया है.”यवतमाल की एक कार्यकर्ता प्रणाली जाधव ने कहा कि, “यहां महिलाओं का काम के लिए दूसरे राज्यों में पलायन करना बहुत आम बात है, खासकर आदिवासी समुदायों की महिलाओं के लिए. ज़्यादातर कल्याणकारी योजनाएं उनकी पहुंच से बाहर हैं. अत्यधिक गरीबी, बेरोज़गारी और बड़ों का प्रवास बच्चों को प्रभावित करता है, एस्पेशल्ली लड़कियों को जिन्हें संकट के कारण बाल–विवाह में धकेल दिया जाता है.”दोपहर के भोजन में, महिलाओं को खाने के लिए केवल 3-4 रोटियाँ और कुछ बड़े चम्मच पानी वाली करी मिलती है. भुगतान की देरी की वजह से उन्हें ज़्यादा पौष्टिक आहार नहीं मिल पाता है. बहनबॉक्स ने पाया कि एससी, एसटी, एनटी, डीएनटी जैसे हाशिए वाले समूहों के लोगों को शामिल करने के लिए मनरेगा की पहुंच सुनिश्चित करने के लिए कोई लक्षित हस्तक्षेप नहीं है.टिटवा बेडा गांव की फुलजाबाबाई राठौड़ बताती हैं कि जब वो 2015 में सरपंच थीं, तब भी उन्हें नरेगा के तहत काम का प्रस्ताव नहीं मिला, जिससे उनके पारधी समुदाय को काम मिलता. वो पढ़ी–लिखी नहीं हैं और ऊंची जाति के ग्राम पंचायत सदस्य हर बार कोरे कागजों पर उनसे अंगूठा लगवा लेते थे. हाशिए पर मौजूद सामाजिक समूहों के सरपंचों ने कहा कि उनके पास बदलाव लाने की वास्तविक शक्ति नहीं है. हालाँकि, MGNREGS के वार्षिक मास्टर सर्कुलर 2022-2023 में स्पष्ट रूप से हाशिए पर रहने वाले समूहों पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता बताई गई है कि जो परिवार सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना के अनुसार कमज़ोर या वंचित के रूप में सूचीबद्ध हैं, उन्हें प्राथमिकता पर जॉब कार्ड जारी किए जाने चाहिए. ऐसी संभावना है कि एसईसीसी 2011 के अनुसार ‘आजीविका‘ श्रेणी के लिए शारीरिक आकस्मिक श्रम पर निर्भर कई भूमिहीन परिवार अभी तक इस योजना के तहत पंजीकृत नहीं हैं. राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को सक्रिय रूप से इन भूमिहीन और शारीरिक आकस्मिक श्रमिक परिवारों तक पहुंचना चाहिए और उन परिवारों को पंजीकृत करना चाहिए जिनके पास जॉब कार्ड नहीं हैं और वे महात्मा गांधी नरेगा के तहत काम करने के इच्छुक हैं. जो लोग काम करते हैं और पाते हैं, वे नहीं जानते हैं कि मनरेगा अधिनियम के तहत कार्यस्थल पर क्रेश, चिकित्सा सहायता, शेड, पीने के पानी की सुविधा आदि जैसी सुविधाओं के लिए भी प्रावधान हैं.अकोला जिले के तिवासा गांव की सरपंच मंदा बहादारे ने कहा कि जब वो अपने प्रस्तावों के साथ पंचायत समिति कार्यालय में जाती हैं, तो उन्हें कुल परियोजना अनुमान का 10% कमीशन देने के लिए कहा जाता है. और अगर वो इनकार करते हैं, तो उन्हें मंज़ूरी के लिए मुंबई में राज्य सचिवालय के मंत्रालय जाने के लिए कहा जाता है.NREGS महाराष्ट्र में 273 विभिन्न प्रकार के कार्य प्रदान करता है, जो विभिन्न मंत्रिस्तरीय विभागों के अंतर्गत आते हैं. अमरावती के हिंग्लासपुर गांव में छह लोगों को NREGS के तहत वृक्षारोपण का कुछ काम मिल सका; किसी भी महिला को कोई काम नहीं दिया गया. बहनबॉक्स ने रोजगार सेवक योगेश राउत से पूछा कि महिलाओं को इस योजना से बाहर क्यों रखा गया है, तो वो कहते हैं कि वर्तमान में पर्याप्त काम उपलब्ध नहीं है और महिलाएं खेत मजदूर के रूप में काम करना पसंद करती हैं जबकि पुरुष तेज़ धूप में वृक्षारोपण का काम करते हैं.NREGS के तहत खर्च में लगातार वृद्धि हुई है. 2020-21 में यह कोविड–प्रेरित रिवर्स माइग्रेशन के कारण बढ़ गया क्योंकि बहुत से लोग शहरों और कस्बों से गांवों में वापस जा रहे थे. यह मांग ख़त्म हो गई है लेकिन उस हद तक नहीं कि आवंटन में कटौती की जाए.जिन लोगों को उनकी मांग के 15 दिनों के दौरान काम नहीं दिया जाता है, वे बेरोज़गारी लाभ या भत्ते पाने के हकदार हैं, लेकिन बहनबॉक्स ने जिस भी महिला से बात की, उन्हें अधिनियम के इस प्रावधान के बारे में जानकारी ही नहीं थी. सरूबाई केंगर को एक साल पहले जॉब कार्ड मिला था लेकिन उन्हें कोई काम नहीं मिला और न ही उन्हें बेरोज़गारी भत्ते के बारे में पता है. बिहार से भी ऐसे ही मामले सामने आए हैं. और उत्तर प्रदेश से रिपोर्टिंग करने वाले बहनबॉक्स के सहयोगियों को भी ऐसे उदाहरण मिले हैं.हालांकि मनरेगा ने निस्संदेह ग्रामीण परिवारों को रोज़गार और सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने में एक अहम भूमिका निभाई है, लेकिन कमज़ोर और हाशिए पर रहने वाले समुदायों के उत्थान में इसकी प्रभावशीलता संदिग्ध बनी हुई है. अब चुनाव तो ख़ैर सर पे हैं, देखते हैं कि इतने समय से चली आ रही रोज़गार योजना MGNREGA क्या आखिर इन नागरिकों की इच्छाओं को पूरा करने में सक्षम होएंगी? इस मसले पर आप क्या सोचते हैं? अपनी राय बताएं .
यह आर्टिकल नारीवाद के नज़रिये से बहनबॉक्स के आम चुनाव 2024 कवरेज का एक हिस्सा है जो कि प्रियंका तुपे द्वारा शोध करने के बाद लिखा गया है. इसका अनुवाद और पटकथा, प्रांजली शर्मा ने लिखी है. अधिक जानकारी के लिए हमसे इसी तरह जुड़े रहें, और हमें सुनने के लिए बहुत–बहुत शुक्रिया.