‘आर्टिकल 15’ देखने जा रहे हैं तो संवादों को ध्यान से सुनिएगा

“मैं राइटर बनना चाहता था… और साइंटिस्ट भी… फिर सोचा कि शायद साइंस का राइटर बन जाऊंगा। कुछ भी न हुआ साला! क्योंकि पैदा जहां हुआ वहां पैदा होना ही एक भयानक एक्सीडेंट जैसा था।”

ये ‘आर्टिकल 15’ के एक अहम किरदार दलित नेता निषाद (जीशान अयूब) के भीतर चल रहा संवाद है। उसे गोलियों से छलनी किए जाने से ठीक कुछ समय पहले चल रहा संवाद।

दृश्य बदलता है।

महंत मंच से आह्वान कर रहे हैं, “जाति कोई भी हो लेकिन हिन्दुओं के एक होने का वक्त है ये… और सही दुश्मन पहचानने का भी वक्त है ये…”

दृश्य फिर बदलता है…

“जितने लोग बार्डर पर शहीद होते हैं उससे ज्यादा गटर साफ करते हुए हो जाते हैं… पर उनके लिए तो कोई मौन तक नहीं रखता… ” बंधक बनाकर ले जाए जा रहे निषाद के भीतर आत्ममंथन चल ही रहा है, “कभी मुझे कुछ हो गया तो आप लोगों को गुस्सा आएगा… उसी गुस्से को हथियार बनाना है लेकिन उसके अलावा कोई हथियार बीच में नहीं आना चाहिए दोस्तों! क्योंकि जिस दिन हम लोग हिंसा के रास्ते पर चले इनके लिए हमें मारना और भी आसान हो जाएगा।”

फिल्म का नायक दरअसल निषाद को होना था। वह फिल्म के छोटे से हिस्से में अपने समूचे नायकत्व के साथ आता है और याद रह जाता है। उसके स्वयं से चल रहे संवाद याद रह जाते हैं।

दरअसल अनुभव सिन्हा और गौरव सोलंकी की लिखी फिल्म ‘आर्टिकल 15’ का हर संवाद सुने जाने लायक है। छोटे-छोटे दृश्यों और निरंतर चलने वाले संवादों से बुनी गई यह एक बड़ी फिल्म है। संवादों का इस फिल्म मे एक सिलसिला है। छोटे-छोटे इन मारक संवादों का कोलाज एक कालिमा से भरी तसवीर में बदल जाता है।

ये संवाद उसी वक्त से शुरू हो जाता है जब अयान रंजन (आयुष्मान खुराना) बॉब डिलन को सुनते हुए लखनऊ एक्सप्रेस-वे से गुजर रहा है। “How many roads must a man walk down / Before you can call him a man? / How many seas must a white dove sail, / Before she sleeps in the sand?” कैमरा उसके फोन के बगल में रखनी किताब पर हल्का सा फोकस करते हुए पहली बार नायक की तरफ मूव होता है।

और यह किताब है जवाहरलाल नेहरू की ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’। यह अयान के भीतर बसा भारत है। लेकिन गाड़ी उसको किसी और भारत में लेकर जा रही है। फिल्म में वह लगताार अपनी दिल्ली में रहने वाली मित्र से चैट के जरिए संवाद करता रहता है। अयान सेकेंड जेनरेशन अफसर है। चर्चा में हम जान जाते हैं कि अयान के पिता आइएफएस थे। रिटारमेंट के बादकिताब लिखी। अयान की पढ़ाई विदेश में हुई है। पनिश्मेंट पोस्टिंग में लालपुर आ गया। जहां से उसे वह भारत देखना है जो ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ के भारत से अलग है।

और यह एक अलग दुनिया है। यूँ कहें तो यही असल दुनिया है। जहां तीन रुपये मजदूरी बढ़ाने की मांग करने पर लड़कियों का रेप करके उन्हें पेड़ से लटका दिया जाता है।

हर संवाद, हर बात इस फिल्म को खोलती है। यह अनुभव सिन्हा की खूबी बनती जा रही है। मुल्क में उन्होंने ‘हम’ और ‘वो’ की पड़ताल की थी तो इस फिल्म में ‘उन लोगों’ की पड़ताल करते हैं। ‘इनका रोज का प्राब्लम है’, ‘ये सब ऐसे ही हैं’, ‘इन लोगों का कुछ नहीं हो सकता’… हम हर रोज कितनी आसानी से सुनते हैं। लेकिन अनुभव सिन्हा इसे चुभने वाले शब्द बना देते हैं।

धीरे-धीरे ये शब्द दृश्य में बदलने लगते हैं। सुबह के धुंधलके में लटकी लाशें, दबाव में बनाए जा रहे बयान, गलत पोस्टमार्टम रिपोर्ट, लड़कियों के साथ रेप और धीरे-धीरे एक नेक्सस का सामने आना। जो न सिर्फ भयावह है बल्कि उसकी जड़ें इतनी गहरी हैं कि पता लगाना मुश्किल है कि एक सिरे का दूसरा छोर कहां पर है।

अनुभव सिन्हा ने इस फिल्म में अद्भुत दृश्य रचे हैं। धुंध में पेड़ से लटकी लड़कियों के दृश्य में भागकर एक बच्चे का आ जाना। गटर के भीतर गोता लगाकर निकलता सफाईकर्मी। कचरा खाकर बीमार हुए कुत्ते की चिंता करते ब्रह्मदत्त सिंह। और सबसे बढ़कर सुअरताल। यह अपने-आप में एक किरदार बन गया है। गंदे पानी और कचरे के इस ताल में लाश खोजते पुलिस वालों का फिल्मांकन अद्भुत है।

आर्टिकल 15 इसलिए एक बड़ी फिल्म बन जाती है क्योंकि यह फिल्म लोगों को खलनायक नहीं बनाती है। वह मानसिकता पर प्रहार करती है। लड़कियों का रेप करने वाला पुलिसवाला निहाल सिंह ग्लानि में ट्रक के नीचे आकर सुसाइड कर लेता है।

फिल्म खलनायकों से धीरे-धीरे हटती है और सिस्टम की परतें खोलती है। सिस्टम की परतों में सदियों से चली आ रही जाति-व्यवस्था की सडांध सामने आती है।

अयान पूछता है, ‘कौन कर रहा है वायलेंस सर? कभी कभी बाहर दिखने वाले वायलेंस के पीछे एक ऐसा वायलेंस होता है जिसके बारे में कोई बात नहीं करता। वो हमारी सभ्यता का हिस्सा बन जाता है। उसे हम हिंसा नहीं कहते… सामाजिक व्यवस्था कहते हैं।’

“आग लगी हो तो न्यूट्रल रहने का मतलब यह होता है सर कि आप उनके साथ खड़े हैं जो आग लगा रहे हैं! ”

“हमारे कमोड्स में अब जेट स्प्रे लग गए हैं सर… पर ये आज भी मेनहोल में सफाई के लिए नंगे उतरते हैं, मादरजात नंगे…”

अनुभव की फिल्म के ये सभी संवाद तीर की तरह कलेजे में चुभते हैं। इनकी चुभन को साथ लेकर हाल से निकलना होगा।

शायद इसीलिए यह फिल्म कई सालों से बदल-बदलकर रचे जा रहे एक मार्मिक गीत से शुरू होती है –

कहब त लाग जाइ धक से
कहब त लाग जाइ धक से
बड़े बड़े लोगन के महला-दुमहला
और भइया झूमर अलग से
हमरे गरीबन के झुग्गी-झोपड़िया
आंधी आए गिर जाए धड़ से
बड़े बड़े लोगन के हलुआ पराठा
और मिनरल वाटर अलग से
हमरे गरीबन के चटनी औ रोटी
पानी पीएं बालू वाला नल से
कहब त लाग जाइ धक से

दिनेश श्रीनेत