गर्मी का रोना रोने वालों…पर्यावरण रक्षा कोई रॉकेट साइंस नहीं

1979 की बात है. तब जाधव पायेंग ऊर्फ मोलाई सिर्फ 16 साल के थे. ब्रह्म्पुत्र में आई बाढ के कारण सैकडों सांप पानी से निकल कर रेत पर आ गए थे. भीषण गर्मी से वे सांप तडप-तडप कर मर गए. मोलाई ये देख कर बहुत दुखी हुए. तभी से उन्होंने जोरहट में ब्रहमपुत्र नदी के किनारे पेड लगाना शुरु कर दिया. मोलाई आज इतनी संख्या में पेड लगा चुके है कि नदी किनारे 1400 एकड का फॉरेस्ट रिजर्व बन चुका है. और उस वन का नाम है, “मोलाई वन”.

40 साल की मेहनत के बाद, साल 2015 में भारत सरकार ने उन्हें पद्म श्री से सम्मानित किया. इस एक काम के लिए ही मैंने अब तक शायद मोदी सरकार को दिल से धन्यवाद दिया है. आज मानव निर्मित इस मोलाई वन में बंगाल टाइगर से ले कर हाथी, हिरण तक रहते है. 300 हेक्टेयर में तो सिर्फ बांस (बैम्बू) है.

सरकारी अधिकारियों को तो इस जंगल का पता ही चला साल 2008 में. जब वे खोए हाथियों की तलाश में मोलाई के गांव के आस-पास पहुंचे. वहां उन्हें इस विशाल वन क्षेत्र को देख कर आश्चर्य हुआ. मोलाई असम के एक लुप्तप्राय आदिवासी समुदाय से आते है और मोलाईए वन में ही एक झोपडी बना कर रहते है. अपना जीवन उन्होंने इस वन को समर्पित कर दिया है.

2012 में उन पर द मोलाई फॉरेस्ट, 2013 में फॉरेस्टिंग लाइफ नाम से डक्यूमेंट्री बनी. फ्रेंच फिल्म मेकर्स ने भी उन पर एक डॉक्यूमेंट्री बनाई है, फॉरेस्ट मैन. फॉरेस्ट मैन को कांस फिल्म फेस्टिवल 2014 में बेस्ट डॉक्यूमेंट्री का अवार्ड भी मिला.

तो भैया, हमारे लिए सन्देश क्या है? इतनी कहानी सुनने के बाद भी सन्देश देने की जरूरत है क्या…?

लेकिन, हम ठहरे मुफ्त के सलाह देने वाले. तो केन्द्र समेत राज्य सरकारें फिलहाल इतना कर दे कि पहली से 10वीं कक्षा के बीच, जब तक कोई बच्चा 100 पेड लगा कर, उसका भरण-पोषण नहीं करेगा, उसे तब तक दसवीं का प्रमाण पत्र नहीं दिया जाएगा…बाकी, सब अपने-आप ठीक हो जाएगा.

मोलाई को सलाम…

शशि शेखर