किस करबट बैठेगा बिहार की राजनीती का ऊंट

बिहार विधान सभा 2020 की सामाजिक और राजनैतिक विश्लेषण
लेखक – डॉक्टर मोहम्मद अली
भूमिका: इस बार का ‘विधान सभा चुनाव’ बिहार में आने वाले 20 वर्षों को सामजिक और राजनीतिक रूप से प्रभावित करने की पूरी सम्भावना रखता है । ‘सत्ता-पक्ष’, ‘विपक्ष’ और ‘जनता-पक्ष’ के इस महा-संग्राम में कौन किसे पटखनी देता है इसे देखना और समझना बहुत ही दिलचस्प होने वाले है ।
समाज और राजनीति एक ही सिक्के के दो पहलू है । समाज का शायद ही ऐसा कोई वर्ग होगा जिस पर राजनीति अपना सीधा असर नही दिखाती हो । आज देश के सामजिक और आर्थिक हालात पर राजनीतिक फ़ैसलों का जो असर पड़ रहा है उसे देश की जनता न सिर्फ़ देख रही है बल्कि भोग भी रही है । ऐसे हालात में राजनीतिक भागीदारी से राजनीति को प्रभावित करना हर भारतियों का कर्तव्य बन जाता है ।
2015 विधान-सभा की झलक
महात्मा बुद्ध के दर्शन, चाणक्य के अर्थशास्त्र और जय प्रकाश के सम्पूर्ण-क्रांति की धरती ‘बिहार’ की जनता ने अपने सामाजिक संघर्षों और राजनीतिक सूझ-बूझ से हमेशा ही ऐसे फ़ैसले लिए है जो बिहार ही नही बल्कि भारतीय राजनीति को किसी न किसी रूप में प्रभावित करता रहा है । बिहार के “बेलछी-सफ़र” से इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी हो या “समस्तीपुर” में अडवाणी जी के रथ का विराम हो, भारतीय राजनीति को प्रभावित करने वाले कई बड़े फ़ैसले बिहार की ज़मीन से लिए गए हैं ।
इसी क्रम में 2015 के बिहार विधान-सभा चुनाव में होने वाले ‘महा-गठबंधन’ और इसके परिणाम को सियासी-पंडित बड़े राजनैतिक आयाम से देखने की कोशिश कर रहे है जिसका प्रभाव पूरे देश की राजनीतिक सोंच और गतिविधियों पर पड़ा है ।
बिहार विधान-सभा 2015 के चुनावी नतीजों की गम्भीरता को इस बात से समझा जा सकता है कि प्रदेश के 5 साल के शासन काल में एक ही व्यक्ति दो बार “मुख्यमंत्री” पद की शपथ लेता है वो भी दो विभिन्न दलों के सहयोग से बिना दुबारा चुनाव हुए । लोकतंत्र में जनादेश के इस अपमान को उस “व्यक्ति” का ‘कुर्सी’ से चिपके रहने की कलाकारी समझा जाए या बिहार के मज़बूत विपक्ष की नाकामी समझा जाए ? अलग-अलग लोग इसे अलग अलग नज़रिए से देखने के लिए पूर्ण रूप से स्वतंत्र है, मगर, लोकतंत्र में जनता से बिना संवाद किए पार्टी बदल कर कुर्सी पर विराजमान रहने की कलाकारी दिखाना, बिहार के एक-एक मतदाता के साथ छल है और उनके वोटों के स्वाभिमान की हत्या करना चुनावी प्रक्रिया को अंगूठा दिखलाने के बराबर समझा जा सकता है ।
लोकसभा चुनाव 2014 में भाजपा (NDA) के अप्रत्याशित जीत और मोदी जी के रंग को अगले ही वर्ष 2015 के बिहार विधानसभा में बिहार की जनता ने भंग कर दिया । कई राजनैतिक जानकार इस हार को मोदी की हार नही बल्कि नीतीश-लालू और कोंग्रेस के ‘साझा-ताक़त’ की जीत मानते हैं । उनके इस विश्लेषण का तर्क – 2017 में “उत्तर-प्रदेश विधानसभा” में हुई भाजपा की ज़बरदस्त जीत से समझा जा सकता है, जहाँ बिहार के तर्ज़ पर माया-मुलायम और कोंग्रेस का “गठजोड़” सम्भव नही हो सका था । हाँ, उत्तर-प्रदेश चुनाव से ठीक पहले मोदी जी की “नोट-बदली योजना” से उत्तर-प्रदेश में “वोट-बदली योजना” कितनी सफ़ल रही यह चर्चा और विवाद दोनो का विषय है ।
मगर, एक बात तो तय है कि – बिहार का “महा-गठबंधन” सूत्र (Formula) न सिर्फ़ भाजपा को पीछे ले गया बल्कि बिहार में 2005 से 2015 तक घुटनों के बल रेंग रहे ‘राजद’ को ज़िंदा कर दिया । जय-प्रकाश के “सम्पूर्ण-क्रांति” के बाद बिहार में अपने अस्तित्व को बचाए रखने का संघर्ष करने वाली “कोंग्रेस-पार्टी” ने भी बहती गंगा में स्नान करते हुए पिछले 20 साल में अपने सर्वश्रेष्ठ सीटों के आँकडों को छू लिया । 40 सीटों पर चुनाव लड़ते हुए 27 पर जीत हासिल करना लगभग 70 % की सफलता कोंग्रेस के लिए न कवेल गर्व का विषय है बल्कि इस सफलता के पीछे छिपे ‘महा-गठबंधन-सूत्र’ को चिन्हित करने की भी ज़रूरत है ।
नीतीश कुमार की JDU ने भले ही 2 वर्षों के बाद लालू प्रसाद के RJD से रिश्ता तोड़ कर भाजपा के सुशील-मोदी से ‘राजनैतिक-निकाह’ कर लिया हो पर लालू के दोनो सुपुत्र समेत सम्पूर्ण RJD परिवार को पुनः जीवित होने का एक बड़ा अवसर प्रदान किया । लालू प्रसाद के बीमार, बुढ़ापेऔर जेल के कारण सम्पूर्ण RJD परिवार के इस नए जीवन को जीवंत रखने की ज़िम्मेदारी और जवाबदेही अब “तेजस्वी यादव” के कंधे पर डाल दिया गया है । वे पार्टी के आंतरिक कलह, वैचारिक आधार और अन्य पार्टियों के साथ होने वाले गठबंधन-धर्म को निभाते हुए जनता का विश्वास कितना जीत पाते है यह तो आगामी चुनाव के परिणाम से ही पता चल जाएगा ।
2020 विधान सभा चुनाव
2020 विधान-सभा चुनाव के परिणाम को लेकर कोई सटीक भविष्यवाणी करना बिहार की जनता के राजनैतिक सूझ-बूझ के साथ बेमानी करने सा प्रतीत होता है । इतना जटिल, पेचीदा और इतने सारे सियासी खेमे को बिहार की जनता किस तरह स्वीकार करती है यही अपने आप में बड़ा प्रशन है ?
वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की बात करें तो, पिछले 15 साल से बिहार की कुर्सी पर विराजमान “नीतीश कुमार” को एक ख़ेमा “सुशासन बाबू” तो दूसरा ख़ेमा “कुर्सी-कुमार” के नाम से जानता है । बिहार की जनता (ख़ास कर युवा) यह समझ चुकी है कि विकास का मतलब सिर्फ़ “निर्माण करना” ही नही होता बल्कि रोज़गार से लेकर शिक्षा और स्वास्थ जैसे ज़मीनी मुद्दों से जनता को लाभान्वित करना भी होता है । नीतीश कुमार की सबसे बड़ी ताक़त उनकी ऐसी राजनैतिक छवि है कि 15 साल से संघ और भाजपा की गोद में बैठने के बावजूद यदि आज भी वे संघ(भाजपा) का साथ छोड़ दे तो मुस्लिम समुदाय का एक बहुत बड़ा तबका इन्हें सर-आँखो पर बिठा लेगा । (अपवाद – वैसे मुसलमान जो लालटेन को अपने गले में लटका कर घूम रहें है वो संभवतः नीतीश को स्वीकार नही करें) । यह भी सत्य है कि – CAA, NPR और NRC जैसे मुद्दों पर भाजपा का साथ देने पर मुस्लिम समाज का एक बड़ा वर्ग नाराज़ चल रहा है, जिसका फ़ायदा निःसंदेह RJD के नेता “तेजस्वी यादव” को मिलने की पूरी सम्भावना है। CAA, NPR और NRC जैसे राष्ट्रीय मुद्दे तेजस्वी के लिए दो-धारी तलवार की तरह है । मुस्लिम समाज का एक बड़ा वर्ग इन मुद्दों को अपनी अस्मिता और अस्तित्व से जोड़ कर देख रहा है और कुछ अर्थों में दलित वर्ग भी इसके विरोध में मुस्लिम समाज के साथ खड़ा है । वही दूसरी तरफ़ भाजपा ‘हिंदू-बहुसंख्यकों’ को इसके समर्थन के लिए लगातार एक-जुट करने की कोशिश कर रहा है । इसमें तेजस्वी यादव के लिए सबसे बड़ी चुनौती यह है कि :- खुल कर इन मुद्दों का विरोध करने से जहाँ एक तरफ़ मुसलमान आकर्षित होंगे तो दूसरी तरफ़ यादव समेत हिंदू वोट-बैंक के नाराज़ होने का ख़तरा है । ऐसी परिस्थिति में तेजस्वी यादव अपने सलाहकारों की बात मानते हुए केजरीवाल के रास्ते पर चलते हुए विकास के मुद्दों पर “बेरोज़गारी हटाओ यात्रा” पर निकल चुके हैं ।
यात्राओं की बात करें तो, बिहार में एक तरफ़ लोक-जन-शक्ति पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन चुके और जमुई के युवा सांसद “चिराग़ पासवान” ने “बिहार-फ़र्स्ट बिहारी-फ़र्स्ट” नामक यात्रा से बिहार की राजनीति में अपना ठोस कदम रखा है । वहीं छात्र राजनीति से उभरे, CPI के नेता “कन्हैया कुमार” कोंग्रेस पार्टी के साथ मिल कर पुरे प्रदेश में “जन-गण यात्रा” कर रहें हैं । कन्हैया अपनी यात्राओं में CAA, NPR और NRC का विरोध करते हुए केंद्र की भाजपा सरकार का पुरज़ोर विरोध कर रहें हैं, परंतु बिहार की आगामी राजनीति को ले कर वो न तो ‘नीतीश कुमार’ और न ही ‘तेजस्वी-यादव’ पर कोई बयान दे रहे हैं ।
तेजस्वी, कोंग्रेस के साथ है, कोंग्रेस, कन्हैया के साथ है मगर कन्हैया- तेजस्वी एक साथ नही है । यहाँ पर प्रश्न यह उठता है कि – तेजस्वी को कन्हैया के बढ़ते क़द की चिंता हो रही है या कोंग्रेस तेजस्वी से अलग कन्हैया के साथ अपनी आगे के राजनीतिक सम्भावनाओं को तलाश रही है । CAA, NPR और NRC का खुल कर विरोध करने के कारण मुस्लिम समुदाय का एक बड़ा वर्ग कन्हैया के साथ खड़ा है जिसे कोंग्रेस महसूस कर रही है और तेजस्वी के लिए यह चिंता का विषय है ।

दूसरी तरफ़ बिहार के सियासत में नीतीश कुमार की चिंता को “प्रशांत किशोर” ने बढ़ा दिया है । चुनावी विश्लेषक और चुनावी प्रवन्धक के रूप में अपनी पहचान बनाने वाले “प्रशांत किशोर” नीतीश कुमार से दूर हुए ही थे कि – बिहार में सता से दूर बैठे कूछ नेता जैसे – पप्पू यादव, जीतन-राम माँझी, उपेन्द्र कुशवाहा और मुकेश सहनी उन्हें अपने खेमे में करने में जुट गए हैं । ये सभी विपक्ष की राजनीति कर रहे नेता “प्रशांत किशोर” से तीसरे मोर्चे को मज़बूत बनाने के क़यास में लगे हैं । बिहार में मुख्य विपक्षी दल RJD में जहाँ एक तरफ़ “तेज-प्रताप” ने “PK” का स्वागत किया है तो वहीं दूसरी तरफ़ “तेजस्वी यादव” ने “PK” को सिरे से नकार दिया है।
RJD के इस आंतरिक कलह को जनता बड़े ध्यान से देख और समझ रही है । निःसंदेह इसका नकारात्मक परिणाम तेजस्वी यादव को उठाना होगा । यह एक बहुत बड़ी वजह है कि – बिहार की वर्तमान राजनीति में विपक्ष न तो एक-जुट हो रहा है और न ही अन्य विपक्षी दल “तेजस्वी” के नेतृत्व में चुनाव लड़ने को राज़ी हो रहें हैं । इसी ऊहापोह पर गम्भीरता से नज़र बनाते हुए “नीतीश कुमार” चुप-चाप भाजपा के साथ अपना गठजोड़ बनाए हुए हैं । भाजपा भी “झारखंड और दिल्ली” के चुनाव में अपनी असफ़लता को देखते हुए बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व में चुनाव लड़ने को उत्सुक दिख रही है ।
2020 संभावनाएँ :
सियासी संभावनाओं की इस धरती पर न जाने कितने तोड़ और कितने गठ-जोड़ बन सकते है इसकी कल्पना करना ख़ुद में एक चुनौती के समान है ।
बिहार का चुनावी समीकरण के दो पहलू हो सकते हैं :-
पहला : नीतीश भाजपा के साथ NDA (JDU+ BJP+ LJP)
इस सम्भावना में पहली स्थित यह हो सकती है कि – एक तरफ़ NDA होगा, दूसरी तरफ़ महा-गठबंधन (RJD+CONG+RLSP+HUM+VIP)॰ पप्पू यादव की ‘JAP’ और AIMIM अपना रास्ता देख ले क्यूँकि तेजस्वी यादव JAP के सुप्रीमो पप्पू-यादव को महागठबंधन में शामिल नही करना चाहते है । NDA, पप्पू यादव को खुद में शामिल करने से बेहतर स्वतंत्र लड़ते देखना चाहती है ।
इसी सम्भावना में दूसरी स्थित यह हो सकती है – महा-गठबंधन की सभी पार्टी RJD (तेजस्वी) को छोड़ कर पप्पू यादव को लेकर एक तीसरा मोर्चा बना ले और LJP के मौसम वेज्ञानिक राम-विलास NDA छोड़ कर इसमें शामिल हो जाए । जिसकी सम्भावना बहुत ही कम है क्यूँकि ऐसा होने से RJD स्वतंत्र चुनाव लड़ेगी और इसका सबसे ज़्यादा फ़ायदा NDA को होगा ।
दूसरा :- नीतीश (JDU) भाजपा से अलग हो जाए ।
नीतीश कुमार का भाजपा से अलग होना मुश्किल नज़र आता है। मगर अंदर-खाने भाजपा, नीतीश से अलग होने की राह ज़रूर तलाश कर सकती है यदि उसे अपने उम्मीदवार को “मुख्यमंत्री” की कुर्सी पर बिठाना है, मगर उसके लिए भाजपा को राम-विलास पासवान की LJP के अतरिक्त बिहार में उपेन्द्र कुशवाह की RLSP, जीतन राम माँझी की HUM, और मुकेश सहनी की VIP जैसे दलों को साथ लेना होगा और साथ ही साथ बिहार के चुनाव में कुछ ऐसे दलों को खड़ा करना होगा जो RJD और कोंग्रेस के गठ-जोड़ के मज़बूत वोट-बैंक से कुछ वोट चुरा कर इस जोड़ी को कमज़ोर कर सके ।
मगर BJP यदि “नीतीश कुमार” से अलग होती है तो उसे इस बात का भी ख़तरा है कि – नीतीश या तो फिर से पलट कर RJD और कोंग्रेस के साथ गठबंधन न कर ले । यदि तेजस्वी नीतीश से गठबंधन नही भी करते है तो दूसरा ख़तरा यह है कि – नीतीश ने अगर तेजस्वी को छोड़ कर कोंग्रेस, RLSY, HUM, VIP और पप्पू-यादव की JAP से गठजोड़ कर लिया तो तेजस्वी की RJD को बहुत नुक़सान होगा और भाजपा का तो बुरा हाल हो जाएगा है ।
लेखक टिप्पणीकार और सहायक प्रोफेसर हैं, राजनीती पर पैनी नज़र रखते हैं- जनघट नाम से एक संस्था भी चलाते हैं- लेखक से संपर्क करें-janghatfoundation@gmail.com