गोयबेल्स की संततियां और जनतंत्र का ठेका सिस्टम

प्रेमकुमार मणि

जोसफ गोएबेल्स (1897 -1945) तानाशाह हिटलर का प्रचार मंत्री था ,जिसकी एक बात किंवदंती की तरह आज भी प्रचलित है ” झूट को इतनी बार बोलो कि वह सच लगने लगे।” उतर सत्य के इस ज़माने में सत्य का विरूपण एक व्यवस्थित कारोबार का रूप ले चुका है। अब तो गोएबेल्स की संततियों ने कम्पनिया बना ली हैं। वे अरबों -खरबों में अपनी सेवा बेचते हैं।

माल- पानी वाले लगभग हर राजनीतिक दल इन कंपनियों का इस्तेमाल कर रहे हैं। एक समय था जब राजनीतिक दलों का अपने कार्यकर्ताओं पर भरोसा होता था। किसी भी राजनीतिक दल में अब कार्यकर्ताओं की कोई अहमियत – इज़्ज़त नहीं है। जनता की ही तरह वे एक ऐसी भीड़ भर हैं जिसे नेताओं को झेलना होता है। वे पार्टी की ताकत नहीं ,बोझ हैं। पार्टियों में विचारों का यूँ भी अकाल -सा है। हर पार्टी का अध्यक्ष अब सुप्रीमो कहा जाता है। सुप्रीमो का गुणगान ही राजनीतिक कार्य रह गया है। इसी का प्रचार करना होता है। मोदी -मोदी या नीतीशे कुमार की शैली रह गई है।

प्रचार कार्य एजेंसियां करती हैं। इन एजेंसियों की बोलियां लगती हैं। वे प्रचार का ठीका लेते हैं। अन्य पार्टियों से बातचीत की दलाली भी करती हैं। उनका लक्ष्य येनकेन उस पार्टी की जीत सुनिश्चित करा देना होता है जो उन्हें हायर करता है। 2014 के लोकसभा चुनाव में एक कंपनी को भाजपा ने इस्तेमाल किया। जीत जाने पर मोदी जी ने उससे शायद किनारा कर लिया। कमसे कम इतनी नैतिकता उनमे थी की इसे वह गलत समझ रहे थे। 2015 के बिहार चुनाव में नीतीश कुमार ने उसका खुल्ल्म -खुल्ला इस्तेमाल किया। जीत जाने पर उसे माथे पर बिठाये रहे। मंत्री स्तर का कोई पद भी दिया गया।

सुना वह ठीकेदार कार्यकर्ताओं को उपदेश भी पिलाता था। लेकिन उस कारोबारी का इसमें मन नहीं लगा। उत्तरप्रदेश में चुनाव होने थे और कांग्रेस ने भी उसकी सेवा ली। नतीजा सिफर निकला। सुना है वह सख्श एकबार फिर भाजपा कैंप में तैनात है। कहने का तात्पर्य कि कोई एक पार्टी नहीं, लगभग सभी बड़ी पार्टियां इस अपराध में शामिल हैं। मैं किसी व्यक्ति या पार्टी विशेष की आलोचना नहीं करना चाहता। एक प्रवृति की ओर आम जनता का ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूँ। इस प्रवृति को मैं जनतंत्र के लिए घातक समझता हूँ। चाहता हूँ इस मुद्दे पर व्यापक विमर्श हो और चुनाव आयोग इस की रोकथाम करे।

यह सीधे तौर पर जनतंत्र का भ्रष्टाचरण है। केवल यह नहीं कि इन्हे अरबों रुपये कहाँ से दिए जाते हैं। पार्टियां शायद उनका हिसाब दे देंगी। अहम प्रश्न यह है कि चुनाव में समानता के आदर्श को यह खंडित करता है। जैसे खेलों में ड्रग के इस्तेमाल को दंडनीय अपराध माना जाता है ,इसे भी माना जाना चाहिए . क्योंकि ये कंपनियां झूट की खेती करती हैं . अनाप -शनाप प्रचार कर जनतंत्र को विरूपित करती हैं . इसका नतीजा यह होगा कि राजनीतिक दल विचारहीन होते चले जायेंगे और ऐसा हुआ तब क्या होगा इसकी हम कल्पना सहज ही कर सकते हैं।

(लेखक बिहार विधान परिषद् के पूर्व सदस्य हैं )