आपदा में अवसर और बिहार की राजनीति

प्रेमकुमार मणि

महामारी में खबरें महामारी से भी खौफनाक हैं। हमारे बिहार का मंजर यह है कि गंगा पर बेशुमार इंसानी लाशें तैर रही हैं। अस्पताल में पीड़िता की पत्नी से छेड़खानी की जाती है। ऑक्सीजन केलिए तड़पा -तड़पा कर उसके दाम की बोली लगवाई जा रही है। रोगियों के मृत शरीर उनके परिजनों को सौंपने केलिए उनसे कीमत वसूल हो रही है। लकड़ी व्यवसायी से लेकर श्मसान के कारिंदे मनमानी रकम वसूल रहे हैं। रेमिडेसिविर से लेकर आवश्यक दवाओं की कालाबाज़ारी की करतूतें किसी को भी गुस्से से भर सकती हैं। यह भी सही है कि जो खबरें मिल रही हैं ,वे वास्तविक खबरों का एक छोटा हिस्सा भर हैं। बानगी कह सकते हैं। सम्पूर्ण सत्य की केवल कल्पना ही की जा सकती है।

हम ऐसे पोस्ट ट्रुथ के दौर में जी रहे हैं ,जहाँ सत्य भी अपना वजूद खो चुका है। लोग झूठ को सच और सच को झूठ मानने की जिद कर रहे हैं। प्रधानमंत्री ने पिछले ही साल एक नारा दिया था – आपदा में अवसर की तलाश का। हर होशियार आदमी इस काम में लग गया है। महामारी ने लुटेरों को एक बड़ा अवसर दिया है। सब लोग अपने -अपने तरीके से इसका उपयोग कर रहे हैं।

खुर्राट खूंखार भेड़िये भी अपनी माँदों से निकल कर मय कैमरा -पत्रकार खैरात बाँटने निकल पड़े हैं। छवि सुथराने का इससे बेहतर अवसर उन्हें कब मिलता? जनता तो जनता होती है। हिंदुस्तानी राजनीति का इशारा यही है कि जब गोधरा के खून -खराबे को भूल कर भारत की जनता किसी को प्रधानमंत्री बना सकती है ,तो दो -चार -दस अपराध को वह कैसे नहीं भूलेगी। प्रचार में बहुत ताकत होती है। इस के बूते कोई भी महान और मर्यादा -पुरुषोत्तम बन सकता है।

दूसरा पक्ष सफेदपोश ‘ महानुभावों ‘ का है ,जो सांसद हैं और सांसद -निधि के धन से दर्जनों एम्बुलेंस खरीद कर अपनी ड्योढ़ी की शोभा बढ़ा रहे हैं ,या उसका दुरुपयोग कर रहे हैं। यह तब जब लोग अपने बीमार परिजनों को अस्पताल ले जाने केलिए रिक्शे -ठेले और खाट -खटोले का इस्तेमाल करने केलिए विवश हैं। हम कैसे ज़माने में जी रहे हैं, वह सांसद सत्ता पक्ष का ओहदेदार है। पूर्व केंद्रीय मंत्री और राष्ट्रीय प्रवक्ता के तमगे उसकी छाती पर टंगे हैं। कोई भी हैरान हो सकता है कि यह सब आखिर हो कैसे रहा है। कोई भी जानता है कि स्टिंग ऑपरेशन कितना जायज है। लेकिन कोई गलत करने वाला कैसे दावा कर सकता है कि उसका ऑपरेशन गलत है।

सांसद -विधायकों को लोक -कल्याण केलिए सरकारें धन मुहैय्या कराती हैं। लेकिन इसमें सांसद -विधायक की भूमिका सिफारिश भर की होती है। निधि का संचालन और कार्य संपादन अधिकारियों द्वारा होता है। वे एम्बुलेंस यदि सांसद के घर पर जमा हैं, तो जिलाधिकारी और दूसरे अधिकारी भी इसके लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार हैं ,सांसद तो हैं ही। इन सब पर प्रथमद्रष्टया आपराधिक मुकदमा बनता है। क्योंकि सांसद निधि के पैसे जनता के हैं ,वह सांसद की बपौती नहीं है।

अब एम्बुलेंस -बेड़े को लोगों के सामने लाने वाले व्यक्ति को ही बिहार की पुलिस गिरफ्तार कर रही है। स्वाभाविक है ,उसके अतीत को भूल लोग उसके समर्थन में खड़े हो गए हैं। जनता ऐसी ही होती है। मेरी दृष्टि से यह कहीं अधिक भयावह खबर है। सरकार इतनी भोली भी नहीं है। इसके पीछे की कुटिल राजनीति को समझा जाना चाहिए। सरकार आखिर चाह क्या रही है ? लोग ऐसी खबरों में उलझे रहें और उसकी नाकामियों पर लोगों का ध्यान न जाय।

मैं लोगों से विनम्रता से कहना चाहूँगा, इस आपदा की स्थिति में भी अपने विवेक को संभाल कर रखें। ये सरकार तो आपके साथ नहीं ही है ,लेकिन सरकार निदेशित नाटक में आप उलझ नहीं जाएं। बचपन में एक कहानी सुनी थी कि किसी को दंड स्वरुप सौ प्याज खाने ,सौ जूते खाने या फिर सौ रुपये अदा करने की सजा में से किसी एक को चुनने का अवसर मिला। दंडित व्यक्ति ने अपनी विवेकहीनता से कुछ प्याज भी खाये, हालत ख़राब होने तक जूते भी खाये और अंततः सौ रूपए भी अदा किए। ऐसी गलती जनता न करे ,यही निवेदन है।

(लेखक बिहार विधान परिषद् के पूर्व सदस्य रहे हैं )