क्या जी डी पी केवल औद्योगिक विकास से ही नापा जायेगा, मानव विकास सूचकांक का क्या?

ग्रामवाणी फीचर्स
अभी जब हाल ही में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश की जनता को ये बताते हुए खुशी जताई कि भारत की जीडीपी में 20.1 फीसदी की वृद्धि हो गई है, तो विश्व बैंक के पूर्व मुख्य अर्थशास्त्री कौशिक बसु और उनके जैसे कई और अर्थशास्त्रियों ने इस बात पर अचरज जताया. दरअसल अप्रैल-जून 2021 में 20 फीसदी की वृद्धि साल 2019 की तुलना में 9.2 फीसदी की गिरावट है. यदि साल 2018 के आंकड़ों से तुलना करेंगे तो यह और कम होगा. यानि हम आगे नहीं पीछे जा रहे हैं. अगर आप जीडीपी जैसे बड़े शब्दों से वास्ता नहीं रखते हैं तो इसे ऐसे समझिए कि लॉकडाउन के बाद से अब तक ना तो उत्पादों के निर्माण में बढोत्तरी हो रही है और sना ही मांग में इजाफा. यानि जनता के जेब खली है तो वह उद्योग निर्मित सामान को खरीदेंगे कैसे , जनता के पास तो खाने तक के पैसे नहीं हैं तभी 80 करोड़ जनता जनवितरण प्रणाली की दुकान से राशन पर निर्भर है. जब बाजार में मांग नहीं होगी तो उत्पादों के निर्माण की जरूरत किसे है? अब उत्पादन और मांग में आई कमी को एक मजदूर साथी से हुई बात चीत से भी समझा जा सकता है.
विगत सप्ताह आई एम् टी मानेसर में कुछ श्रमिक साथी जो मारुती , हौंडा , हीरो में काम करते हैं बताते हैं की पहले सप्ताह में 5-6 दिन काम करते थे , उनके फैक्ट्री में रोजाना 600-700 मोटरसाईकल तैयार होता था जो अब सप्ताह में केवल दो दिन काम के लिए बुलाये जाते हैं और 200-250 ही मोटरसाईकल तैयार होता है , हजारों मजदूरों की छुट्टी कर दी गयी है. हम मकान के किराये और खाने के लिए दूसरों के सहयोग की वाट जोह रहे हैं .
मोबाइलवाणी ने गांव गांव और कस्बों के साथ शहरी निम्न आय वर्ग के बीच पहुंचकर आम दुकानदार, ठेला लगाने वाले, फुटकर बिक्रेताओं से बात की और जानने की कोशिश की कि लॉकडाउन खुल जाने के बाद भी उनके व्यापार में इजाफा क्यों नहीं हो रहा है? जो वजहें निकलकर आईं हैं उन्हें भारत के मिडिल क्लास जनता जो द्ड्रोविंग रूम में मीडिया के द्वारा सरकार की वखान और जी. डी. पी. विकास की अमृत घोल आजादी के अमृत महोत्सव की घोल के साथ पिलाते हैं उन्हें आम कामगार की परेशानियों से भी अवगत कराएं.
बदल गया है नजरिया
जमुई जिले के गिद्धौर प्रखंड के श्याम रावत बीते 16 साल से पुणे में चाय का ठेला लगा रहे हैं. इस चाय के ठेले से जो कमाई होती है उससे घर के 8 सदस्यों का भरण पोषण होता है. वैसे तो श्याम के पास महज एक ठेला है पर उसे भी फुटपाथ किनारे लगाने के लिए उन्हें किराया देना पड़ता है. खैर, श्याम बताते हैं कि कोविड के दौरान तो काम पूरी तरह बंद हो गया, कुछ दिन लोगों ने मदद की और खाना मिलता रहा. जैसे ही लॉकडाउन खुला मैंने फिर से चाय का ठेला शुरू कर दिया पर इस बार सबकुछ बहुत अलग है. पुणे में अभी भी पहले की तरह ऑफिस नहीं खुल रहे हैं, जो खुल रहे हैं वहां के कर्मचारी अब ठेलों पर चाय नहीं पीते. जिन लोगों को पहले ठेले के गिलास से कोई दिक्कत नहीं थी अब वो इन लोगों को उन्ही गिलासों से कोरोना फैलने का डर सता रहा है. श्याम कहते हैं कि हम पहले भी ठेला साफ रखते थे, अब तो और सफाई रखते हैं, सैनेटाइजर भी इस्तेमाल करते हैं पर फिर भी पहले जैसे ग्राहक अब नहीं हैं. 16 साल में ऐसा पहली बार है कि मैं अपने काम से इतनी कमाई नहीं कर पा रहा कि बच्चों को पेटभर खाना खिला सकूं.
श्याम की बातों से साफ है कि अब पहले की तरह छोटे दुकानदारों की कमाई नहीं हो पा रही है. इसकी वजह है कि जो मिडिल क्लास अपने आप को पहले भी निम्न आय वर्ग के लोगों से अलग थलग रखते थे अब उनके बीच की दूरी बढती जारही है , उनका व्यव्हार भी अब थोडा सामंती होता जारहा है. जहां पहले लोग फुटपाथ पर लगे ठेलों सेे चाय—समोसे खा लिया करते थे, वहां से अब गुजरना भी पसंद कर रहे हैं. उच्च मध्यमवर्गीय व्यापारियों ने खुद को ई—कॉमर्स सेवाओं से जोड़ लिया है, ताकि लोगों का विश्वास बना रहे. पर छोटे व्यापारी जो फुटपाथ किनारे दुकानें लगा रहे थे या फेरी लगाकर सामान बेच रहे थे… चुनौतियां उनके सामने हैं. ऐसा नहीं है कि ये दिक्कत केवल महानगरों में है. बल्कि छोटे शहरों में भी हालात कुछ ऐसे ही हैं.
जमुई जिले के झाझा बस स्टैंड पर चाय की दुकान करने वाले धर्मेंद्र मोबाइलवाणी पर बताते हैं कि लॉकडाउन खत्म हो गया है, बसें दोबारा चल रही हैं, लोग यात्रा भी कर रहे हैं लेकिन वे पहले की तरह बाहर का खाना पसंद नहीं करते. लोगों को ठेलों से चाय पीने में दिक्कत हो रही है. कभी पूछों तो सब कोरोना फैलने की बात कहते हैं. धर्मेंद्र कहते हैं कि ऐसा लगाता है कि कोरोना खत्म होने के बाद भी हम जैसे कामगारों के लिए छूत की बीमारी बन गई है. धर्मेंद्र ने आगे बताया कि मैंने और मेरे परिवार के सभी लोगों ने कोरोना का टीका लगवा लिया है, फिर भी दुकान पर ग्राहक नहीं हैं. कमाई कम है इसलिए बच्चों की पढ़ाई पर असर दिख रहा है. अब तो ऑनलाइन क्लास चलती हैं, मेरे पास इतने पैसे ही नहीं कि मोबाइल में इंटरनेट का डाटा डलवा सकूं. ये डिजिटल इंडिया का करवा सच है , फिर भी सकरार संयुक्त राष्ट्र में जाकर ऑनलाइन ट्रांजेक्शन का बखान करती है.
मांग कम, उत्पादन कम तो मजदूर कम
कोविड के दुष्प्रभावों में से एक ये भी है कि बाजार में अब पहले की तरह उपभोक्ताओं की मांग नहीं दिख रही है. इसकी मुख्य वजहें हैं. पहला महंगाई और दूसरा, काम करने वाले होठों को अब काम नहीं हैं , मजदूर साथी से बात चीत से समझा जा सकता है , बीते दो सालों में आमदनी कम तो खर्चा भी कम होगया, केवल बहूत जरूरी काम ही मजबूरी बस किया जारह या नए सामान खरीदे जारहे हैं . दिल्ली और उसके आसपास के इलाकों में चल रहे कारखानों में काम करने वाले मजदूरों की हालत भी कुछ ठीक नहीं है. मजदूरों के हक के लिए काम करने वाले समाजसेवी नरेश कुमार सेन कहते हैं कि कारखानों में मजदूरों की संख्या बहुत कम कर दी गई है. जहां पहले 100 लोग काम करते थे वहां अब 10-15 लोगों को ही काम दिया जा रहा है. फैक्ट्री मालिकों का कहना है कि पहले की तरह काम की डिमांड नहीं है. जितने आर्डर पहले मिलते थे उसकी अपेक्षा वो आधे से भी कम हो गए हैं, ऐसे में अगर हम मजदूरों को रख भी लें तो उसने काम क्या करवाएंगे. दूसरी दिक्कत ये है कि ज्यादा मजदूर होंगे तो संक्रमण फैलने का खतरा भी ज्यादा होगा. इसलिए काम करने वालों की संख्या कम ही रखी जा रही है. ऐसे में दिक्कत उन 85 लोगों की है जो काम करने वाले 15 लोगों से अलग कर दिए गए हैं. ये हाल किसी एक फैक्ट्री का नहीं है बल्कि ऐसे सैंकडों फैक्ट्रियां हैं, जो अब खाली हैं.
जमुई के किराना व्यापारी संतोष केसरी कहते हैं कोरोना काल में दुकानें बंद थी तो जो जमा पूंजी रखी थी उसी से घर की जरूरतें पूरी की. अब लॉकडाउन के बाद दुकाने खोल तो ली हैं पर हर सामान में इतनी महंगाई है कि खुद व्यापारी उसे नहीं खरीद पा रहे हैं. तेल, दालें, अनाज, ड्राय फ्रूट हर चीज महंगी है. बहुत सारे पैकेट बंद सामान भी महंगे हो गए हैं. इसलिए ग्राहक भी अपनी जरूरतों में कटौती करने लगे हैं. जो किराना 1 महिने चलता था वो अब किसी तरह 1 महीना 15 दिन चलाया जाता है. कम तेल इस्तेमाल होता है और अनाज भी. लोग डिमांड कम करने लगे हैं ताकि खर्च ना बढे. जब डिमांड ही नहीं होगी तो हम दुकान में सामान क्यों लाएं? इससे सबको नुकसान हो रहा है, खासकर आम आदमी, आम दुकानदार को! अब कम खाकर या आधी पेट खाकर स्वस्थ्य भारत का निर्माण किया जा रहा है, जहाँ तकरीबन 50 फिसद बच्चे कुपोषित हैं.
मनरेगा में अब नहीं मिल रहा काम
शहरों में जब बात नहीं बन रही है तो लोग वापिस लौटकर गांव जा रहे हैं. लेकिन यहां भी मनरेगा के भरोसे रहने वालों को काम नहीं मिल रहा है. झारखंड के पलामू ज़िला से शंकर पाल कहते हैं कि लॉकडाउन खुलने के बाद गांव के बहुत सारे लोग काम के लिए दिल्ली, मुंबई, सूरत, अहमदाबाद और चेन्नई गए थे, लेकिन अब वो लौट आए हैं. जो कुछ लोग बाहर हैं उन्होंने अपने परिवारों को वापिस गांव लौटा दिया है. असल में शहरों में अब पहले की तरह काम मिलना आसान नहीं रह गया है. फुटपाथ पर ठेले लगाना, सामान बेचना सब मुश्किल हो गया है. दुकानें खुल जरूर रहीं हैं पर वहां ग्राहक नहीं हैं. ऑफिस खुले हैं पर कोई चाय पीने ठेलों पर नहीं जा रहा. मजदूरों को फैक्ट्रियों में काम नहीं दिया जा रहा. इसलिए लोग वापिस गांव आकर खेतों में मजदूरी कर रहे हैं. यहां भी इतने ज्यादा बेरोजगार हो गए हैं कि मनरेगा में भी उनके लिए जगह नहीं बची है. पंचायत कार्यालय में बात करो तो वो कहते हैं कि मनरेगा में कितना काम करवाएं? सब काम हो चुके हैं इसलिए मनरेगा के तहत कुछ करने को है ही नहीं.
दूसरी दिक्कत ये है कि कोरोना काल और उसके बाद भी छोटे व्यापारियों, मजदूरों, प्रवासी कामगारों पर उधार का बोझ बना हुआ है. काम धंधा कम है इसलिए ये उधारी भी नहीं चुक पा रही. जो लोग साहूकारों के चक्कर में फंस गए हैं, वो बंधुआ मजदूरी के लिए विवश किए जा रहे हैं. शिवपुरी से धनती कुशवाह कहती हैं कि कोरोना काल से अब तक उधार मांग—मांग कर काम चल रहा है. घर के लोग मजदूरी करते थे, लेकिन काम मिलना बंद हो गया. लॉकडाउन खुला तब भी अब पहले की तरह काम नहीं मिल रहा. अगर कोई कम मजदूरी देकर भी काम करवाता है तो सब लोग कर लेते हैं. क्योंकि उधार इतना हो चुका है कि उसे चुकाते नहीं बन रहा है. जिन लोगों ने साहूकरों से उधार लिया वो तो अब रो रहे हैं. ब्याज ही नहीं चुकाया जा रहा तो मूलधन कहां से चुकाएं? जो कमाई होती है वो पिछली उधारी चुकानें में जा रही है, घर की हालत दिन प्रतिदिन ख़राब होती जारही है . धनती कहती हैं कि हम लोग टीवी पर सुनते हैं कि लॉकडाउन खुलने के बाद अब सब ठीक हो रहा है, लोगों को काम मिल रहा है पर ये कहां हो रहा है? क्योंकि जिन लोगों को काम की जरूरत है वो तो अभी भी खाली हाथ बैठे हैं!
हर क्षेत्र का असंगठित कामगार परीशान
पटरी पर लौटती जिंदगी के बारे में जो बातें की जा रहीं हैं वे उनके लिए हैं जो सरकार को टैक्स दे पा रहे हैं, नौकरियों में लगे हैं, सरकारी मुलाजिम हैं या फिर उच्च वर्ग के व्यापारी. संघर्ष उनका जारी है जो इन बिरादरियों से दूर हैं. अगर ये कहें कि किसी एक क्षेत्र में मंदी है तो ऐसा नहीं है. क्योंकि रेहडी पटरी पर काम करने वालों के अलावा फुटकर व्यापारी, फेरीवाले, होटलों में काम करने वाले कामगार… हर कोई अपने—अपने स्तर पर मंदी झेल रहा है. यह मंदी का वो दौर है जो इस समय निचले वर्ग को ज्यादा प्रभावित कर रहा है. चूंकि ये तबका हमेंशा से हासिए पर रहा है इसलिए इनकी बात ना तो अखबारों में हो रही है ना न्यूज चैनल में. ऐसा भी नहीं की संगठित क्षेत्र में काम करने वालों की हालत बहोत अच्छी है … पर सरकार के लिए बेरोज़गारी मुद्दा ही नहीं बन पारही है , 2 करोड़ की सरकारी नौकरी का दावा करने वाले कुछ हज़ार को भी नौकरी नहीं दे पारहे हैं और नहीं बेरोजगारों को गंभीरता से ले रही है. गिद्धौर के मोहसिन अंसारी अब गांव—गांव घूमकर प्लास्टिक के खिलौने और दूसरा सामान बेचते हैं, लेकिन उससे पहले जैसी कमाई नहीं हो रही. मोहसिन कहते हैं कि पहले यही सामान ट्रेनों में बेचते थे. लॉकडाउन के दौरान ट्रेने बंद हुईं तो सामान बेचने के लिए गांव—गांव घूमने लगे. फिर जब लॉकडाउन खुला और ट्रेने शुूरू हुईं तो सोचा वापिस वहीं जाकर सामान बेचेंगे पर जल्दी ही काम बंद कर दिया. असल में अब ट्रेनों में पहले जैसे यात्री सामान नहीं खरीदते. संक्रमण ना फैले इसलिए हमें प्लेफार्म तक भी नहीं पहुंचने दिया जाता. अगर किसी तरह ट्रेन में घुसने का मौका मिल भी जाए तो यात्रा करने वाले यात्री ही मुंह बना लेते हैं. ऐसा लगता है जैसे हम खिलौने नहीं कोरोना बेच रहे हैं? बीमारी कम हो गई है, फिर भी हमारे लिए चीजें वैसी ही हैं. शायद उससे भी बदत्तर. मोबाइलवाणी पर एक श्रोता ने अपनी बात रिकॉर्ड की है. हालांकि वे बाल मजदूरी के बारे में कह रहे हैं इसलिए उन्होंने अपना नाम नहीं बताया. फिर भी उनकी बात जानना जरूरी है. वो कहते हैं कि गांव से बहुत से बच्चे माता—पिता के साथ शहरों में आ जाते हैं, फिर जब माता—पिता मजदूरी पर जाते हैं तो वे बच्चों को होटलों में बर्तन धोने का काम दिलवा देते हैं. इससे बच्चा सुरक्षित रहता है, उसे खाना मिल जाता है और साथ में दो पैसे घर आ जाते हैं. लेकिन इस बार जब लॉकडाउन खुला तो चीजें बदल गईं. बच्चे माता—पिता के साथ आए जरूर पर उन्हें होटलों में काम नहीं मिला. रेस्टॉरेंट मालिकों का कहना है कि लोग पहले की तरह खाना खाने नहीं आ रहे हैं. ग्राहक कम हैं तो काम कम है इसलिए जो स्टॉफ पहले से ही है अब वही दूसरे छोटे—मोटे काम कर लेता है. यानि इस कोविडकाल के बाद काम की मांग फैक्ट्री, फुटपाथ और होटलों… हर जगह कम हुई है.
बिहार के अलग—अलग जिलों के गांव—कस्बों में घूमकर बर्तन बेचने वाले कौशल कहते हैं कि मैं थक गया हूं. सोचता हूं कि काम बदल लूं. लेकिन मेरे जो साथी दूसरा काम कर रहे हैं वो कहते हैं कि कोई फायदा नहीं. हम सबका एक ही हाल है. सामान अब पहले की तरह ना तो बेचा जा रहा है ना ही खरीदा जा रहा है. हम लोग छोटे व्यापारी हैं, हमारे सामान भी सस्ते हैं, क्वालिटी भी उसी तरह की है. हम लोगों का सामान मध्यम वर्ग के परिवार ज्यादा खरीदते थे लेकिन पता नहीं अब क्यों नहीं खरीदते. लॉकडाउन खत्म होने के बाद हम लोगों को पैसों की बहुत जरूरत है.
ये बहुत जरूरी है कि इस वक्त सरकार जीडीपी के आंकडों को दिखाने की बजाए ऐसा गणित लगाए जो छोटे कामगारों को आर्थिक मजबूती दे. कोविड काल के बाद अब आम जनता इस स्थिति में नहीं है कि वह सरकार को सीधे तौर पर टैक्स दे पाए किन्तु परोक्ष रूप से तो टैक्स के रूप में मोती रकम बसूली ही जारही है , वो सामन खरीदने की शक्ल में , पेट्रोल या डीजल की शक्ल में हों और साथ में महंगाई की मार अलग. लोगों के पास नौकरियों की कमी है, जाहिर है कि जब जेब में पैसा नहीं होगा तो उपभोक्ता बाजार ठंडा रहेगा अर्थाशास्त्री ज्यान्द्रेज, अरुण कुमार पहली ही सरकार को सुझाव दे चुकी है की अगर बाजार में मांग को बढ़ाना है तो सीधे तौर पर आम मजदूरों के अकाउंट में पैसे डाले जाएँ. बाजार में मांग का ना होना बहुत सारी दिक्कतें पैदा कर सकता है .