कोरोना पर लॉकडाउन से काबू पाया जा सकता है लेकिन भूक पर कैसे काबू पाया जाए?

ग्रामवाणी फीचर्स 

मौत!

अपने साथ लेकर आती है चीख…. और फिर उसके पीछे का खौफनाक सन्नाटा! इन दिनों हम इन्ही चीखों और सन्नाटे के बीच जी रहे हैं. भारत कोरोना संक्रमण की भयावहता के चरम पर है, कुछ लोग कह रहे हैं कि शीर्ष आना अभी शेष है, गाँव जहाँ हिंदुस्तान की बड़ी आबादी रहती है वहां का हाल यह है की हर  घर में कोई न कोई बीमार है सर्दी , खांसी ,बुखार की समस्या है जो कोरोना के प्रमुख लक्षण हैं , लेकिन यहाँ न तो जांच है , न तो बीमार मरीज को अलग रखने की व्यवस्था न डॉक्टरों की उपस्थिति , बुखार और महामारी के अन्य लक्षणों से हुए मौत भी कोरोना से हुए मौत के सरकारी आंकड़े में अपनी जगह नहीं बना पारहे है . कयास चाहे जो भी लगाए जा रहे हों, पर इन दिनों मौत के आंकडों के हर रोज नए कीर्तिमान बन रहे हैं, दिल्ली के गाँव या यु. पी. बिहार के गाँव सब एक जैसे ही हैं जहाँ सरकार कोरोना की टेस्ट घटा कर पोजिटीवीटी रेट कम करने पर प्रसाशनिक प्रबंधन करने पर जुटी है, महामारी विशेषज्ञों, अर्थशास्त्रीयों ने तो अपनी चिंता रोज़ मीडिया के माध्यम से लोगों के सामने रख रहे हैं , लेकिन सरकार इन सभी सुझाओं को अनदेखा करती नज़र आरही है. इसी बीच राज्य सरकारों ने एक बार फिर लॉकडाउन को ही कोरोना संक्रमण के रोकथाम के लिए ठोस कदम मान रही है , और ये केवल राज्य सरकारों का नहीं बल्कि माननीय न्यालय का भी सुझाव है . महानगर बंद हो रहे हैं, छोटे जिले कर्फ्यू की जद में हैं.. दुनिया मांग कर रही है कि भारत को एक बार फिर संपूर्ण लॉकडाउन का कदम उठा लेना चाहिए. 

टीकाकरण करना हो या जरूरतमंदो तक इलाज पहुंचाना हो या फिर कोरोना वायरस की चेन तोड़ना हो… वजह जो भी हो पर अगर देश में एक बार फिर से सम्पूर्ण लॉकडाउन लगता है तो क्या हम उसके वे परिणाम भुगतने के लिए तैयार हैं, जिन पर फिलहाल ना तो सरकारें बात कर रहीं हैं ना ही उनकी गोद ली हुई मीडिया!

असल में जिस तरह के लॉकडाउन की सूरत फिलहाल हम देख रहे हैं उसने दिहाड़ी कर कमाने वालों को तो पहले ही संकट में डाल दिया है. अगर देश में पिछली बार की तरह इस बार भी सख्त पाबंदियों के साथ ताले लटका दिए गए तो देश का गरीब तबका भुखमरी की सबसे बदत्तर हालत में पहुंच जाएगा. सुनिए अपने घर लौटे प्रवासी मजदूर की आप बीती,जब ये अपने घर लौटे तो इनके पास आजीविका की घोर समस्या थी , आइसक्रीम बेचने का काम शुरू किया , समाज के दवाव के कारन उसे छोड़ना पड़ा , गाँव गाँव घूम कर तरबूज बेच रहे हैं , सरकार की तरफ से कोई मदद नहीं मिला , न मंरेगा में कोई काम , 5 व्यक्ति के परिवार में कोई दिन सुनिश्चित नहीं की कितना कमाई होगा, परिवार के लोग एक वक्त का खाना खाकर जिंदगी गुजार रहे हैं , बाकी और कहानी आगे की स्टोरी में आप खुद पढ़े.  एक्सपर्ट लॉकडाउन के बारे में चाहे जो कहें, पर देश का बहुत बड़ा वर्ग ऐसा भी है जो लॉकडाउन के लिए तैयार नहीं है! आखिर क्यों? आज की खबर है की योगी सरकार गैरसगठित मजदूर और खुद का छोटे मोटे काम करने वालों को 1000 रुपया एक माह के आर्थिक मदद देगी, इनका चयन, पंजीयन और खाते में पैसे का हस्तांतरण कब होगा और कैसे होगा पता नहीं , कितने लोग, छूट जायेंगे या छोर दिए जायेंगे कहना मुश्किल है , दिल्ली सरकार भी ऑटो रिक्शा और टेक्सी ड्राईवर को भी आर्थिक सहयता देने की बात कही है इसकी पड़ताल अभी बाकी है.  

खिलाने की गारंटी कौन देगा?

मजदूरों के सामने इकलौता सवाल ये है कि भई लॉकडाउन लगा लो, पर हमें खिलाने की गारंटी कौन देगा? कमाई बंद है, बाहर जा नहीं सकते… तो ऐसे में क्या करें. सरकारें भी पिछली बार की तुलना में इस बार कम एक्टिव दिखाई दे रही हैं. समाज सेवी भी कम से कम बाहर नजर आ रहे हैं. यानि इस बाद दान और घोषणाओं की सीमा सीमित हो गई है. भागलपुर कल्याण से मोबाइलवाणी पर एक महिला ने अपनी बात रिकॉर्ड है. वो महिला इतनी परेशान थीं कि ठीक से अपना नाम भी नहीं बता पाई. उसने कहा कि लॉकडाउन लगा दिया सरकार ने, अच्छी बात है पर हम मजदूर कहां जाएं? हमें तो रोज काम करना है, रोज कमाना है, रोज खाना है. काम नहीं, पैसा नहीं तो खाना नहीं. कहां से अपना और बच्चों का पेट भरे?

बिहार के मुंगेर से आशीष बताते हैं कि दिल्ली में काम कर रहे थे, सरकार ने लॉकडाउन लगाया तो हम लोग पैदल वापिस गांव आए. यहां जैसे तैसे दिन कटे. सरकार ने लॉकडाउन खोला तो हम काम करने वापिस दिल्ली चले गए लेकिन फिर लॉकडाउन लग गया. कुल मिलाकर हमारे पास अब कोई काम नहीं है. गांव में बैठे हैं, खाली हाथ. समझ नहीं आता कि सरकार को लॉकडाउन ही आखिर विकल्प क्यों दिख रहा है? संक्रमण के मामले तो आ ही रहे हैं, कम से कम लोगों को भूखा तो ना मारे ये सरकार!

झारखंड से सर्वेश तिवारी मोबाइलवाणी पर बता रहे हैं कि पहली बार के लॉकडाउन में समाजसेवियों में काफी उत्साह था. वो गरीबों को खाना दे रहे थे, पानी और साबुन दे रहे थे. लेकिन इस बार संक्रमण की दूसरी लहर में समाजसेवी सड़कों से गायब हैं. इसकी दो वजह हैं, एक तो लोगों में संक्रमण का डर इतना ज्यादा है कि वे मदद से कतरा रहे हैं और अगर कुछ लोग मदद के लिए कैनोपी लगाए या लंगर चलाएं तो पुलिस वाले कोरोना गाइडलाइन का उल्लंघन बताकर उन्हें बंद करवा देते हैं. यानि गरीब को ना तो सरकार से मदद मिल रही है ना समाजसेवियों से. फिलहाल अस्थाई लॉकडाउन है, कुछ जगहों पर ढील भी दी जा रही है तो कुछ लोग काम कर लेते हैं पर अगर पूरी तरह से लॉकडाउन लगा दिया तो क्या पता लोग भूख से बिलखकर मर जाएं!

लॉकडाउन की ऐसी सख्ती?

अगर दुनिया में अब तक आई महामारियों के अनुभवों को खंगालें तो हमें चौंकाने वाला जवाब मिलता है. चाहे सन् 165 से 180 के मध्य फैला एन्टोनाइन प्लेग हो या 1520 के आसपास दुनिया भर में फैला चेचक (स्मॉल पॉक्स) या पीला बुखार (येलो फीवर), रसियन फ्लू, एशियन फ्लू, कॉलरा, 1817 के दौरान फैला इंडियन प्लेग हो, सभी के फैलने के रूट की मैपिंग करें तो साफ़ जाहिर होता है कि इन सभी महामारियों का पहला कैरियर अमीर वर्ग के कुछ लोग या अमीर वर्ग में एंट्री करने की जद्दोजहद करता मध्य वर्ग का एक तबका ही रहा है. अभी जिस कोरोना वायरस के फैलाव को रोकने के लिए आज दुनिया का हर देश संघर्ष कर रहा है, उसने भी कुछ पर्यटकों, दुनियाभर के मुल्कों में हवाई यात्रा करने की क्षमता रखने वालों के एक समूह, विदेशों में कार्यरत लोगों का तबका, ग्लोबल रूप से स्वीकृत गायकों, कुछ अंतरराष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ियों और कुछ बड़े नौकरशाहों, पांच सितारा होटलों में पार्टी आयोजित करने की शक्ति रखने वालों का एक तबका, ग्रीस, स्विट्जरलैंड और फ्रांस में हनीमून मनाने वालों में से कुछ के देह में प्रवेश कर हमारे समाजों में फैलने का अवसर प्राप्त किया है.

संक्रमण भारत के उच्च वर्ग से होते हुए मध्यम वर्ग के परिवारों में फैला और फिर उसका निशाना बनें गरीब. लॉकडाउन लगाने के फैसले की बीच ज्यादातर मजदूर परिवार यही पूछ रहे हैं कि गरीब मजदूर तो विदेश गया नहीं था? फिर लॉकडाउन का सबसे बुरा असर उसी पर क्यों? सुप्रीम कोर्ट और राज्यों की हाईकोर्ट राज्य और केन्द्र सराकारों से बार बार पूछ रही है कि देश के गरीब और मजदूर वर्ग के खाने की व्यवस्था सुनिश्चित हो रही है या नहीं? सरकारें दवाओं और वेंटिलेटर की व्यवस्था कर रही हैं या नहीं? देश में चुनाव और कुंभ क्यों आयोजित हो रहे हैं? लेकिन इन सवालों के बदले सरकारें चुप हैं. 

फिलहाल देश में जिस स्तर का लॉकडाउन लगाया गया है उसका पालन करवाने की जवाबदेही स्थानीय पुलिस की है. अब जरा बिहार के मुंगेर में 50 साल से चाय बनाकर बेचने वाली आशा देवी से समझिए कि उनकी जिंदगी कैसे नरक हो गई? आशा देवी कहती हैं कि मैं 50 साल से चाय बेच रही हूं. मेरे पति गुजर चुके हैं, परिवार में कोई बेटा भी नहीं कि मुझे बैठा कर  खिला सके. अपने लिए दो वक्त की रोटी का जुगाड़ हो जाए इसलिए चाय का ठेला लगा रही थी. लेकिन कोरोना वायरस के आने के बाद धंधा बंद हो गया है. सरकार कभी लॉकडाउन लगा देती है कभी खोल देती है. जब लॉकडाउन लगा होता है तो धंधा बंद रहता है. अगर थोड़ी देर के लिए चाय की टपरी खोल लें तो पुलिस वाले आकर डंडा दिखाते हैं और बंद करवा देते हैं. अब तो मुश्किल से पांच कप चाय बिकती है. अभी सरकार ने लॉकडाउन खोला था तो लगा कमाई हो जाएगी लेकिन लॉकडाउन फिर लग गया. अभी मैं कहां से अपना पेट भरूं? थोड़ी बहुत चाय बिकती थी तो दो तीन किलो राशन ले आते थे, कोरोना में वो भी बंद हो गया. खाने के लिए कर्जा ले रखा है, अगर दुकान नहीं खुली तो कैसे चुकाएंगे?

पुलिस के रवैए पर दिल्ली के खजूरी क्षेत्र में पंचर की दुकान चलाने वाले गुड्डू भाईया कहते हैं कि लॉकडाउन में पुलिसवाले आकर हमारी दुकान बंद करवाने आते हैं तो तोडफोड मचाकर चले जाते हैं. हम समझते हैं कि संक्रमण का खतरा है पर अगर हम दुकान ना खोलें तो खाएंगे क्या? दुकान खोल भी लेते हैं तो अब ग्राहक नहीं आ रहे हैं. वहीं बड़े व्यापारी हैं जो किसी भी जरिए अपना काम चालू रखे हैं और कमा रहे हैं. लॉकडाउन के कारण सबसे ज्यादा दिक्कत गरीब तबके की है. पुलिस वाले भी गरीबों की दुकानें ही बंद करवा रहे हैं. गुड्डू कहते हैं कि हमें दुकान नहीं खोलना है पर अगर सरकार हमारे खाने की व्यवस्था सुनिश्चित कर दे तो ​फिर भला कौन बाहर जाएगा? 

बात सही है कि अगर सरकारें भोजन, पानी और स्वास्थ्य सेवाएं सुनिश्चित कर दें तो भला कौन बाहर जाने का जोखिम उठाएगा? कोरोना वायरस के प्रसार को रोकने के लिए हुए लॉकडाउन का सबसे ज्यादा खामियाजा वह दिहाड़ी मजदूर, गैरसंगठित क्षेत्र  में काम करने वाला श्रमिक, गांव का किसान उठा रहा है, जो इन महामारियों का कहीं से कारण नहीं रहा है.

भोजन और दवा दे दो बस!

देश के प्रधानमंत्री के विधानसभा क्षेत्र वाराणसी से अभिषेक ने मोबाइलवाणी के जरिए सरकार से अपील की कि इस बार पूर्ण लॉकडाउन मत लगाइए. इससे अच्छा है कि अस्पतालों में सुविधाएं दीजिए, दवाएं दीजिए और वैक्सीननेशन पर ध्यान दीजिए. क्योंकि इस बार के लॉकडाउन ने रोजाना कमाने खाने वालों के सामने पेट भरने का संकट खड़ा कर दिया है. फिर भी अगर सरकार लॉकडाउन लगा रही है तो उसे पहले सुनिश्चित करना होगा कि देश में कोई भुखमरी से ना मरे. प्रख्यात अर्थशास्त्री और नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन, पूर्व आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन और नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखे अपने लेख में कहा है कि ये बात ठीक है कि सरकार को समझदारी से पैसे खर्च करना चाहिए लेकिन ऐसा न हो कि इस चक्कर में जरूरतमंदों को ही राशन न मिल पाए.

केंद्र सरकार ने कोरोना राहत पैकेज के रूप में प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना (पीएमजीकेएवाई) की घोषणा की है जिसके तहत प्रति व्यक्ति को पांच किलो अनाज मुफ्त में दिया गया, लेकिन यह पिछले साल की बात है. इस बार राशन नि:शुल्क देना है और कब तक कितना देना ये सारा लेखा जोखा राज्य सरकारों पर डाल दिया गया है. राज्य सरकारें पहले ही बदत्तर होती स्वास्थ्य व्यवस्था को लेकर परेशान हैं, पैसों की कमी का वास्ता दिया जा रहा है. ऐसे में नि:शुल्क राशन मिलना सुनिश्चित करना मुश्किल है. विशेषज्ञों का कहना है कि राज्यों में बड़ी संख्या में राशन कार्डों के आवेदनों का लंबित रह जाना और जरूरतमंद बड़ी आबादी का राशन कार्ड न बनाए जाने की वजह से काफी सारे लोगों को इसका लाभ नहीं मिल पाएगा.

अर्थशास्त्रियों ने कहा कि ऐसा करने के लिए हमारे पास पर्याप्त संसाधन हैं. उन्होंने कहा कि मार्च 2020 में भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) में 7.7 करोड़ टन अनाज पड़ा हुआ था जो कि बफर स्टॉक का तीन गुना है. आने वाले दिनों में अनाज के भंडारण की मात्रा बढ़ेगी ही क्योंकि रबी फसलों की खरीदी होने वाली है. इसलिए राष्ट्रीय अपातकाल के समय जो पहले के स्टॉक पड़े हैं उसे खाली किया जाना चाहिए, इसमें देरी करना बुद्धिमानी नहीं है.

अस्थाई राशन कार्ड बनाने पर हो विचार

महाराष्ट्र के औरंगाबाद से शुभम कहते हैं कि हमारे यहां दिन पर दिन कोरोना संक्रमण के मामले आ रहे हैं पर लोगों को इलाज के आभाव में दम तोड़ते ज्यादा देखा गया है. अगर सरकार चाहती है कि संक्रमण रूके तो उसे इलाज पर काम करना चाहिए. लॉकडाउन के हालातों कोे गरीब आदमी एक बार झेल चुका है पर अगर फिर से उसे वही सब देना पड़ा तो वो खाएगा क्या? वैसे ही राज्य सरकारों ने लॉकडाउन लगाकर बहुत से काम बंद करवा दिए हैं. इससे तो अच्छा है कि सरकार पहले गरीबों को राशन और दवाएं मुहैया करवाए ताकि अगर रोजगार ना भी मिले तो वे जी सकें. 

लॉकडाउन की सूरत भले ही पहले की तरह नहीं है पर हालात पहले से भी ज्यादा खराब हो रहे हैं, क्योंकि बहुत लंबा वक्त गुजर चुका है. अम्बाला जिले के रहने वाले अरबिंद सिंह ट्रेन में छोटा मोटा सामान बेचकर अपने परिवार का भरण पोषण करते थे. लेकिन बीते 15 माह से अरबिंद बेरोजगार हैं. पहले लॉकडाउन के समय पर ट्रेनों का परिचान बंद कर दिया गया था, इसके बाद जब ट्रेन शुरू हुईं तो उनमें यात्रियों की संख्या इतनी कम है कि कमाई ही नहीं हो रही. अरबिंद कहते हैं कि सरकार ने विकलांगों के खाते में सहायता राशि देने का वायदा किया था, गरीबों को नि:शुल्क राशन देने की बात कही थी पर ना तो खाते में पैसे आए ना थाली में राशन. 15 महीनों से अरबिंद और उनका परिवार लोगों की मदद और कर्ज के सहारे जिंदा है. वो कहते हैं कि अगर लॉकडाउन फिर से लगा तो इस बार हम भूखे मर जाएंगे.

बिहार के जमालपुर में पिछले कई सालों से झालमुढ़ी बेच रहे आनंदी साह ने कोरोना संक्रमण आने के  बाद अपना सब खो दिया. झालमुढ़ी बनाने के लिए हाथों का इस्तेमाल होता है, आनंदी काफी सफाई रखते हैं पर फिर भी लोग अब संक्रमण के डर से ऐसी चीजें नहीं खा रहे हैं. इस पर से सरकार ने कर्फ्यू लगा दिया, सो जो कुछ थोड़े बहुत लोग झालमुढ़ी खरीद लेते थे अब वो भी नहीं आ रहे. ढाई बजे दुकान खोलते हैं और चार बजे से पुलिस वाले भगाने लगते हैं. कई तो आकर ठेला पलटा देते हैं, डंडा मारते हैं. दो घंटे का काम रह गया है उसमें भी 100 रुपए का सामान नहीं बिक रहा. जब तक कोरोना नहीं था तब तो 300 रुपए तक का मुनाफा कमा लेते थे. आनंदी से जब सरकारी योजनाओं के लाभ के बारे में पूछा गया तो बोले, राशन कार्ड बना है, कभी किसी महीने राशन मिलता है कभी नहीं. स्वरोजगार योजना के तहत लोन देने की बात कही थी सरकार ने, सो हमने फारम (आवेदन) भर दिया लेकिन मिला कुछ नहीं. अब सरकार देशभर में अगर ताला लगा देगी तो हम जैसे लोग अपना पेट कैसे भरेंगे?

अंत में, महत्वपूर्ण बात ये है कि गरीबों की एक अच्छी खासी संख्या किसी न किसी कारण (जैसे कि लाभार्थी की पहचान करने की प्रक्रिया) पीडीएस के दायरे से बाहर है. उदाहरण के तौर पर एक छोटे से राज्य झारखंड में भी राशन कार्ड के लिए सात लाख आवेदन लंबित हैं. इसके अलावा बड़ी संख्या में आवेदन सत्यापन की प्रकिया में पड़े हुए हुए हैं, ऐसा इसलिए क्योंकि जिम्मेदार स्थानीय अधिकारी किसी भी गलती से बचने की कोशिश करते हैं ताकि किसी भी तरह की गड़बड़ी न हो सके. अर्थशास्त्रियों ने कहा कि अच्छी बात है कि ऐसी सतर्कता अपनाया जाए लेकिन इस महामारी के समय में ये जरूरी नहीं. ऐसे में सही प्रतिक्रिया ये है कि सभी जरूरतमंदों को अस्थायी राशन कार्ड जारी किए जाएं- कम से कम छह महीने के लिए. जरूरतमंदों को राशन न देने का खामियाजा गैर-जरूरतमंदों को राशन देने से काफी बड़ा है.

यह इसलिए भी जरूरी है कि चाय बेचने वाली आशा देवी, झालमुढ़ी का ठेला लगाने वाले आनंदी शाह और ट्रेन में सामान बेचने वाले दिव्यांग अरबिंद सिंह जैसे लोगों के पास अब कर्ज लेने की हिम्मत नहीं बची है, अब देखना यह है की सरकार द्वारा घोषित राशी इनके खाते में कब तक पहुँचती है , और क्या यह लोग इन राशी से खाने के लिए कर्ज लिए पैसे की आदायगी कर पाते हैं. फिलहाल कल्याणकारी केंद्र और राज्य सरकार पता नहीं भगवान् से उम्मीद लगाये बैठी है की वही सब कुछ ठीक करेगा और गरीबों के थाली में दो जून की रोटी का इन्तेजाम करेगा , उन्हें वैक्सीन लगवाएगा , अस्पताल में उनके लिए ऑक्सीजन और बेड का इंतेज़ाम करेगा.