गिरीश कारनाड को श्रद्धांजलि देने का मतलब

एक लंबी बीमारी और ऐसी बीमारी जिसके बारे में डॉक्टर ने पहले ही बता दिया था कि आपके जीवन का अंत काफी करीब है, गिरीश कारनाड ने केवल बीमारी से लड़ाई नहीं लड़ी, मौजूदा निज़ाम के खिलाफ भी खूब जम कर लड़ी। कुछ बरस पूर्व दैनिक जागरण के एक फेस्टिवल में राम गोपाल बजाज के साथ लखनऊ आये थे तो मंच पर अपने भाषण के दौरान दादरी के सवाल को बेख़ौफ़ उठाया था।
उन्होंने अखलाक को मारने वालों और उनके पक्ष में खड़ा होने राजनीतिकों और संस्कृतिकर्मियों की भर्त्सना की। भाषण के बीच में किसी दर्शक ने टोका तो कारनाड जी अपने स्टैंड से पीछे नहीं हटे। कहा कि हम इस लड़ाई में अखलाक के साथ हैं। बहुतेरे ऐसे संस्कृतिकर्मी हैं जो अपने को नाटक तक ही सीमित करते हैं, अपने को नॉन पोलटिकल कहने में फक्र महसूस करते हैं। समाज में कोई दमन, शोषण होता है तो विरोध करने से बचते हैं। लेकिन गिरीश कारनाड अपने को केवल रचनाकर्म तक ही सीमित नहीं करते हैं, अर्बन नक्सल के नाम पर जब लोगों को जेल में डाला जा रहा था, कारनाड हाथ में तख्ती लेकर नाक में ऑक्सीजन पाइप के साथ इस निरंकुशता के विरोध में सड़क उतर कर फासीवाद का विरोध किया था।
अपने नाटक ‘ रक्त कल्याण’ के माध्यम से ब्राह्मणवादी सत्ता पर प्रहार किया था, वर्तमान रंगमंच के लिए उदाहरण है। मुख्यधारा का रंगमंच जो ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के जाल में फंसा है, कारनाड अपने रंगकर्म के माध्यम से ताउम्र लड़ते रहे। और इस कारण धार्मिक कट्टरता के निशाने पर भी हमेशा रहे । बल्कि गौरी लंकेश के ऊपर इनका क्रम था।
ताकत मिलती है, जब कारनाड जी जैसे नाटककार, संस्कृतिकर्मी के जाने के बाद इतनी बड़ी तादाद में याद किये जा रहे हैं। कारनाड जी को याद करते हैं तो कम से कम इस बहाने उनके अमर नाटकों को याद करते हैं, वसवन्ना जैसे पात्र को याद करते हैं जो अपनी लड़ाई में कभी पीछे नहीं हटा। कारनाड के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि तभी होगी जब उनकी अधूरी लड़ाई के लिए , उनके विचार को आगे ले जाने के लिए एकजुट हो। ये सार्थक नहीं होगा कि हम उन्हें श्रद्धांजलि भी दे और बर्बर सत्ता के साथ कदम मिला कर भी चले। सही श्रधांजलि वही होगी जब उनकी धार को और तेज करें।
शाहिद कबीर