कोरोना महामारी के बीच बढ़ता कुपोषण
रिज़वान रहमान
अगले 6 महीने में पांच वर्ष से कम के 12 लाख अतरिक्त बच्चे, कुपोषण से मर सकते हैं। ये चेतावनी बीते 21 मई को यूनिसेफ ने भारत सरकार को दी है। सवाल है कि कुपोषण से होने वाली मौत के बीच ये 12 लाख अतरिक्त बच्चे, कौन हैं। ये 12 लाख बच्चे वही हैं जिन्हें महामारी के बीच भूख और खाने की कमी झेलनी पड़ रही है। आर्थिक तंगी और काम-धंधा चौपट होने के मध्य स्कूल बंद होने से मीड डे मिल उपलब्ध न हो पाना इसकी बड़ी वजह है। इससे पहले सेन्टर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट की सालाना रिपोर्ट “स्टेट ऑफ इंडियाज एनवायरनमेंट 2021” में बताया गया था, कि “कोविड-19 महामारी के कारण भारत में 37.5 करोड़ बच्चों को भूख, कुपोषण, अशिक्षा और कई अनेदेखी परेशानियों का सामना करना होगा। इसका प्रभाव कई दशकों तक दिखाई देगा।” सेन्टर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट ने इस रिपोर्ट को विश्व बैंक, यूनिसेफ और ग्लोबल हेल्थ साइंस के अध्ध्यन आधार पर लिखा है।
यही नहीं सेन्टर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट की इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि भारत में करीब 9.4 करोड़ बच्चे लॉकडाउन के कारण मिड डे मिल से वंचित रहे। इस पर द क्विंट में प्रकाशित एक विश्लेषणात्मक लेख में अनामिका यादव जोर देते हुए कहती हैं, “मीड डे मिल में आई रुकावट से बच्चों की सेहत पर लंबे समय तक बुरा प्रभाव पड़ेगा। अगर कोविद-19 महामारी के बीच उनके आहार पर ध्यान नहीं दिया गया तो उनमें समग्र विकास की अड़चन के साथ पुरानी बीमारी के जोखिम बढ़ेंगे। सरकार को इस पर खास ध्यान देना होगा। आर्थिक तंगी के कारण खाद्य असुरक्षा बढ़ी है जिसके लिए आंगनबाड़ियों जैसे संस्थानों को पुनर्जीवित और पुनर्व्यवस्थित करने की ज़रूरत है।”
लेकिन समस्या अजीबो-गरीब है कि महामारी की आड़ में कुपोषण पर बात नहीं हो रही है। इलेक्ट्रोनिक मीडिया तो छोड़िए, प्रिंट मीडिया के बहस से भी गायब है और नाही इस पर कोई ओपिनियन पीस देखने को मिल रहा। फिल्ड रिपोर्ट भी मीडिया से गायब हैं। ऐसा लगता है कुपोषण जैसा शब्द अब हर डिबेट से गायब हो चुका है। भूल चुके हैं सब कि हमारे देश में कुपोषण भी है। नया पोषण मिशन, 2018 में लॉंच हुआ और नारा दिया कि 2022 का ‘नया भारत’ ‘कुपोषण मुक्त भारत’ होगा। लेकिन अभी तक 3 साल में कोई खास प्रगति नहीं हुई है। भारत लगातार भूख सूचकांक में निचे खिसकता जा रहा है। भारत का अभी 94 रैंक पर है जो की चिंताजनक बात है। कुपोषण के चारों पैरामीटर में कुपोषित की संख्या 2014 के बाद बढ़ी है।”
बीते एक सप्ताह के भीतर इंग्लिश वेबसाइट पर भी कुपोषण से संबंधित रिपोर्ट शायद ही छपी है। और पिछले एक महीने में कुछ-एक ही छपी भी हैं तो किसी थिंक टैंक की स्टडी पर आधारित है। इसमें हिंदी मीडिया की चर्चा तो छोड़ ही दीजिए। ये काफी दुखद है कि यूनिसेफ की रिपोर्ट को भी बहुत कम वेबसाइट पर जगह मिली। मतलब कुपोषण का सवाल सिरे से मीडिया डिबेट्स से गायब है, या कर दिया गया है। जबकि यूनीसेफ और दूसरी तमाम संस्था भारत सरकार को लगातार चेता रही है कि परिणाम काफी गंभीर और मानवीय संकट खड़ा करने वाले हो सकते हैं।