क्या तीसरी लहर से पहले खुल पाएंगे प्राथमिक और सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में लटके ताले?

ग्राम वाणी फीचर्स 

कोरोना की दूसरी लहर का सामना करने के बाद जिंदा बचा समाज खुद ही अपनी पीठ थपथपा रहा है. समाज और यूं कहें की व्यक्तिगत तौर पर सुकून इस बात का है कि इस बार बच गए लेकिन भीतर खौफ ये कि अगर अगली बारी हमारी हुई तो क्या होगा? क्योंकि जिस सरकार को वोट देकर तख्त पर बिठाया है वो तो राजनीति में व्यस्त है , जिन्दा बांचने की महुम में शामिल हुआ तो उसे ही साजिस का हिस्सा बनाकर मुकदमें में उलझा दिया , व्यवस्था की कमी गिनाने पर संपत्ति जब्त करने का भी फरमान सुना दिया , सोशल मीडिया पर लचर व्यवस्था के बारेमें लिखने पर पुलिसिया कार्रवाई और बाद न्यालय द्वारा जनता के इस कृत्य को सही ठहराने पर अपनी कमी को माने से इनकार और साड़ी कमी का ठीकड़ा पहले की सरकारों पर  फोरना अब आम है! देश में आला नेताओं के नए बंगले तैयार हो रहे हैं, देश के सभी जिलों में सत्तारूढ़ पार्टी नए आलिशान दफ्तर बनाएं जा रहें, एक कोने में मंदिर तो दूसरे में मस्जिदें और गिजघर की नीव रही जारही है , मंदिर मस्जिद आलिशान बने इसके लिए पुरजोर तरीके से चंदा वसूला जारहा है और इसे ऐतिहासिक इमारत बनाने का दम भर रही सरकार और जनता के बीच खूब उत्साह है… बस गर उत्साह नहीं है तो शैक्षणिक संसथान और अस्पातल बनाने की , कोरोना की दूसरी लहर में दिल्ली जैसे शहर में हर बड़े अस्पताल में २ सप्ताह के अन्दर ऑक्सीजन प्लांट बनाने वाली केंद्र और राज्य सरकार अब कुछ और करने में मशगूल है , सरकार को अब भी यकीं है की पिछली बार की तरह इस बार भी जनता अपनों को खोने का ग़म भूल कर 5 किलो मुफ्त अनाज चाँद  महीनों के लिए पाकर अस्पताल ऑक्सीजन की मांग करना छोड़ देगी , माध्यम वर्गों के लिए ड्राइव थ्रू वैक्सीनेशन केम्प लगवाकर इन्हें फिर एक बार उसके खास होने का एहसास कराने पर सरकार जुटी है , क्यों की यही मध्यम वर्गीय समाज जब कोरोना की दूसरी लहर में अपने परिजनों के लिए अस्पताल में बेड न मिलने पर खफा हो गए, कारों में बैठकर ऑक्सीजन लंगर में ऑक्सीजन लगवाया , पार्किंग में ऑक्सीजन लगाकर बैठे समाज को दोबारे मुफ्त या सुविधा रहित वैक्सीन के माध्यम से उनकी पीड़ा को भुलाये जाने की कवायद जारी है . अब तो अस्पातल बनाने की मांग , डॉक्टरों, नर्सों की उपलब्धता और नियुक्ति की मांग भी ढीली परने लगी है .

शहरों में तो लोगों के पास भागने के लिए एक से दूसरा अस्पताल था लेकिन गांव में तो वो विकल्प भी नहीं. इकलौते स्वास्थ्य केन्द्र और उप स्वास्थ्य केन्द्र हैं, थोड़ी और परिश्रम कर समुदायिक स्वास्थ्य केंद्र, आर्थिक स्थिति इजाजत दे और वाहन का खर्च उठा सकें तो जिला और दुसरे शहर के अस्पतालों का दौरा संभव था लेकिन यहाँ भी डॉक्टर, बेड ,ऑक्सीजन मिल जाए इसकी गारंटी नहीं. अमूमन देखा यह गया की ग्रामीण अस्पतालों में  ना तो डॉक्टर हैं ना दवाएं. डॉक्टर और दवाओं की अनुपलब्धता  कोरोना की दूसरी लहर ने सबसे ज्यादा गांव ही खाली किए हैं. नतीजा आपने बनारस , गाजीपुर, कानपूर, बक्सर के गंगा घाट का नज़ारा तो आपने देखा ही है .  2019 में सरकार द्वारा जारी की गई नेशनल हेल्थ प्रोफ़ाइल रिपोर्ट के अनुसार जहां शहरी इलाक़ों में प्रत्येक दस लाख की आबादी पर सरकारी अस्पताल में 1,190 बेड की सुविधा है, वहीं ग्रामीण इलाक़ों में प्रत्येक दस लाख की आबादी पर सरकारी अस्पताल में 318 बेड की सुविधा है यानी यह अंतर तीन गुना क्यों है सरकार के पास कोई खास जवाब जरूर होगा, चंकाने वाली बात यह की अधिकार ग्रामीण इलाके के अधिकांश प्रखंड प्राथमिक स्वस्थ्य केंद्र और उपस्वास्थ्य केन्द्रों पर ताले लगे हैं. 

बंद हैं सेहत के दरवाजे

रिपोर्ट के अनुसार देश में पंचायत में औसतन चार गांव हैं और हर गांव की आबादी तकरीबन 5729 है. प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में तकरीबन 4-6 बेड होते हैं और एक मेडिकल ऑफिसर जबकि 14 पैरामेडिकल स्टाफ. वहीं समुदायिक स्वास्थ्य केंद्र की बात करें तो यहां 30 बेड होते हैं, जहां आईसीयू की सुविधा उपलब्ध होती है, इसके दायरे में चार प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र आते हैं. हर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के अंतर्गत 128 गांव आते हैं, जिसकी औसत आबादी 170000 होती है. कोरोना के इलाजके लिए पीएचसी को सबसे पहली मदद मुहैया कराने का केंद्र बनाया गया ,  लेकिन इनपर बहुत ही अधिक आबादी का दबाव है. ऐसे ही स्वास्थ्य केन्द्र के बारे में मोबाइलवाणी पर एक श्रोता ने बताया. छिंदवाड़ा जिला से योगेश गौतम कहते हैं कि सरकार ने अमरवाड़ा के सिविल अस्पताल में कोविड का इलाज करवाने वालों के लिए 100 बिस्तरों का अलग वार्ड तैयार करवाया. लेकिन यहां ना तो नर्सिंग स्टाफ की नियुक्ति हुई ना ही डॉक्टर अपॉइंट हुए. जो भी कोविड मरीज यहां पहुंचे उन्हें ठीक से इलाज ही नहीं मिल पाया. ज्यादातर मरीजों को होम आइसोलेट करने की सलाह दी गई. इनमें ऐसे मरीज भी थे जिन्हें ऑक्सीजन की बहुत ज्यादा जरूरत थी, लेकिन अस्पताल में उनकी देखरेख कौन करता इसलिए मरीजों को भर्ती ही नहीं किया गया. स्थानीय विधायक कमलेश शाह ने पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ से इस बारे में शिकायत की. तो यह पूरी तरह से राजीनतिक मसला बन गया. कुछ दिन आरोप प्रत्यारोप चले और फिर मामला शांत हो गया लेकिन अस्पताल में मरीजों का इलाज करने वाले डॉक्टर तब भी नहीं पहुंचे.

अगर आप सोच रहे हैं कि सरकार के इन स्वास्थ्य केन्द्रों पर जानबूझकर खर्च नहीं कर रही तो ये बिल्कुल सही है. केंद्र सरकार देश में स्वास्थ्य सेक्टर पर जीडीपी का सिर्फ 0.3 फीसदी ही निवेश किया जाता है. वहीं राज्य के बजट में भी जीडीपी का सिर्फ 4 फीसदी ही स्वास्थ्य सेक्टर पर खर्च किया जाता है , केंद्र सरकार मानती है की स्वास्थय राज्यों का विषय है इसलिए वो ज्यादा पैसे क्यों खर्च करे , दूसरी तरफ राज्य सरकारों को आप कहते हुए सुन जायेंगे की उनके पास धन की किल्लत है इसलिए स्वास्थय व्यवस्थाएं पूरी नहीं हो पारही. तीसरा नजरिया यह भी है की अगर सरकारी स्वस्थ्य केंद्र में डॉक्टर , नर्सेज , दबा और बेड के साथ अच्छी सेवाएँ मिलने लगेंगे तो स्थानीय और राज्य स्तरीय नीजी अस्पतालों का क्या होगा , यहाँ भी तो नेता जी के सगे सम्बन्धियों का पैसा लगा है और उन्हें भी मुनाफा कमाने का माकूल मौका प्रदान करना है. सरकारी खर्चे की बात करें तो  हमसे बेहतर स्थिति पड़ोसी राज्य पाकिस्तान और बांग्लादेश की है. चीन में स्वास्थ्य सेक्टर पर जीडीपी का 5 फीसदी, यूके में 10 फीसदी, यूएस में 17 फीसदी खर्च किया जाता है. इकोनॉमिक सर्वे की रिपोर्ट के अनुसार हेल्थ सेक्टर में निवेश करने के मामले में 189 देशों में भारत 179 वें अस्थान पर है. यानि भारत हैती और सूडान जैसे देशों की श्रेणी में आता है. भारत में 10189 आबादी पर सिर्फ एक सरकारी डॉक्टर है, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक के अनुसार 1000 प्रति व्यक्ति  पर एक डॉक्टर होना चाहिए. यूएस की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में छह लाख डॉक्टर और 20 लाख नर्स की जरूरत है.

कोविडकाल में गांव वालों पर क्या गुजरी है ये तो बस वे ही जानते हैं. समस्तीपुर जिला के गांवो में लोगों को इलाज कर रहे डॉक्टर प्रशांत बताते हैं कि इलाज में सबसे ज्यादा दिक्कत इस बात की है कि लोगों को दवाएं नहीं मिल रहीं. ऐसा इसलिए भी है कि कोविड के समय में गांव की दवा दुकानों से दवाएं ही गायब हो गईं और बाद में वही दवाएं ज्यादा दामों पर ब्लैक में खरीदनी पडीं. ऐसे में बहुत से गरीब परिवार हैं, जिनका गांव में इलाज किया लेकिन उन्हें दवाएं ही नहीं मिल रहीं. बिहार, झारखंड, मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश के अलावा दक्षिण भारतीय राज्यों के गांव भी स्वास्थ्य व्यवस्था की गड़बड़ी का खमियाजा भुगत रहे हैं. 

झोलाझाप पर यकीन लेकिन सरकार पर नहीं

आईएमए बिहार के राज्य सचिव डॉ सुनील कुमार ने एक इंटरव्यू में कहा है कि बिहार में सरकारी चिकित्सकों और आबादी का यह अनुपात पूरा होने में 50 वर्ष लगेगा. जबकि देश के बाकी राज्यों को भी लगभग इतने ही समय की जरूरत है. बिहार में बेसिक डॉक्टर के करीब 13.5 स्वीकृत पद हैं जबकि 6 या 6.5 हजार ही हैं जो प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और अतिरिक्त प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर हैं. वहीं, मेडिकल कॉलेजों में 4 से 4.5 हजार में महज 1800 चिकित्सक ही हैं. ऐसे में हो ये रहा है कि गांव के लोग झोलाझाप डॉक्टरों के पास भाग रहे हैं. ऐसा नहीं है कि बिहार जैसा राज्य ही सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर ताले लटका रहा है. बल्कि महानगरों के आसपास भी हालात बुरे ही हैं. 

दिल्ली से सटे बहादुरगढ़ से सतरोहन लाल कश्यप कहते हैं कि सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में डॉक्टर नहीं है, वहां मरीजों को ठीक से इलाज नहीं मिल रहा है. जो लोग गरीब हैं वो शहरों में जाकर इलाज नहीं करवा पा रहे हैं. ऐसे में उनके पास एक ही चारा है… झोलाझाप डॉक्टर. गांव के गरीब परिवारों का इलाज तो इन्हीं के भरोसे है. कोरोना के दौरान गांव में जैसे हालात बन रहे हैं, उसके दबाव में कोई इन झोलाझाप डॉक्टरों के खिलाफ कार्रवाई भी नहीं कर सकता. गाजीपुर से नोमान बताते हैं कि गांव में झोलाझाप डॉक्टरों के पास जाने का एक कारण ये भी है कि शहर के प्राइवेट डॉक्टर गांव वालों से इलाज के बदले मोटी फीस ले रहे हैं. जो लोग शहर जाकर इलाज करवा रहे हैं वो बताते डॉक्टर इलाज के बदले ज्यादा फीस तो लेते ही हैं, साथ में शहर जाने का खर्चा और वहां ठहरना—खाने में भी बहुत पैसा बर्बाद हो रहा है. अगर गांवों के सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र इस लायक होते कि ग्रामीण वहां इलाज करवा सकें तो उनका भला हो जाता.

कोविड काल में गांव का स्वास्थ्य वाकई झोलाझाप डॉक्टरों के भरोसे ही रहा. कई जगहों से खबरें ये भी आईं कि ग्रामीण इलाज के लिए अस्पाताल नहीं पहुंच रहे हैं पर इन खबरों के पीछे ये नहीं बताया गया कि अस्पताल गांवों से कोसो दूर शहरों से सटे हैं या प्रखंड मुख्यालय , जिला मुख्यालय में हैं, जहां इलाज करवाना गरीबों के बस से बाहर है. इसलिए उन्हें तो रंग बिरंगी गोलियां देने वाले डॉक्टरों का ही सहारा है. यहां दूसरी दिक्कत ये है कि सरकार की लुभावनी योजनाओं की पोल खुल गई है. रांची से एक श्रोता ने जानकारी दी कि प्रदेश में कोविड का इलाज आयुष्मान भारत योजना के तहत नहीं हो रहा है. जबकि केन्द्र सरकार ने आयुष्मान भारत कार्ड धारकों के लिए कोविड का इलाज सुनिश्चित किया है. लेकिन इस आदेश को ना तो निजी अस्पतालों में स्वीकार किया गया ना ही सरकारी अस्पतालों में. चूंकि कार्ड धारकों में अधिकांश गरीब परिवार के लोग हैं और इनमें से भी ज्यादातर ग्रामीण इलाकों से आते हैं. ऐसे में उनके पास झोलाझाप डॉक्टरों के भरोसे रहने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं है.

बचाने वालों को भी बचाना मुश्किल

अगर ये सोच रहें हैं कि गांव की आम जनता ही सरकारी अव्यवस्था की मार झेल रही है तो ऐसा नहीं है. समस्तीपुर से संजय कुमार बब्लू बताते हैं कि मोर दीबा में कोविड मरीजों के लिए सेंटर बनाया गया. यहां बिस्तर सजाए गए, पंखे लगा दिए गए ताकि मरीजों को इलाज मिल जाए लेकिन कोविड सेंटर में नर्सिंग स्टाफ तक नहीं रखा गया. ऐसे में वहां आने वालों का इलाज कौन करता. जब क्षेत्र की ही आशा कार्यकर्ता संगीता संगम कोविड पॉजीटिव हुईं तो उन्हें भी इस सेंटर में भर्ती नहीं किया गया. संगीता बताती हैं कि सेंटर में ताला लगाया हुआ था, जब उनका बेटा चाबी मांगने पहुंचा तो उसे वहां से भगा दिया. ये स्थिति आशा कार्यकर्ताओं की हुई जिन्हें प्रधान और मुख्य मंत्री शुरू से कोरोना योद्धा कहते रहे , इन्ही आशाओं के सहारा ग्रामीन भारत में स्वस्थ्य सेवाओं की बाग़ डोर हो या सरकारी सर्वे सब इन्हीं के सहारे चलता है, सोचिए ऐसे में आम गरीब कोविड मरीजों का क्या हुआ होगा? समस्तीपुर के ही बंगरा गाँव के बलदेव पासवान को 28 अप्रैल को कोरोना पोजिटिव रिपोर्ट मिला , डॉक्टर उन्हें घर पर रह का इलाज कराने की सलाह दी , अगले दिन ही 29 अप्रैल को बलदेव पासवान की मृत्यु उनके घर पर होजाती है, जिले के कण्ट्रोल रूम को बार बार बार सूचित करने के बाद दिन के 11 मृत शरीर को कोरोना प्रोटोकॉल के तहत अम्बुलेंसे और पी पी किट शाम के 5 बजे मिलता है और उसपर मृत शारीर को पैक करने के लिए सरकार की तरफ से न कोई व्यक्ति गया न कोई खबर ली , खुद मृतक की बेटी और पत्नी किसी प्रकार पैक कर अंतिम संस्कार के लिए समस्तीपुर मोक्षधाम ले जाया गया.  सरकार ने कोविड सेंटर के नाम पर फंड भी जारी किया लेकिन फंड कहां है, डॉक्टर कहां हैं किसी को खबर हो तो बताएं , लेकिन अगर कोई इस बारे में पूछ ले तो मंत्री जी उसे साजिस करता और संदेह की नज़र से देखने लगते हैं. 

बिहार की स्वास्थ्य व्यवस्था में चिकित्सकों की तंग संख्या मरीजों को बुरी तरह प्रभावित किए है. इस बीच स्वास्थ्य ​कर्मियों के अलावा चिकित्सकों की जान भी दांव पर लगी है. इंडियन मेडिकल एसोसिएशन, बिहार शाखा के मुताबिक कोरोना की पहली लहर के दौरान करीब 39 चिकित्सक और दूसरी लहर के दौरान 90 वरिष्ठ चिकित्सकों ने कोरोना से दम तोड़ा है. इसके अलावा नर्सिंग स्टॉफ में जान गवांने वालों की संख्या अलग है. हाल ही में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने देश भर के ग्रामीण क्षेत्रों में आशा कार्यकर्ताओं की ‘खराब कामकाजी परिस्थितियों’ के आरोपों पर केंद्र और राज्यों को नोटिस जारी किया है. आयोग ने बयान में कहा कि आशा (मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता) कार्यकर्ताओं को देश भर के ग्रामीण क्षेत्रों में कोविड-19 महामारी के दौरान फ्रंटलाइन पर काम करने के बावजूद उनका बकाया और सुरक्षा उपकरण नहीं मिल रहा है.’ इतना ही नहीं इन कर्मचारियों के हिस्से में मृत्यु की स्थिति में मुआवजा, दीर्घकालिक स्वास्थ्य बीमा/सुरक्षा, सामाजिक सुरक्षा/संरक्षण सुविधाएं तक नहीं हैं. 

बिहार के चंपारण से राजू सिंह मोबाइलवाणी को बताया कि कोविड जागरूकता के लिए काम कर रहीं क्षेत्र की करीब 6 एएनएम कार्यकर्ता और 3 लैब टेक्निीशियन कोविड पॉजीटिव हो चुके हैं. इसके अलावा आसपास के गांव से आशा कार्यकर्ताओं को भी कोरोना होने की खबर मिल रही है. लेकिन इन्हें इलाज नहीं मिल रहा. बथनाहा सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र, जो क्षेत्र में इकलौता है और यहां आसपास के आधा दर्जन गांवों से लोग इलाज के लिए आते हैं..वो बंद है. कोविड से पहले यहां कुछ मेडिकल स्टाफ था पर बीते दो साल से सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र में ताला लगा हुआ है. ऐसे में एएनएम, आशा और लैब टेक्निीशियन अपने इलाज के लिए भटक रहे हैं.

ग्रामीण इलाकों में घर—घर जाकर काम करने वाले स्वास्थ्य कर्मियों के पास ना तो मास्क हैं, ना पीपीई किट. यहां तक की वो अपने घर से सैनेटाइजर लेकर चल रहीं हैं. इतने के बाद भी अगर कोई संक्रमित हो जाए तो यह उसकी अपनी जवाबदेही होगी क्योंकि सरकार ने सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों को तो बंद कर रखा है, और अगर किसी प्रकार शहर इलाज के चली जाएँ तो उन्हें अस्पताल में बीएड नहीं मिलता, इनका इलाज भी अन्य मरीजों की तरह ही होता है. हाल ही मध्य प्रदेश के डॉक्टर्स ने हड़ताल कर अपना अपने प्रेजियन अगर कोरोना की चपेट में आजायें तो उन्हें प्राथमिकता के आधार पर आल्ज की मांग कर रहे थे. 

मरने के बाद कोई नहीं पूछता

ताजपुर प्रखंड के बंगरा गांव निवासी हरेंद्र पासवान कहते कि पडोस के घर में एक व्यक्ति की कोरोना से मौत हो गई. अब कोविड का प्रोटोकॉल था इसलिए हम लोग दाह संस्कार कर नहीं सकते थे. दिनभर एंबुलेंस को फोन करते रहे पर कोई नहीं आया. पुलिस और पंचायत को खबर की लेकिन मदद नहीं मिली. ऐसी स्थिति बहुत से गांवों में बनी हुई है. लोगों को एंबुलेंस तक नहीं मिल रही कि वे अपने परिजनों के शव को श्मशान तक पहुंचा सकें. इस पर प्रशासन की उदासीनता ये कि संक्रमितों के घरों पर सैनेटाइजेशन तक नहीं हुआ, जिससे संक्रमण फैलता ही गया.

मुंगेर के धरहरा प्रखंड से एक श्रोता ने बताया कि गांव की सुनीता देवी का कोविड के कारण निधन हो गया था. मृतक सुनीता को गांव के सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र में इलाज नहीं मिला इसलिए वो घर ही इआल्ज करा रही थी .लेकिन जब उनकी मौत हुई तो प्रशासन का कोई व्यक्ति, अस्पाताल की एंबुलेंस और नगर पालिका का कोई भी व्यक्ति नहीं पहुंचा. सुनीता का शव दिनभर उनके घर में पड़ा रहा. बहुत बार फोन करने के बाद एंबुलेंस आई और सुनीता का दाहसंस्कार हुआ. लेकिन उनके घर के आसपास और खुद मृतक के घर में सैनेटाइजेशन नहीं किया गया. ये बस एक उदाहरण है. असल में गांवों के घरों में होने वाली ज्यादातर मौतों में यही दिक्कत सामने आई. लोगों को शव उठाने वाले नहीं मिले, शव हट गया तो सैनेटाइजेशन नहीं हुआ. कुल मिलाकर मरने के बाद भी लोग अपनी खुद की जवाबदेही पर ही हैं.

जब सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में ताले लग गए, उप स्वास्थ्य केन्द्रों में इलाज नहीं मिल रहा, शहर जाने के रास्ते लॉकडाउन के कारण बंद हो गए, किसी प्रकार निजी वहां का इन्तेजाम कर भी लें तो मनमाने किराये की वजह से हिम्मत नहीं कर रहे शहर लेजाने की ,तो गांव के लोगों के पास भगवान की शरण लेने के सिवा कोई रास्ता नहीं बचा. ऐसे हालातों में अफवाहों का बाजार भी गरम है. कई जगहों से खबर आ रही है कि लोग कोरोना को भगाने के लिए मंदिरों में पूजा के लिए पहुंच रहे हैं. विशाल यज्ञ हो रहे हैं. गाजीपुर जनपद जखनियां क्षेत्र के जलालाबाद बुढ़वा महादेव मन्दिर में तो सैंकडों के संख्या में महिलाएं जमा हो गईं. कलश यात्रा निकाली गई, भगवान से प्रार्थना की गई कि कोरोना को भगा दें, ताकि वे चैन की सांस ले सकें. मीडिया में इस तरह की खबरों को अफवाह के तौर पर पेश किया जा रहा है. इन घटनाओं को कोविड प्रोटोकॉल तोडने का परिणाम बताया जा रहा है. ऐसा करने वालों के खिलाफ कार्रवाई भी हो रही है. लेकिन सवाल ये है कि आखिर क्यों लोग अस्पतालों की जगह मंदिर—मस्जिद भाग रहे हैं? आखिर क्यों डॉक्टरों से ज्यादा दुआ और हवन पर भरोसा किया जा रहा है. इन ग्रामीणों पर कार्रवाई करने से पहले ये जांचना जरूरी है कि क्या उन्हें सही इलाज मिल रहा है? गांव के लोग कोविड पॉजीटिव होने के बाद किस के भरोसे हैं? शहर में रहने वालों के पास तो फिर भी विकल्प हें अस्पतालों को  ढूँढने की  पर गांव… जो स्वास्थ्य केन्द्र, उपस्वास्थ्य केन्द्रों के भरोसे हैं वह क्या करे? 

बेशक भारत कोरोना की दूसरी लहर से उभर रहा है. राजनेताओं की बयानों पर गौर करें तो उन्हों ने कोरोना की जंग जीत ली है. लॉकडाउन खोले जा रहे हैं…घर में बंद और मास्क पहन पहन कर उकताए लोग मास्क उतार फेंकने को लालयित है खुलें में घूमना और सांस लेना चाहता हैं लेकिन क्या उनके लिए यह निकट भविष्य में संभव है? .. लेकिन हमें जो पिछले सबक मिले हैं उन्हें याद रखना बहुत जरूरी है. दूसरी लहर पहली से ज्यादा भयावह थी, जाहिर है कि अगर तीसरी लहर की थ्योरी सही है तो कोरोना विकराल रूप दिखाने वाला है. टीकाकरण की धीमी रफ़्तार और वैक्सीन के प्रति अफवाह , वैक्सीन उपलब्ध न होना जहाँ वैक्सीन उत्सव मनाने का आह्वान होचुका है वो देश कोरोना महामारी की तीसरी लहर से कैसे  निपटेगा राजनेताओं के पास तो शायद जवाव हो लेकिन जनता दूसरी लहर के भयानक खौफ को देख कर अभी भी सहमी है, कुछ भी हो राजनितिक पार्टी जनता की चिंता किये बगैर अब फिर से चुनाव की तैयारी में जुट गयी है .