कचरे की राख पर हाथ तापते हुए सरकारी गर्मी का अनुभव कर रहे नागरिक

ग्राम वाणी फीचर्स 

ठंड और अलाव का गहरा रिश्ता है. जैसे जैसे ठंड अपने तेवर दिखाती है शहरों में ठण्ड से बचने के लिए हीटर , ब्लोअर तो कहीं अंगीठी जलना शुरू होजाता है लेकिन ग्रामीण परिवेश में सार्वजनिक स्थानों पर प्रसाशन द्वारा अलाव की जरूरत बढ़ जाती है,  इसके विशिष्ट गुणों का कायल लोकतंत्र का हर वर्ग है वहीँ कई विशेषज्ञ प्रवरं का हवाला देकर इसकी खामियां भी गिनाते हैं. मीडिया के लिए यह खबर है, शोध का विषय है ,जनहितकारी बनाने का एंगल भी तलाशना है , क्यों जिन गरीब आबादी की हम बात करने जा रहे हैं उनके बीच सुविधाओं का घोर आभाव है ऐसे में अगर अलाव भी न हो तो कई लोग जिंदगी की जंग हारते नज़र आयेंगे, दिलचस्प बात यह है की अलाव जले तब भी ना जले तब भी. नेताओं व हाकिमों को अखबार के पन्ने पर छपने का मौका है. छुटभैये सरकारी कारिंदों के लिए यही अलाव महंगाई के दौर में साग-सब्जी का इंतजाम करता है. लेकिन जिनके लिए यह अलाव जलना होता है उन तक तो आग की तपिश पहुंचने से पहले ही राख हो जाती है. 

असल में स्थानीय प्रशासन की जिम्मेदारी है कि वह अपने नागरिकों के लिए सार्वजनिक स्थानों पर ठंड के मौसम में अलाव की व्यवस्था करे. चौक—चौराहों पर कम से कम इतना अलाव तो रहे कि फुटपाथ पर सोने वालों की रात गुजर जाए. पर होता ये है कि ठंड में फुटपाथ पर सोने वाला गुजर जाता है और तपिश उस तक पहुंच भी नहीं पाती. कुछ एक जगहों को छोड़ दिया जाए तो हर जगह से हर साल यही शिकायत मिल रही है कि अलाव क्यों नहीं जला रहे हो? ठंड बहुत है…!

वादियों वाली ठंड, पठारों वाली ठंड, मैदानी ठंड आदि ठंड के जैसे अलग-अलग रूप होते हैं. ठीक उसी तरह अलाव के भी कई रूप हैं. कुछ अलाव घरों में जलते हैं. इस अलाव को जलाने में घर का आटा गीला होता है. कुछ अलाव दफ्तरों में जलते हैं. इस अलाव में पुरानी व ऊपर-नीचे की कारगुजारियां उजागर करने वाली फाइलों के अलावा कार्यालय के टूटे-फूटे फर्नीचर शहीद होते हैं. सबसे महत्वपूर्ण अलाव या यूं कह लें कि जिसकी वजह से इसे राष्ट्रीय पहचान मिली, वह है चौक-चौराहों पर जलने वाला सरकारी अलाव..! जो जलाया जाता है गरीबों के नाम पर. नाम पर इसलिए कह रहे हैं क्योंकि जिनके लिए यह जलाया जाता है उन्हें इसका लाभ नहीं मिल रहा है.

मोबाइलवाणी पर गाजीपुर से रमेश सोनी कहते हैं कि यूपी के हाड कंपा देने वाली ठंड है. लेकिन प्रशासन ने इस साल कहीं भी अलाव नहीं जलवाए हैं. गरीब फुटपाथ पर फटी चादर लपेटे पड़े हुए हैं पर उनकी परवाह किसी को नहीं. ग्राम प्रधानों का कहना है कि अधिकारियों न उनके खातों में अलाव के लिए पैसा नहीं डाला है. अधिकारियों का कहना है कि पैसे डालने की व्यवस्था की जा रही है पर सवाल ये है कि क्या अलाव गर्मियों में जलाए जाएंगे? एक अनुमान के मुताबिक नवम्बर 2020 से अब तक प्रदेश में करीब 45 लोगों की ठंड से मौत हो चुकी है. ये सभी वे थे जिनके सिर पर छत नहीं है यानी बेसहारा इंसान लाभ से वंचित हैं ,न इनके लिए रैनबसेरा न ही आलव का इंतज़ाम. 

कुछ भला चाहने वाले शहरों के एक-आध दर्जन स्थानों पर अलाव सुलगाने के लिए प्रशासन से लेकर आपदा प्रबंधन विभाग तक सक्रिय रहता है. जब तक दो चार गरीबों की ठंड से मौत ना हो जाए प्रशासन अलाव जलाने की जहमत नहीं उठाता. समस्तीपुर से आनंद ​कुमार चौधरी कहते हैं कि जनवरी के पहले सप्ताह से ही शीत लहर चल रही है. जब से पहाड़ी इलाकों के बर्फबारी हुई है बिहार के हर कोने में तेज ठंड महसूस की जा रही है पर इन सबके बीच प्रशासन ने गरीबों की सुध लेना बंद कर दिया है. चौराहों पर गरीब परिवार मिलकर कचरा जला रहे हैं और उसकी आग में हाथ सेंककर रात गुजार रहे हैं.

मुंगेर से विपिन कुमार ने मोबाइलवाणी पर अपने क्षेत्र का हाल बताते हुए कहा कि पछुआ हवाओं के कारण हर साल बिहार में गरीबों की हालात खराब हो जाती है. बाकी लोग तो अपने घरों के दरवाजे बंद कर लेते हैं पर झुग्गियों में रहने वाले गरीब परिवार के बच्चे दिनभर कागज और कचरा बीनते हैं ताकि रात को ठंड से बचने का इंतजाम हो सके. ऐसा नहीं है कि प्रशासन के पास अलाव की व्यवस्था का बजट नहीं हैं पर गरीबों के लिए अलाव ना जलाया जाना कई सवाल पैदा करता है!

ऐसी ही बदत्तर हालत में जी रहे हैं समस्तीपुर के खानपुर क्षेत्र के गरीब परिवार. मोबाइलवाणी पर क्षेत्र के लोगों ने अपनी बात रिकॉर्ड करते हुए कहा कि प्रशासन के पास आपदा प्रबंधन  कोष के तहत अलाव जलाने के लिए अतिरिक्त राशि का आवंटन होता है. जब पता है कि हर साल बिहार में कई लोग ठंड से मर जाते हैं तो फिर प्रशासन उस कोष का इस्तेमाल क्यों नहीं करता? स्थानीय लोगों की बात से जाहिर है कि वे आपदा प्रबंधन कोष के बारे में जानकारी रखते हैं पर दुख की बात ये है कि अधिकारियों के कानों पर जूं तक नहीं रेंग रही है. हवेली खडगपुर से अंकित राज बताते हैं कि लॉकडाउन के बाद से गरीबों की स्थिति पहले से भी ज्यादा खराब हो गई है. बहुत से मजदूर हैं जो काम की तलाश में दूसरे शहरों में पहुंच रहे हैं लेकिन इनके पास रहने के लिए प्रशासन के रैन बसेरे तक नहीं हैं. जबकि नियमानुसार हर साल ठंड के मौसम में गरीबों के लिए रैन बसेरा और अलाव की व्यवस्था करना सरकारी जिम्मेदारी है. 

असमय होने वाली मौतों की बात करें तो हर मौसम की अति होने पर लोगों के मरने की खबरें सबसे ज्यादा बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड जैसे राज्यों से आती हैं. हकीकत यह है कि लोग मौसम की अति से नहीं मरते हैं, वे मरते हैं अपनी गरीबी से, अपनी साधनहीनता से और व्यवस्था तंत्र की नाकामी या लापरवाही की वजह से.  ‘सेंटर फॉर होलिस्टिक डेवेलपमेंट’ (सीएचडी) की रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली में सर्दी के सितम से जनवरी के पहले पखवाड़े में ही 96 बेघर लोगों की मौत हो गई. सीएचडी की अध्ययन रिपोर्ट के यह आंकड़े सिर्फ दिल्ली के हैं. अगर समूचे पूर्वोत्तर और पश्चिमोत्तर भारत के आंकड़े इकट्ठे किए जाए तो हर साल सर्दी से मरने वालों की संख्या हजारों में पहुंचती है. करोड़ों लोग आज भी फुटपाथों, रेलवे स्टेशनों और बस अड्डों पर या टाट और प्लास्टिक आदि से बनी झोपड़ियों में रात बिताते हैं. बहुत से लोगों के पास तो पहनने को गरम कपड़े या ओढ़ने को रजाई-कंबल तो दूर तापने को सूखी लकड़ियां तक उपलब्ध नहीं हैं. ऐसे लोगों को मौसम की मार से बचाने के लिए अदालतें हर साल सरकारों और स्थानीय निकायों को लताड़ती रहती है, लेकिन सरकारी तंत्र की मोटी चमड़ी पर ऐसी लताड़ों का कोई असर नहीं होता.

भारत में सुप्रीम कोर्ट राज्य सरकारों को आदेश दे चुका है कि वह बेघर लोगों को संतोषजनक ठिकाना मुहैया कराएं. बिहार इस साल आई बाढ़ से 12 ज़िलों के 101 प्रखंडों की 837 पंचायतों के क़रीब 30 लाख लोग प्रभावित हुए थे. जिनमें से 2 लाख से ज्यादा लोग बेघर हो गए. यह संख्या हर साल बढ जाती है यानि यही लोग हैं जो हर साल ठंड में फुटपाथ पर आ जाते हैं. दूसरे राज्यों की स्थिति भी ऐसी ही है. रांची से एक श्रोता ने बताया कि जिले में गरीबों को सरकार की ओर से बांटे जाने वाले कंबलों की संख्या कम कर दी है. यह शिकायत खुद वहां की वार्ड पार्षद रीमा देवी कर रही हैं. रीमा कहती हैं कि राज्य सरकार ऐसा कर सकती है तो सोचिए प्रशासन क्या करेगा? पार्षद प्रशासन की सबसे निचली ईकाई पर हैं, जो सीधे तौर पर जरूरतमंदों के संपर्क में हैं पर वे बेबस हैं. 

आप सब को याद होगा जब कोरोना काल में लॉक डाउन से प्रभावित लोगों ने , माकन मालिकों के दवाव के कारन मकान खली कर हजारों किलोमीटर पैदल चल पड़े , कईयों ने सडक दुर्घटना , तो कईयों ने रेल दुर्घटना में अपनी जान गंवाई , जिन परिवारों के लिए अकेला आजीविका का साधन हो वो नहो तो उसकी हार तोड़ सर्दी ने कैसे प्रभावित किया होगा , ऐसे कई परिवार हैं जिनकी नौकरी चली गयी , कंपनी से जबरदस्ती निकाल दिया गया , गाँव से शहर दोबारा वापस आगये की कुछ काम मिलेगा लेकिन शहर में भी काम नहीं ऐसे में शहर में सडक पर खुले आसमान , पुल के निचे तो सडक ने बीच और किनारे बने फूटपाथ पर ही रात गुजरने वालों के लिए सरकार के वादे के मुताबिक अफोर्डेबल हाउसिंग काक्या हुआ?, गरीब परिवार कचरे की राख पर हाथ तापते हुए सरकारी गर्मी का अनुभव कर रहे हैं. जब से देश में ‘जनता का राज’ आया, ठंड में ऐसे ही अलाव जलाए जा रहे हैं. इस साल भी ऐसे ही कागजी अलाव जले और बुझ गए… जबकि ठंड अभी बाकी है…!