क्या राजनीतिज्ञों के लिए हर बच्चा खास हो सकता है ?

ग्राम वाणी फीचर्स 

कोरोना कई मायनों में बहूत अलग है ,कोरोना ही है जिसने समाज,परिवार,राज्य और सत्ता की सच्चाई आम जनों तक उजागर करने में कोई कसर नहीं छोड़ा , विकास का दावा करने वाली सरकारों की पोल तो तब ही खुल गयी थी जब अस्पताल में बिस्तर के लिए लोग अस्पताल-अस्पताल चक्कर काट रहे थे , सांस लेने में हो रही परेशानी को दूर करने के लिए ऑक्सीजन क्सिलेंडर की कमी तो अस्पताल में ऑक्सीजन बेड की अनुपलब्धता ,   लोकडाउन की फरमान के बाद प्रवासी मजदूरों का पैदल ही घर वापस जाना तो सदियों से कहे जाने वाले सभ्य समाज और गैर बराबर समाज की पारदर्शी तश्वीर दुनिया के सामने ला दी ,जहाँ एक तरफ कोरोना ने बेरोजगारों की संख्या में बढ़ोतरी की वहीँ छोटे नौनिहालों को पढाई छुराकर काम के दल-दल में धकेल दिया. एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले दो दशक में पहली बार इतनी बड़ी संख्या में बाल मजदूरों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है, संयुक्त राज्य संघ के अनुसार दुनिया भर में बाल मजदूरों की संख्या  152 मिलियन से 160 मिलियन पर पहुँच गयी है ,

कोरोना की पहली, दूसरी लहर गुजर चुकी है और तीसरी लहर के आने के कयास लगाए जा रहे हैं. इस बीच जो सबसे ज्यादा नुकसान भोगने वाली मजदूरों वाली प्रजाति है वो चुनौतियों से गुजर रही है. इस प्रजाति में पहले ही बाल श्रमिकों की संख्या को कम करना मुश्किल बना हुआ था लेकिन कोविड काल ने बाल मजदूरों की नई खेप को व्यवहारिक तौर पर स्वीकार योग्य बना दिया है. महानगरों के अनलॉक होने के साथ ही गांव से प्रवासी मजदूरों का आना एक बार फिर शुरू हो गया है. लेकिन इसबार उनके साथ सामान कम है और बच्चे ज्यादा. अगर आप गौर करें तो पैसेंजर जैसी ट्रेनों में मजदूरों के साथ कम 8 से 16 साल के बच्चे भरे हुए हैं. ऐसा लग रहा है कि परिवार में जितने बच्चे हैं उन सबको बंटोर कर काम के लिए ले जाया जा रहा है.

सर्व सिक्षा अभियान के अनुसार 14 साल तक के सभी बच्चों को मुफ्त सिक्षा मिलना चाहए उसके बाद बाल मजदूरी प्रोहिबिशन एंड रेगुलेशन एक्ट 1986 के अनुसार 14 से ऊपर के बच्चों को अगर काम पर लगाया जाता है तो ये धयान रखना होगा की उसका स्वस्थ्य तो ख़राब नहीं हो रही और उसके पढने लिखने , खेलने का भी इंतज़ाम सुनिश्चित करना होगा , कोरोना काल से पहले औद्योगिक क्षेत्रों में फैक्ट्री के बहार आपको तख्ती लटकी मिल जाती जहाँ यह लिखा होता था की इस फैक्ट्री में कोई बाल मजदूर काम नहीं करता , उम्र के प्रमाण के लिए दांत के डॉक्टर का सर्टिफिकेट माँगा जाता , बच्चों से काम करना जुर्म माना जाता था लेकिन आज के परिदृश्य में यह मजबूरी नजर आता है. माता—पिता जो पहले ही मजदूर थे वे अपनी आर्थिक स्थितियों को सम्हालने के लिए बच्चों की मदद ले रहे हैं. इस पर से बंद पड़े स्कूलों, वर्चुअल होती शिक्षा, बढ़ती महंगाई ने बिना कहे ही बाल मजदूरी को जरूरी बता दिया है. अनलॉक होने के बाद अब हालात कैसे बदल रहे हैं, इस बारे में मजदूरों की चर्चा मोबाइल वाणी पर आई गौर फरमाते हैं . 

अब नहीं मिल रहा पहले की तरह पैसा

दक्षिण भारत के तिरुपुर से सोनू कुमार बताते हैं कि वे बिहार से अपने ​साथियों के साथ दोबारा काम की तलाश में यहां पहुंचे हैं. पहले तो काम मिल नहीं रहा था और अब जब काम मिला है तो ठेकेदार और कंपनी वाले आधे दिन काम करवाकर छुट्टी दे देते हैं. इस बार पहले की तरह पैसे भी नहीं दिए जा रहे हैं. उत्तर भारत, बिहार और झारखंड से यहां करीब 20 हजार मजदूर वापिस काम पर लौटे हैं, इनमें कुछ बच्चे भी हैं. लेकिन दिक्कत यही है कि काम नहीं मिल रहा है. ऐसे में एक परिवार में ज्यादा पैसा पहुंच सके इसलिए वो अपने बच्चों से भी छोटा—मोटा काम करवा लेते हैं. यह स्थिति दिल्ली, मुंबई और अहमदाबाद—सूरत जैसे मुख्य व्यवसायिक नगरों की भी है. अव्वल तो मालिक फैक्ट्री—कारखाने खोलने से कतरा रहे हैं, क्योंकि बाजार में उतनी मांग नहीं है कि प्रोडेक्शन किया जाए. दूसरा कोरोना की तीसरी लहर कभी भी आ सकती है, यानि फिर लॉकडाउन लग सकता है. ऐसे में दोबारा पूंजी फंसाने से व्यापारी बच रहे हैं. फिर भी जो लोग काम जारी रखे हुए हैं वे किसी तरह घाटे की पूर्ति कर रहे हैं. इसके लिए जो सबसे आसान कदम है वो है अकुशल श्रमिकों की श्रेणी में बाल मजदूरों की भर्ती करना. 

इनमें से ज्यादातर वे हैं जो अपने परिवार के साथ आए हुए हैं. माता—पिता कुशल मजदूर की श्रेणी में और बच्चे अकुशल मजदूर की तरह एक ही फैक्ट्री में काम कर रहे हैं. यहां हो ये रहा है कि ठेकेदार केवल माता—पिता के आधार कार्ड की कापी जमा करवा रहे हैं, बच्चे उन्ही के नाम पर काम करते हैं. जिससे बाल मजदूरों का कोई रिकॉर्ड ही नहीं. दिल्ली के आसपास चॉकलेट, रबर, कपड़ा और प्लास्टिक के सामान बनाने वाली फैक्ट्रियों में बाल मजदूरों की संख्या ज्यादा है. चूंकि यहां कम जोखिम भरा काम होता है. यहां काम करने वाले बच्चों की अधिकतम उम्र 15 साल तक है. जबकि इससे ज्यादा उम्र के किशोर लोहे के कारखानों और कंस्ट्रेक्शन वाली साइट पर माल ढोने जैसे काम कर रहे हैं. इससे एक तरफ जहां मालिकों का खर्चा कम हो रहा है वहीं दूसरी ओर मजदूर परिवार का हर सदस्य कमा रहा है. कम ही सही पर घर में चार पैसे आ रहे हैं. 

दिल्ली में स्कूल मैनेजमेंट कमिटी के सदस्य मोहम्मद नबी मलिक कहते हैं कि कंपनियां कोरोना के बाद से अपने घाटे को पूरा करने पर ज्यादा ध्यान दे रही हैं. इसके लिए वे कम पैसों में मजदूरों से काम करवाना चाहते हैं. जो ट्रेंड मजदूर हैं वे अधिक पैसा मांग रहे हैं, ऐसे में बस बाल श्रमिक ही हैं जो कम पैसों में ज्यादा घंटों तक काम कर सकते हैं. इसलिए कंपनियों और फैक्ट्री में अकुशल श्रमिकों की जगह पर बाल मजदूरों को रखा जा रहा है. माता पिता भी इसके लिए राजी हैं, क्योंकि काम के बहाने उनका बच्चा उनकी नजरों के सामने है. पढ़ाई की चिंता इसलिए नहीं है क्योंकि स्कूल बंद हैं. कुछ एनजीओ बच्चों को पढ़ाने के लिए आगे आए भी हैं पर उनकी पहुंच हर कोने तक नहीं है. इसलिए जरूरी है कि सरकार ऐसे बच्चों की पढ़ाई के बारे में सोचे, क्योंकि अगर ऐसा जल्दी नहीं हुआ तो कुछ ही सालों में ये बच्चे पूरी तरह से श्रमिकों की नई खेप में शामिल हो जाएंगे.

शोषण तब भी था अब भी है

2011 की जनगणना के अनुसार एक राज्य से दूसरे राज्यों में पलायन करने वाले मजदूर परिवारों के साथ 5 से 9 साल की उम्र के कुल बच्चे और बच्चियों की संख्या 61.14 लाख है. यह कुल स्थानांतरित हुए मजदूर परिवारों के सदस्यों की संख्या का 9.57 प्रतिशत है. इसी तरह 10 से 14 साल की उम्र वाले ऐसे बच्चों की संख्या 34.20 लाख है जो कुल स्थानांतरित हुए मजदूर परिवारों के सदस्यों की संख्या का 5.36 प्रतिशत है. 15 से 20 साल की उम्र के बच्चों की संख्या 80.64 लाख है. अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन और यूनिसेफ की रिपोर्ट के अनुसार, बाल मजदूरी को रोकने की दिशा में प्रगति 20 साल में पहली बार रुकी है. 2000 से 2016 के बीच बाल श्रम में बच्चों की संख्या 9.4 करोड़ कम हुई थी. मगर 2016 के बाद से बाल मजदूरी में 84 लाख का इजाफा हुआ है और 2020 के अंत तक तो यह संख्या 1 करोड़ पार कर गई है. इनमें से 5 से 9 साल की उम्र के 25.33 लाख बच्चे काम कर रहे हैं,  जबकि 10 से 14 वर्ष की उम्र के 75.95 लाख बच्चे काम कर हैं. 43.53 लाख बच्चे मुख्य कामगार के रूप में, 19 लाख बच्चे तीन माह के कामगार के रूप में और 38.75 लाख बच्चे 3 से 6 माह औसतन काम करते हैं. यह सरकारी आंकडा है जो हकीकत में और भयावह हो जाता है. 

अब बात करें, काम करने वाली जगहों पर बच्चों के अधिकारों की. तो उसकी वास्तिविक स्थिति बदत्तर है. गाजियाबाद की एक चॉकलेट रैपर बनाने वाली कंपनी में बच्चों से खुलेआम काम करवाया जा रहा है. मोबाइलवाणी के संवाददाता रवि ने उन बच्चों से बात की. तो पता चला कि बीते दिनों रैपर बनाने वाले रोलिंग को उतारते समय दो बच्चों का चेन में हाथ फंस गया था. इस घटना में एक बच्चे की उंगली कट गई. लेकिन कंपनी मालिक ने उसे इलाज का पूरा पैसा तक नहीं दिया. पीड़ित बच्चे से कहा गया कि इस काम में आधी गलती उसकी थी इसलिए इलाज का आधा पैसा वही वहन करेगा. उसके साथ काम करने वाले बाकी बच्चों का कहना है कि इसमें कोई नई बात नहीं है. अगर यहां काम करते हुए किसी को भी चोट लग जाए तो उन्हें इलाज के नाम पर कुछ पैसे ही दिए जाते हैं बाकि खर्चा वे अपने वेतन से वहन करते हैं. गाजियाबाद की ही रबर बनाने वाली फैक्ट्री में काम कर रहे बाल मजदूरों ने बताया कि वे यहां 10 से 11 घंटे काम करते हैं और उन्हें इसके बदले 6 हज़ार रुपए मासिक वेतन दिया जाता है. इसके अलावा कोई अवकाश या ओवर टाइम नहीं. यही हाल यहां की चॉकलेट बनाने वाली फैक्ट्रियों में भी है. यहां पर 8 से 16 साल की उम्र वाले दर्जनों बच्चे खुलेआम काम कर रहे हैं. इन फैक्ट्रियों का संचालन मुख्य मार्ग से दूर गलियों में होता है, जहां किसी की नजर तक नहीं जाती. बच्चों का कहना है कि लॉकडाउन के कारण दो साल से घर बैठे हैं. माता—पिता को भी काम नहीं ​मिल रहा है इसलिए उनकी मदद करना मजबूरी है. स्कूल खुलते तो पढ़ने जाते पर अभी तो घर पर भी कोई काम नहीं है. यहां काम करके कुछ पैसे मिल जाते हैं तो घरवालों की मदद हो जाती है.

कुल मिलाकर कोरोना काल के पहले और अब तक कोई खास बदलाव नहीं हुए हैं. गिद्धौर के बानाडीह गांव से मोबाइलवाणी के रंजन कुमार ने 14 साल के एक बाल मजदूर से बात की. उसने बताया कि लॉकडाउन खुलने के बाद होटल के मालिक ने दिल्ली बुलाया है ताकि फिर से काम कर सकें. वहां जाने के लिए टिकिट भी भेजा है और हम जाएंगे भी. होटल में बर्तन साफ करना, किचिन के काम और सफाई करते हैं. 10 घंटे काम के बदले 6 हजार रुपए मिल जाते हैं, होटल में खाने को रहने को मिल जाता है बस काफी है. ये पैसा घर भेज देते हैं ताकि मम्मी को कोई दिक्कत ना हो. जब पढ़ाई के बारे में पूछा गया तो उसने बताया कि घर वाले बोलते हैं काम जरूरी है, ताकि खाना पकता रहे, पेट भरता रहे. पढ़ाई करके भी तो यही करना है.. जितने जल्दी काम शुरू करेंगे आगे चलकर उतने ज्यादा पैसे कमा पाएंगे. मध्यप्रदेश से कल्लू सिंह कहते हैं कि बहुत से मजदूर परिवार थे, जिन्होंने बच्चों को स्कूल भेजना शुरू कर दिया था पर लॉकडाउन के बाद से हालात बदल गए. प्रवासी मजदूर वापिस अपने काम पर लौटे लेकिन इस बार वे अपने बच्चों से काम करवाना चाहते हैं. जिन बच्चों को फैक्ट्रियों में काम नहीं मिल रहा है वे फुटकर विक्रेताओं के यहां काम पर लगे हैं. इन बच्चों से 10 घंटे से भी ज्यादा काम करवाया जा रहा है लेकिन बदले में 100 से 150 रुपए प्रति दिन ही मिलते हैं. वैसे तो बहुत से एनजीओ बच्चों के लिए काम कर रहे हैं पर लॉकडाउन के बाद जिस तरह से परिवारों की आर्थिक स्थितियां खराब हुईं हैं, ऐसे में घर के हर सदस्य का काम करना जरूरी होता दिख रहा है.

हवेली खरगपुर से लक्ष्मण कुमार सिंह ने बहुत से बाल मजदूरों से बात की. ये लोग गांव से शहर जाने की तैयारी कर रहे हैं. उनका कहना है कि खाना नहीं मिल रहा है. स्कूल खुले थे तो मिड डे मील में एक वक्त का भोजन मिल जाता था पर अब तो वो भी बंद है. ऐसे में काम पर जाना मजबूरी है.

अनाथ हुए बच्चों को दिक्कतें ज्यादा

कोविड में मारे गए लोगों के साथ हम सबकी संवेदनाएं हैं पर इन्हें और गहरा हो जाना चाहिए उन बच्चों के लिए जिन्होंने इस महामारी में अपने परिवार को खो दिया. हमनें खबरों में देखा है कि दिल्ली के ही एक घर में जब माँ-बाप ने कोविड से दम तोड़ा, तो 14 साल का बेटा अकेला घंटों तक वहीं बदहवास बैठा रहा. तेलंगाना के एक ग्रामीण इलाक़े में आठ महीने के बच्चे के सिर से कोरोना ने माँ-बाप का साया छीन लिया. दिल्ली के नज़दीक कोरोना की वजह से चार साल और डेढ़ साल के नन्हे भाई-बहन अनाथ हो गए. आस-पास कोई रिश्तेदार भी नहीं रहता था. ऐसे तमाम खबरें, लगभग हर राज्य से आईं हैं. अब तक तो सरकारी रिपोर्ट कह रही हैं उनके हिसाब से 3 लाख बच्चे अनाथ हुए हैं. हालांकि केन्द्र और राज्य सरकारें इन बच्चों की परवरिश का जिम्मा उठा रही हैं. बच्चों के खातों में मासिक राशि देने का वडा तो कर रही है लेकिन क्रियान्वित कब होगा पता नहीं. पर सवाल ये है कि 3 साल का बच्चा आखिर बैंक जाकर पैसे कैसे निकालेगा? चलिए कोई सरपरस्त जाकर ये काम कर भी ले तो बाकि और लालन पालन के लिए क्यों नहीं सरकार बच्चों के लिए अलग की रहने और पढने का भी इन्तेजाम कर रही ताकि वहां बच्चे सुरक्षित रह कर अपनी पढाई कर सके , जिंदगी संवार सकें . ऐसे बच्चों पर ठेकेदारों और मानव तस्करों के गिद्ध की निगाह टकी है कभी भी झपट्टा मारा जा सकता है .कई बच्चे इनके चंगुल में फंसे भी हैं.  

हाल ही में बिहार के हाजीपुर से मोबाइलवाणी के वॉलिंटियर ने जानकारी दी कि हाजीपुर जंक्शन से आरपीएफ व रेलवे चाइल्ड लाइन के संयुक्त अभियान के तहत  बाल श्रमिकों को मुक्त करवाया गया है. उनके साथ 5 मानव तस्कर भी हिरासत में लिए गए. शुरूआती पूछताछ में पता चला कि इन बच्चों को न्यू जलपाईगुड़ी एक्सप्रेस से राजस्थान ले जाया जा रहा था. जहां ठेकेदारों को बाल मजदूर मोटी कीमत पर बेच दिए जाते हैं. यह गिरोह पूरे देश में काम कर रहा है. तस्करों का कहना है कि लॉकडाउन के दौरान से ही बाल श्रमिकों की मांग में तेजी आई है, इसलिए वे लगातार गांव में घूम घूमकर ऐसे बच्चों की तलाश कर रहे हैं जिनके माता पिता उनसे काम करवाना चाहते हैं. बच्चों की किस्मत अच्छी थी इसलिए वे बच गए पर सभी के नसीब में ये रिहाई नहीं है. ह्यूमन राइट वॉच की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, कोविड की वजह से अनाथ हुए बच्चे मानव तस्करी और दूसरे तरह के शोषण जैसे यौन शोषण, जबरन भीख मंगवाने और दूसरे तरह के बाल श्रम के ख़तरे में हैं.

एनसीआरपी, कमिशन फ़ॉर प्रोटेक्शन ऑफ़ चाइल्ड राइट्स (सीपीसीआर) एक्ट, 2005 के सेक्शन 3 के तहत बनाई गई एक वैधानिक बॉडी है, जिसका काम देश में बाल अधिकारों की सुरक्षा करना और इससे जुड़े मसलों को देखना है. एनसीपीसीआर ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के मुख्य सचिवों को इस बारे में चिट्ठी लिखी है.​ जिसमें कहा गया है कि ऐसे बच्चों को  किशोर न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2015 के तहत देखभाल और सुरक्षा की जाएगी और ऐसे बच्चों को जेजे एक्ट 2015 के सेक्शन 31 के तहत ज़िले की चाइल्ड वेलफ़ेयर कमेटी के सामने पेश करना होगा, ताकि बच्चे की देखभाल के लिए ज़रूरी आदेश पास किए जा सकें. ह्यूमन राइट वॉच ने सरकारों को कोविड से अनाथ हुए बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कई सुझाव दिए हैं. लेकिन पुराने अनुभवों से सबक लेना जरूरी है. 

ह्यूमन राइट वाच रिपोर्ट में ये भी बताया गया है कि पश्चिम अफ्रीका में इबोला संकट के दौरान अनाथ हुए कई बच्चों को बीमारी से जुड़े स्टिग्मा या इस डर से कि बच्चा कहीं ख़ुद भी संक्रमित ना हो, उन्हें ऐसे ही अकेले छोड़ दिया गया था. साथ ही कई बड़े भाई बहनों को अपने छोटे भाई बहनों को सपोर्ट करने के लिए स्कूल छोड़ना पड़ा था. ऐसा कोरोना संकट में भी हो रहा है. यही कारण है कि बच्चे तस्करों और बाल मजदूरी करवाने वाले ठेकेदारों के चंगुल में फंस रहे हैं. 

बचपन बचाओ आन्दोलन के संस्थापक , नोबल पुरस्कार के विजेता कैलाश सत्यार्थी के अनुसार बच्चों की जिंदगी , आज़ादी, और उनके भविष्य को पूर्ण रूप से समझना होगा , ख़राब शिक्षा और स्वास्थय व्यवस्था मुख्य रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी को गरीबी में धकेलती है, कुछ देशों में 1% गरीबी की दर 0.7% बच्चों को बाल मजदूरी में धकेलती है. इस वेबसाइट के अनुसार भारत में दो तिहाई आबादी गरीबी रेखा से निचे जीवन व्यतीत करती है तो आप सोच सकते हैं की कितने बच्चे मुख्य रूप से बाल मजदूरी करते होंगे.  

सत्यार्थी के अनुसार  बाल बज्दूरी को खत्म किया जा सकता है, कई देशों को इस समाजिक बुराई को खत्म करने की जानकारी और समझ भी है और इसके लिए धन और ज्ञान भी है, लेकिन मैजूदा समय में राजनितिक इक्षा शक्ति की कमी वजह से बाल मजदूरी को कम करना या खत्म करना असंभव सा लगता है. राजनीतिज्ञों के लिए हर बच्चा खास होने से इस बड़ी समस्या से निजात पाया जा सकता है , वैसे भारत विश्व गरु खुद को मान चूका है तो गुंजाइश कम ही है की वह इन बुराई को खत्म करने की और कदम बढ़ाएगा , सामजिक स्तर पर कुछ प्रयास किये जा सकते हैं .