क्या सच में औरतें अपने नाम से जानी जाती है?
लेखक – राजीव रंजन
पिछले साल संसद में महिलाओं के लिए राजनीति में 33 प्रतिशत आरक्षण के लिए नारी शक्ति वंदन अधिनियम 2023 यानि की महिला आरक्षण बिल पास हुआ। महिलाओं की भागीदारी के लिए यह 30 साल पुरानी मांग थी इस बिल का श्रेय लेने के लिए सभी राजनैतिक पार्टियां लाइन में आगे खड़ी थी और हर कोई खुद को महिलाओं की सबसे बड़ी हितैषी घोषित करने में जुटा था । बिल के पास होने से भारतीय राजनीति में प्रतिनिधित्व में सुधार की उम्मीद भी जगी, लेकिन इसे लागू करने में अभी भी कई वैधानिक रोड़े भी है , जो समय के साथ शायद सुधर भी जाए,लेकिन सोचने वाली बात ये है कि हमारे समाज में महिला और उसकी पहचान पर क्या वाकई में विचार करना चाहिए ?
पाठकों
समाज में महिलाओं की पहचान का महत्व और उनकी स्थिति को समझने की आवश्यकता के बावजूद, यह दुःखद है कि आधुनिक समय में भी महिलाओं की पहचान गुम हो रही है। विभिन्न समाजों में, पुराने धार्मिक और सांस्कृतिक मानसिकताओं के चलते, महिलाओं को सिर्फ घरेलू और पारंपरिक भूमिकाओं में ही समझा जाता है। इसके परिणामस्वरूप, उनकी सार्वजनिक पहचान धूमिल होती गई उन्हें आत्मनिर्भरता और स्वतंत्रता की भूमिका से वंचित किया जाता रहा । बहुत से समाजों में, महिलाओं को शिक्षा और साक्षरता की पहुंच में असमानता का सामना करना पड़ा । इसके परिणामस्वरूप, वे आर्थिक और सामाजिक रूप से कमजोर होती हैं, जिससे उनकी पहचान भी कम होती गई । आधुनिक सामाज में भी महिलाओं को शिक्षा की पूरी और समान पहुंच नहीं मिली । इससे उन्हें समाज में अपना सही स्थान नहीं मिला और उनकी पहचान पर प्रतिबंध लगता गया।
जैसा की मैं हमेशा कहता हूँ कि हमारे यहाँ यह 2 तरह के देश बसते है। एक शहर , जिसे हम इंडिया कहते है और दूसरा ग्रामीण जो भारत है और इसी भारत में देश की लगभग आधी से ज्यादा आबादी रहती है। और उस आबादी में आज भी हम महिला को नाम से नहीं जानते। कोई महिला पिंटू की माँ है , कोई मनोज की पत्नी, कोई फलाने घर की बड़ी या छोटी बहु है , कोई संजय की बहन, तो कोई फलाने गाँव वाली, जहाँ उन्हें उनके मायके के गाँव के नाम से जाना जाता है। हम महिलाओ को आज भी ऐसे ही पुकारते है और अपने आप को समाज में मॉडर्न दिखने की रीती का निर्वाह कर लेते है। समाज में महिलाओं की पहचान का महत्व और उनकी स्थिति को समझने की आवश्यकता के बावजूद, यह बहुत दुःख कि बात है आधुनिक समय में भी महिलाओं की पहचान गुम हो रही है।
बी बी सी की चर्चित पत्रकार सी टू तिवारी का कहना है की जब वह कुछ दिनों पहले भारतीय भाषा की पहली महिला उपन्यासकार रशीद – उन – निसा पर एक स्टोरी कर रही थी तब पाया की उन्होने 1881 में इस्लाह – उन- निसा लिखा लेकिन वो छप पाया 1894 में जब उनका बेटा बैरिस्टरी पढ़कर वापस लौटा. वजह लेखिका का नाम पर्दे में रखा जाना था . सो नॉवेल पर लेखिका का नाम नहीं छापकर लिखा गया…..बैरिस्टर मोहम्मद सुलेमान की माँ ।
ये 1881 की बात थी ….लेकिन आज भी औरतें क्या अपने नाम से जानी जाती है. हमारा गाँव मिथलानचल ….वहां औरतों के नाम उनकी जगह या मायके के नाम पर है….मोहनपुर वाली , कुरजी वाली ,सोनवर्षा वाली बखोरापुर वाली…..वो कहती हैं की पहली दफा जब ये सुना तो लगा जैसे कान में मानो गर्म तेल डाल दिया गया हो. और फिर उन्होंने ने जबरदस्त स्टोरी की और छपी भी , लेकिन हमारे समाज में केवल मीडिया जोर लगाए तो सामाजिक परिवर्तन शायद संभव नहीं , हम सब को मिलकर इस तरफ सोचना चाहिए।
ऐसा नहीं है कि केवल औरते ही औरतों की आवाज़ उठा सकती है। इसके लिए हम सभी को ख़ास कर के पुरुषो को आगे आना होगा। औरतों और पुरुषों को बराबर मानने वाला और उनकी बराबरी के लिए लड़ने वाला हर इंसान औरतों की आज़ादी की बात कर सकता है या उनके मुद्दे उठा सकता है। आज के मॉडर्न समय में हम उसे फेमिनिस्ट कह सकते है | और इसी फेमिनिस्ट विचार की मूल बात यह है कि औरतों और पुरुषों के बीच सत्ता का संबंध बराबर का हो . हम औरतों को आज़ादी दे।ताकि वे भी अपन सपने की उड़ान को बिना किसी पुरुष की सहायता के आसमान में जहां मन चाहे गोते लगा सकें.
तो दोस्तों, आप हमें बताइए कि
- आप इस मसले को लेकर क्या सोचते है ?
- आपके अनुसार से औरतों को आगे लाने के लिए हमें किस तरह के प्रयास करने की ज़रूरत है
- साथ ही, आप औरतों को किस नाम से जानते है ?
अपने विचार और अनुभव बताने के लिए कॉमेंट या टिप्पणी जरूर करें ।
याद रखे, समाज को बदलने के लिए हमें बोलना ही होगा , बोलेंगे तो बदलेगा जरूर ।