कृषक देश में क्यों विफल हो रहे हैं किसान आंदोलन?
ग्राम वाणी फीचर्स
कृषि से संबंधित विवादित विधेयक पारित होने के साथ ही देशभर के किसानों का खून खौल गया. गुस्सा दिलों से निकलकर सड़कों तक आया और फिर जाने कहां गायब हो गया? मीडिया से तो पहले ही किसान आंदोलन की सुर्खिंया गायब थीं, अब यह मसला लोगों के जहन से भी गायब हो चला है. देश में बीते दो साल में एक के बाद एक बड़े किसान आंदोलन देखने को मिले हैं. चाहे 2017 में मध्यप्रदेश के मंदसौर में हुआ किसान आंदोलन हो या फिर इसी साल हुए महाराष्ट्र के किसानों के बड़े प्रदर्शन.
भारत में किसान आंदोलनों का लंबा इतिहास रहा है. देश में सहजानंद सरस्वती जैसे किसान नेता हुए हैं, जिन्होंने ब्रिटिश राज में यूनियन का गठन किया था. इतिहास गवाह रहा है कि जब कि किसानों ने एकता दिखाई है सरकारों में खलबली मची है पर सवाल ये है कि अब ऐसा क्यों नहीं हो रहा है?
किसानों को कमजोर बनाने वाले तीन प्रमुख कानून बन गए, हल्ला हुआ, विरोध हुआ पर किसी के कान पर जूं तक नहीं रेंगी? क्या सरकारों को किसानों के विद्रोह से फर्क पड़ना बंद हो गया है या फिर किसान आंदोलन भी राजनीति का शिकार हो रहे हैं? या फिर वजह कुछ और है? ये सारे सवाल लेकर मोबाइलवाणी की टीम ग्राउंड पर पहुंची और उन किसानों से बात की जिन्हें वाकई इस पूरे बदलाव का हर्जाना भुगतना पड़ेगा!
आंदोलनों की पहुंच से दूर कई किसान
बेनतीजा खत्म होते आंदोलनों के बारे में एक आम राय ये भी है कि इनसे छोटे किसानों को नहीं जोड़ा जा रहा है. परसौना गांव के किसान शशि भूषण राय कहते हैं कि मैं छोटा किसान हूं और अकेला नहीं हूं, मुझ जैसे कई किसान है. सरकार ने जो भी नियम बनाएं हैं उनसे बड़े किसानों को अपना फायदा नुकसान नजर आ रहा होगा पर हमें तो हमारी दशा में कोई बदलाव नहीं दिखता. सरकार इतनी घोषणाएं करती है, गरीबों के लिए ये होगा वो होगा पर होता क्या है? हम गरीब हैं, हमसे पूछो कुछ नहीं मिला इतने समय में. कोरोना काल में राशन देने की बात कही थी, दुकान के चक्कर लगाते रह गए पर दाना नहीं मिला.
इसी तरह गिद्धौर के बनाडी पंचायत से भूमिहीन किसान श्याम रावत कहते हैं कि उन्हें सरकार की तरफ से पास हुए बिलों की कोई जानकारी नहीं है. जब मोबाइलवाणी संवाददाता ने उन्हें बिलों के बारे में बताया तो श्याम ने कहा क्या फायदा! हमारे पास तो जमीन भी नहीं है. ये सब आंदोलन, बिल, कानून बड़े किसानों के लिए है. आंदोलन कर कर के तो कई किसान नेता बन गए पर उससे हमारे लिए क्या बदला? अब ये कानून बना है कि किसान व्यापारियों को सब्जी अनाज बेच सकेंगे पर हमारे पास तो इतनी उपज ही नहीं कि व्यापारी उसे खरीदे? इससे तो अच्छा होता कि सरकार हम जैसे भूमिहीन किसानों के लिए कुछ कर देती.
बात साफ है कि किसानों तक उनसे जुड़े हितों, अधिकारों, योजनाओं और कानूनों की जानकारी सही ढंग से पहुंचाई ही नहीं जा रही है. गांव के वे किसान जो दिल्ली तक नहीं जा पाए वे मानते हैं कि यह केवल विधानसभा चुनाव के लिए एक मसला है, इससे ज्यादा कुछ नहीं. किसान आंदोलनों से किसानों की समस्याएं हल नहीं हो रहीं, सरकार पर प्रख्यात कंपनियों का दवाब है, ऐसे में खेती करने वाले अदने से किसान की कौन सुनने वाला है? मधुबनी के साहरघाट से आरएन ठाकुर बताते हैं कि गांव के बहुत से किसान हैं जो कृषि सुधार बिल के बारे में कुछ नहीं जानते. ऐसा इसलिए क्योंकि अधिकत्तर किसानों के घरों में टीवी नहीं है, मोबाइल फोन और अखबार नहीं आते. असल में सरकार को कानून लागू करने से पहले लोगों को उसके बारे में बताना भी तो चाहिए? कम से कम किसानों को तो पता हो कि उनके नाम पर क्या किया जा रहा है?
क्या एकता पीछे छूट गई?
मध्य प्रदेश में किसान आंदोलनों से जुड़े रहे और कृषि मामलों के जानकार केदार शिरोही कहते हैं कि किसान आंदोलन इस लिए असफल हैं कि सरकार में इच्छा शक्ति की कमी है. सरकार चाहे तो किसानों की समस्याओं का हल हो सकता है, लेकिन ऐसा हो नहीं रहा और किसानों की मांगे जस की तस बनी हुई है. शिरोही किसानों के एकजुट न होने की बात पर जोर देते हुए कहते हैं कि, किसान आंदोलन इस लिए भी असफल हैं कि हम 1 हजार की सेना को मारने के लिए 500-500 की टुकड़ियों में आ रहे हैं. हम इकट्ठा नहीं आ रहे हैं.
इस इकट्ठा होने वाली बात पर गिद्धौर से शिवांशु कुमार कहते हैं कि कृषि बिल को लेकर इतना उग्र आंदोलन चल रहा था. हाइवे, रेलवे मार्ग जाम है पर बहुत से छोटे किसान ऐसे हैं जिन्हें ठीक से इस बिल के बारे में जानकारी दी नहीं, फिर भी चूंकि गांव के बड़े किसानों ने कहा है इसलिए वे भी आंदोलन में शामिल हो गए हैं. शिवांशु कहते हैं प्रखंड के ज्यादातर किसान बिल के बारे में अपनी प्रतिक्रिया नहीं दे पा रहे हैं, वजह ये है कि उन्हें पता ही नहीं है कि सरकार ने आखिर क्या फैसला लिया है? उन्हें तो गांव के संपन्न किसानों ने कहा कि चलो आंदोलन करें तो वे आ गए. असल में उन्हें पता होना चाहिए कि यह आंदोलन उनके कितना जरूरी है?
केदार कहते हैं, सरकार इसलिए भी किसान की सुध नहीं लेती क्योंकि उसका वोट बैंक तय है. सरकार ने अर्बन तबके के लोगों को अपने साथ कर लिया है अब रहा ग्रामीण इलाका तो यहां भी गरीबों को लुभाना उन्हें खूब आता है. बच जाते हैं कि किसान जो ना शहरी है ना ही ग्रामीण गरीबों में उनका नाम लिया जाता है, भला सरकार को उनकी क्या जरूरत? एक रूख ये भी है कि सरकार इसी लिए किसान की आय भी नहीं बढ़ाना चाहती, क्योंकि अगर किसान की आय बढ़ेगी तो शहरों में महंगाई बढ़ेगी और सरकार अपने मुख्य वोट बैंक को नाराज नहीं करना चाहती. अखिल भारतीय किसान सभा के विजू कृष्णन कहते हैं कि किसान जब तक एकजुट रहे, उन्होंने सरकारों को झुकने पर मजबूर किया. सरकारों ने उनके आंदोलन को गंभीरता से भी लिया क्योंकि देश में बड़ी आबादी किसानों की है.
विरोध होता है पर कोई सुनता क्यों नहीं?
अब सवाल ये है कि आखिर किसानों के विद्रोह की आवाज दिल्ली को हिला क्यों नहीं पा रही है? जनू 2017 मंदसौर में हुआ किसान आंदोलन, नासिक से मुंबई किसान पद यात्रा (मार्च 2018), ‘गाँव बंद’ आंदोलन (1 से 10 जून 2018), मज़दूर-किसान संघर्ष रैली (सितंबर 2018), किसान क्रांति यात्रा हरिद्वार से दिल्ली (अक्टूबर 2018). ये बस कुछ उदाहरण हैं, इनके अलावा दर्जनों और किसान आंदोलन हुए हैं पर सभी आश्वासनों के साथ खत्म हो गए. ठीक वैसे ही जैसे हाल ही में हुआ किसान आंदोलन दबा दिया गया.
यहां मीडिया की भूमिका पर भी सवाल पैदा होते हैं. किसानों को विद्रोह को नहीं दिखाया ठीक है पर कम से कम उस वजह के बारे में तो बताया जाना चाहिए जो इस विद्रोह का कारण बन रही है? सारण जिले से राजेन्द्र प्रसाद और उनके कई साथी किसानों ने मोबाइलवाणी के जरिए बताया कि उन तक किसान बिल की सही जानकारी पहुंची ही नहीं है. गांव के ही गोपाल महतो कहते हैं कि हमें कुछ नहीं पता कि ये हंगामा हो क्यों रहा है? पटना और दिल्ली की खबरें सुनी तो पता चला कि किसान आंदोलन कर रहे हैं पर क्यों कर रहे हैं इस बारे में कुछ नहीं पता. किसान कहते हैं कि बिल के बारे में प्रचार होना चाहिए था, तब तो पता चलता.
छिंदवाड़ा के किसान जागेश्वर बताते हैं कि असल मायनों में किसानों तक बिल की पूरी जानकारी पहुंची ही नहीं है. बहुत से छोटे किसान पूंजीपति किसानों के कहे अनुसार आंदोलन में शामिल हुए हैं. जितना लोगों से सुना है उस हिसाब से यही कह सकते हैं कि मंडी खत्म ना हो तो ही अच्छा है वरना किसानों को तो नुकसान ही नुकसान है. पहले किसान खेती करे और फिर फसल लेकर व्यापारियों के चक्कर काटे, इसमें किसी का फायदा नहीं.
एनसीआरबी की रिपोर्ट कहती है कि 34 किसान और खेतिहर मजदूर औसतन रोजाना आत्महत्या कर लेते हैं और साल भर में मरने वालों की संख्या 12 हजार के पार हो जाती है. दुख की बात ये है कि आत्महत्या की यह भयावह तस्वीर हर साल और ज्यादा मनहूस हो रही है. 50 हजार रुपए का औसतन कर्ज देश के हर एक किसान पर है. सोचिए ऐसे में वे क्या करें? आंदोलन अगर इसी तरह बेनतीजा की खत्म होते जाएंगे तो आत्महत्या के अलावा कोई चारा है?
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की ट्रेड यूनियन के उपाध्यक्ष ज्ञान शंकर मजूमदार कहते हैं, हमने देखा है कि जब किसानों में एकजुटता रही तो मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री उनसे मिलने जाते थे. लेकिन राजनीतिक दलों ने किसानों को तोड़ने का काम किया जिससे उनकी ताक़त कम हुई और नौबत ऐसी है कि वो अब महीनों भी आंदोलन कर लें, उनसे मिलने या उनकी मांगों के बारे में बातचीत करने के लिए कोई अधिकारी या नेता नहीं जाता. कितने दुख की बात है कि मध्यम वर्ग के किसान की सालाना आमदनी 20000 रुपए से भी कम है जबकि औसतन 20 हजार रुपए प्रतिमाह है तो सरकारी दफ्तर में काम करने वाला चपराची कमा लेता है.
नरसिंहपुर जिले के पिपरिया रांकई गांव के किसान जोगेंद्र द्विवेदी कहते हैं कि वर्तमान में जो भी आंदोलन हो रहे हैं बड़े किसान कर रहे हैं. गांव के बड़े लोगों ने कहा तो छोटा किसान ट्रैक्टर पर बैठकर जाता है, जब किसान खुद की बैलगाड़ी पर बैठ कर जाएगा तो आंदोलन सफल होंगे.