अगर प्रशासन चाह ले तो ना हाशिमपुरा होगा न गुजरात 2002 होगा

अंकित द्विवेदी

दिल्ली से मेरठ जाने वाली सड़क पर एक रात अचानक गाजियाबाद के एसपी और डीएम यूपी के मुख्यमंत्री का काफ़िला रोकते हैं। जिनके आगमन की सूचना दोनों अधिकारियों को पहले से थी। काफ़िला रुकते ही एसपी और डीएम दौड़ते हुए सीएम के पास पहुंचते हैं। मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह पिछली सीट पर सो रहे होते हैं। नींद से जगे मुख्यमंत्री के बगल में डीएम नसीम जैदी बैठ जाते हैं। अगली सीट पर मुख्यमंत्री की सुरक्षा में लगे सुरक्षाकर्मी को एसपी किसी दूसरी गाड़ी में जाने का इशारा करके खुद वहां बैठ जाते हैं। अब तक मुख्यमंत्री समझ चुके थे कि कोई गम्भीर मसला है। घटना ऐसी थी कि डीएम कुछ बोल नहीं पा रहे थे या उनका बोलना शायद ठीक नहीं था। एसपी विभूति नारायण राय ने घटना का विवरण मुख्यमंत्री को देते हुए बताया कि पीएसी ने कुछ मुसलमानों को पकड़ कर मार दिया है। जिस पर वीर बहादुर सिंह ने पलट कर पूछा कि पीएसी ने मुसलमानों को क्यों मारा है?

उस रात की दो रात पहले लगभग 9 बजे गाजियाबाद के लिंक रोड थाने के थाना इंचार्ज वी. बी. सिंह को फॉयरिंग की आवाज़ सुनाई देती है। उन्हें और थाने में मौजूद बाकी पुलिसकर्मियों को लगा मकनपुर गाँव में डकैती पड़ी है। फायरिंग की आवाज़ उधर से ही आ रही थी। थाना इंचार्ज उस गाँव की तरफ अपनी मोटरसाइकिल दौड़ाते है। उनके साथ उसी मोटरसाइकिल पर पीछे एक दरोगा और एक सिपाही भी बैठे थे। अभी वो मेन सड़क पर 100 गज आगे बढ़े ही थे कि सामने से तेज़ रफ़्तार से आता हुआ एक ट्रक दिखाई दिया। समय रहते वी. बी. सिंह ने अपनी मोटरसाइकिल सड़क से नीचे नहीं उतारी होती तो ट्रक उन्हें कुचल देता। खुद को बचाते हुए उन्होंने बस इतना देखा कि ट्रक पीले रंग का था, उस पर 41 लिखा हुआ था और उस पर पीछे खाकी कपड़े पहने कुछ लोग बैठे थे। पुलिस वालों ने आसानी से समझ लिया कि अभी जो ट्रक उनके कुचलने वाली थी। वो पीएसी की 41वीं बटालियन की ट्रक थी।

तीनों पुलिस वाले वापस सड़क पर मोटरसाइकिल लाते हैं और एक बार फिर मोटरसाइकिल गाँव की तरफ दौड़ लगाने लगती है। लभगभ एक किलोमीटर पहुंचने पर मोटरसाइकिल की हेडलाइट से जो उन्होंने देखा वो आजाद भारत का सबसे बड़ा हिरासती हत्याकांड का सबूत था। नहर की पटरी पर, झाड़ियों के बीच और पानी के अंदर चारों तरफ शव बिखरे पड़े थे। तीनों पुलिसकर्मी अंदाजा लगाने लगे कि क्या हुआ होगा। इस वक्त इधर से पीएसी का ट्रक क्यों गुजर रहा था? गोलियों की आवाज़ क्यों आ रही थी। घटनास्थल का मुआयना करने पर तीनों पुलिस वाले ये समझ चुके थे कि यहां पड़ी लाशों और रास्ते में दिखे पीएसी के ट्रक में जरूर कोई सम्बंध जरूर है।

गाजियाबाद-दिल्ली मार्ग पर 41वीं बटालियन का मुख्यालय था। रात लगभग 9 बजे बटालियन कैम्पस में रहने वाले अफसर डिनर के बाद लॉन में बैठकर गप्पे लड़ा रहे थे। तभी उन्हें मुख्य द्वारा से ज़ोर-ज़ोर से बहस करने की आवाज़ सुनाई दी। बहस मुख्यद्वार पर तैनात सुरक्षाकर्मी और 41वीं बटालियन के सूबेदार सुरेन्द्र पाल सिंह के बीच हो रही थी। सुरक्षाकर्मी लगातार सूबेदार सुरेन्द्र पाल सिंह को रजिस्टर में एंट्री करके ट्रक अंदर ले जाने कह रहा था। लेकिन अंत में सूबेदार सुरेन्द्र पाल और उसके साथी बिना रजिस्टर में एंट्री के ही कैम्पस के अंदर ट्रक ले जाने में कामयाब रहे।

“मुझे मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह ने मुसलमानों को सबक सिखाने का आदेश दिया था। वो एक बार मेरठ आए थे। हैलीपैड की सुरक्षा ड्यूटी में मैं भी तैनात था। उसी यात्रा में हेलीकॉप्टर से उतरने के बाद वो मुझे इशारे से एक तरफ ले गए और उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रखकर मुझे मुसलमानों को सबक सिखाने का आदेश दिया था। इस घटना की तारीख़ मुझे नहीं याद।” ये बात पीएसी के 41वीं बटालियन के कमांडेंट सूबेदार सुरेन्द्र पाल सिंह ने सीबीसीआईडी के इन्वेस्टिगेशन अफसर एसपी सैयद खालेद रिज़वी को पूछताछ के दौरान बताई थी। जो शायद खुद को बचाने की सुरेन्द्र पाल की एक कोशिश थी।

गाजियाबाद के डीएम – एसपी सहित मुख्यमंत्री की गाड़ी अब मेरठ सर्किट हाउस पहुंच चुकी थी। वहां पहले से डीजीपी सहित तमाम बड़े अधिकारी मौजूद थे। एसपी उस रात की घटना को जब तक अपने सीनियर अधिकारियों से कहते। तब तक वहां मुख्यमंत्री भी पहुंच गए। कमरे में एक बार फिर सन्नाटा छा गया और सीएम ने एसपी की तरफ मुखातिब होते हुए एक बार फिर पूछा… पीएसी ने मुसलमानों को क्यों मारा? एसपी के पास एक बार फिर जवाब नहीं था। कमरे में मौजूद बाकी अधिकारी जिन्हें इस घटना की जानकारी नहीं थी उन्हें एसपी ने पूरी घटना बता दी। मुख्यमंत्री ने एक बार फिर पूछा… पीएसी ने मारा क्यों?

सर्किट हाउस की उस मीटिंग में उस वक्त चर्चा का विषय आज़ादी के बाद के सबसे बड़े हिरासती हत्याकांड के दोषियों को सज़ा दिलाना नहीं था। बल्कि चर्चा का विषय ये था कि मुख्यमंत्री की कुर्सी कैसे बचाई जाए। नौकरशाहों ने चाटूकारिता के हद पार करते हुए तरह – तरह के सुझाव दे डाले। कुछ ने इस घटना में जीवित बचे पीड़ितों को मार देने का सुझाव भी दे दिया। एसपी से सवाल पूछे गए कि वो कैसे विश्वास के साथ कह सकते हैं कि जिन्होंने इस घटना को अंजाम दिया वो पीएस वाले ही थे? पीड़ित की बात पर कैसे यकीन किया जा सकता है? क्या वो (पीड़ित) पुलिस और फौज का फर्क समझते हैं? इस घटना में पीएसी की संलिप्तता को लेकर एसपी विभूति नारायण राय के मन में कोई दुविधा नहीं थी। उनका मानना था कि हमारे हाथ एक बार वो ट्रक लग गया तो हम हत्यारों के साथ सबूत भी जुटा लेंगे। जिस पर मुख्यमंत्री सहित बड़े अधिकारी खामोश रहे। कई अधिकारियों ने मुख्यमंत्री को 1973 का पीएसी विद्रोह भी याद दिला दिया।

मुख्यमंत्री उस रात मेरठ में ही रुके थे। अगले दिन वो दोपहर को गाजियाबाद आने वाले थे। पुलिस लाइन में उनका हेलीकॉप्टर उतरा। वो हेलीकॉप्टर से उतरकर तेजी से अपनी कार के तरफ बढ़े फिर अचानक से वो रुक गए। वहां तमाम बड़े अधिकारी खड़े थे लेकिन उन्होंने भीड़ में से पुलिस लाइन के इंचार्ज रिजर्व इंस्पेक्टर बृज राज सिंह सिसौदिया को अपनी तरफ आने का इशारा किया। करीब आने पर उन्होंने बृज राज सिंह के कंधे पर हाथ रखा और एक तरफ ले जाकर उनसे बात करने लगे। अब तक एसपी को लगने लगा था कि सबसे बड़े हिरासती हत्याकांड की कहानी दुनिया को नहीं पता चल पाएगी।

गाजियाबाद के पुलिस अधीक्षक अब तक इस निर्णय पर पहुंच चुके थे कि अब ये घटना अखबारों में नहीं छपी तो शायद ही कभी दुनिया के सामने आ पाएगी। उन्होंने अपने एक पत्रकार मित्र को फोन मिलाया। जो उस वक्त नवभारत टाइम्स में काम करते थे। देर रात तक दोनों ने मिलकर एक रिपोर्ट तैयार की। अगले दिन पत्रकार साहेब अपने सम्पादक राजेन्द्र माथुर के पास पहुंचे। अब एसपी संतुष्ट थे कि हिरासती हत्याकांड की खबर कल के अखबार में सब पढ़ लेंगे लेकिन अगले 5 दिनों तक उनके पत्रकार मित्र को सम्पादक साहेब टहलाते रहे। अंततः नवभारत टाइम्स में वो ख़बर नहीं छपी। उसके बाद एसपी विभूति नारायण राय ने अपने किसी और मित्र से सम्पर्क किया। जिसके बाद वो खबर संतोष भारतीय के साप्ताहिक अखबार चौथी दुनिया में छपी। जिसमें एसपी की भी जमकर आलोचना की गई थी। इस तरह दुनिया को पहली बार आज़ाद भारत के सबसे कस्टोडियल किलिंग की ख़बर पढ़ने को मिली।

जो शहर सैनिक विद्रोह के लिए मशहूर था। जिस शहर ने स्वतंत्रता संग्राम की पहली बिगुल फूंकी थी। वो उन दिनों दंगों के लिए मशहूर हो गया था। पिछले कई महीनों से मेरठ में साम्प्रदायिक हिंसा का दौर रुक-रुक शुरू हो जाता था। 16 मई 1987 की रात अजय शर्मा की हत्या से दंगा एक बार फिर शुरू हो गया। मेरठ के डीएम के मुताबिक मृतक अजय शर्मा और मुस्लिम मकान मालिक के बीच किराए को लेकर झगड़ा था। जो कई सालों से चल रहा था। मरने और मारने वाले दोनों अलग – अलग धर्मों से थे। इसलिए शहर की फ़िजा एक बार फिर खराब हो गई।

ये वो दिन थे, जब एक देश में उन्माद की लहर थी। राम जन्मभूमि आंदोलन ने दोनों समुदायों के सम्बंध आज़ादी के बाद सबसे ख़राब दौर से गुज़र रहे थे। राजीव गांधी ने शाहबानो प्रकरण के डैमेज को कंट्रोल करने के लिए अयोध्या में मंदिर का ताला खोलवा दिया था। विश्व हिन्दू परिषद ने पिछले दस सालों के परिश्रम से गांव-गांव में शिला-पूजन जैसे कार्यक्रमों के जरिए दोनों समुदायों के बीच के अंतर को इस हद तक पहुंचा दिया था। जहां वो आज़ादी के समय भी नहीं पहुंच सका था। अब दंगे उन शहरों में भी होने लगे थे। जहां 1947 में भी दंगे नहीं हुए थे। जो लोग खुद सड़कों पर आंदोलन या उन्माद में हिस्सा नहीं ले रहे थे। वो अपने दफ्तरों में विश्व हिन्दू परिषद या मंदिर आंदोलन के पक्ष में माहौल बनाने का काम कर रहे थे। ऐसे लोग अख़बार, पुलिस, पीएसी सहित सेना तक में कार्यरत थे। हिन्दी अखबारों में एक – दो अख़बार ही ऐसे थे। जो निष्पक्ष रिपोर्टिंग कर रहे थे।

दो दिन बाद पीएसी के एक हेड कांस्टेबल की बंदूक दंगाईयों द्वारा लूट ली गई। 21 मई को बीजेपी की नेता शकुंतला कौशिक के भांजे प्रभात शर्मा की सुबह हत्या कर दी गई। शकुंतला कौशिक के मुताबिक “मेरा बड़ा भांजा सतीश शर्मा मेरठ में ही मेजर था। हमारा मकान क्योंकि अब्दुल वाली से सटा हुआ था। केवल हमारी दीवार बीच में थी तो हमें सुरक्षा का इंतजाम करना होता था। हमारे बच्चे और मेरी बहन के बच्चे हमारी छत पर बारी – बारी से पहरा देते थे। उस 20 तारीख़ की रात में भी पहरा दिया, फिर सुबह को देर से जगे। जैसे ही ये पाँचों बच्चे 21 मई की सुबह खड़े हुए, तभी अचानक प्रभात के आँख में गोली आकर लगी।”

21 साल का प्रभात आरएसएस का सक्रिय कार्यकर्ता था। जो दंगों के दौरान अपनी मौसी के साथ दंगाग्रस्त एरिया में भी सक्रिय था। प्रभात की हत्या का मुकद्दमा शहर के सिविल लाइंस थाने में दर्ज हुआ। लेकिन ना तो उसकी लाश का पोस्टमार्टम हुआ और ना ही हत्यारों का पता चल सका। उसके बड़े भाई मेजर सतीश शर्मा और मौसी शकुंतला कौशिक के रसूख की वजह से मुकद्दमा दर्ज होने के बावजूद मुकद्दमे की कानूनी औपचारिकता तक नहीं निभाई गई। यह पूरा घटनाक्रम इस तरफ़ इशारा करता है कि प्रभात को दंगों में अपनी सक्रियता की कीमत चुकानी पड़ी थी।

शहर के एसपी सिटी बी. के. चतुर्वेदी के अनुसार 22 मई की दोपहर मीटिंग हुई थी। जिसमें उन्हें भी बुलाया गया था। शहर के तमाम बड़े अधिकारियों के साथ उस मीटिंग में सेना के मेजर जनरल खुराना भी मौजूद थे। जिसमें तय हुआ कि उसी दिन मोहल्ला हाशिमपुरा, जैदी फॉर्म और मालियान में तलाशी ली जाएगी। जिसमें अवैध हथियारों को ज़ब्त करना, लाउडस्पीकर उतरवाने तथा वांछित अभियुक्तों की तलाश और कर्फ़्यू तोड़ने वालों को गिरफ्तार किया जाना था। मेजर जनरल खुराना ने निर्देश दिया था कि 16 साल तक के बच्चों, महिलाओं और 60 साल से अधिक आयु वाले लोगों को गिरफ्तार ना किया जाए। इन तलाशियों के लिए कोई लिखित आदेश नहीं दिया गया था। ये बयान एसपी सिटी ने जाँच एजेंसी सीबीसीआईडी को दिया था। यहां चौकाने वाली बात ये है कि इस बैठक में जनरल खुराना किस क़ानूनी हैसियत से आदेश दे रहे थे और क्यों मेरठ के अधिकारी उसका पालन कर रहे थे।

सीबीसीआईडी की जांच में दो तथ्यों का उल्लेख बार – बार मिलता है। एक तो 21 मई को प्रभात की हत्या और उससे हाशिमपुरा को लेकर जुड़ी सम्भावनाएं। दूसरा 22 मई की शाम जब हाशिमपुरा में तलाशियाँ चल रही थीं। तब मेजर सतीशचंद्र शर्मा वहां मौजूद थे। दो कारणों से उनको वहां नहीं होना चाहिए था। न तो उनकी वहां ड्यूटी थी और दूसरा पारिवारिक कारण ऐसे थे कि उनको वहां नहीं होना चाहिए था। जिस यूनिट को दंगों में स्थानीय प्रशासन की मदद के लिए नियुक्त किया गया वो उसके हिस्सा भी नहीं थे।

मेरठ सिटी कंट्रोल रूम में 21 मई को एक संदेश दर्ज है। कि 21 मई 1987 को 13 बजकर 14 मिनट पर हाशिमपुरा भारतीय सेना के हवाले कर दिया गया है और ऑपरेशन शुरू होने वाला है। तात्कालिन गाजियाबाद के एसपी विभूति नारायण राय के अनुसार “यह संदेश क़ानून की ग़लत समझ पर आधारित था और मेरठ प्रशासन की हताशा का घोतक था। इसी तरह का एक और उदाहरण 21 मई 1987 के अमर उजाला के मुखपृष्ठ पर छपी वह ख़बर है, जिसका शीर्षक था, ‘मेरठ किसी भी क्षण सेना के हवाले।’ निश्चित रूप से इस ख़बर का स्रोत कोई वरिष्ठ अधिकारी रहा होगा। दुर्भाग्य से उससे किसी ने नहीं पूछा कि किस भारतीय क़ानून के तहत मेरठ सेना के हवाले किया जा सकता था?”

मेरठ में उन दिनों काल नाच रहा था। हर गली – मुहल्ले में मार – काट का दौर चल रहा था। जो जहां जिस पर भारी पड़ रहा था। उसे तथाकथित सबक सीखा रहा था। शहर में कई मीटिंग्स स्थानीय प्रशासन द्वारा एक समुदाय को ‘सबक’ सिखाने के लिए की जा चुकी थीं। जिसका जिक्र सीआईडी ने अपनी जांच रिपोर्ट में किया है। उसी का एक्शन डे 22 मई 1987 का दिन था।

दिल्ली के एडिशनल सेशन जज के सामने 8 अगस्त 2006 को उस घटना को याद करते हुए घटना के चश्मदीद ज़ुल्फ़िकार नासिर ने बताया कि “उस दिन जुम्मा था। मैं शाम 6 बजे के करीब अपनी घर की छत पर नमाज़ पढ़ रहा था, तभी कुछ फ़ौजी वहां आए। उन्होंने मुझे, मेरे पिता, दो चाचाओं तथा बाबा को गली के बाहर सड़क पर ले गए। वहां पहले से 400-500 लोगों के बीच हमे भी बैठा दिया गया। पीएसी ने मोहल्ले के लोगों को दो हिस्सों में बांट दिया, एक तरफ नौजवान थे और दूसरे समूह में बूढ़े और बच्चे। बूढ़े – बच्चों को छोड़ कर मेरे पिता और चाचाओं समेत और लोगों को पीएसी की ट्रकों में भर कर भेज दिया गया। अंत में बचे चालीस – पैंतालीस हटट्टे – कट्टे लोगों, जिनमें मैं भी शामिल था। हम सबको पीएसी की आखिरी खड़ी ट्रक पर बैठा दिया गया। ट्रक पर हमें घेर कर पीएससी के लोग इस तरह खड़े हो गए थे कि हम सब बाहर से दिखाई नहीं दे रहे थे। जितना कुछ बाहर मैं देख सका, उससे यह स्पष्ट हो गया कि हमारी ट्रक दिल्ली जाने वाली सड़क पर थी। …”

उस उमस भरी शाम को हाशिमपुरा के लोगों को सेना, सीआरपीएफ, पीएसी और पुलिस ने घरों से निकाल कर सड़क पर इकट्ठा किया। उन्हें फुटपाथ की पटरियों के सहारे कई हिस्सों में बैठा दिया गया। उनमें से कुछ को पीएसी की 41वीं बटालियन के ट्रक में बैठा दिया गया। ट्रक में बैठाने का सिर्फ एक मापदंड था। नौजवान और शारीरिक रूप से हष्टपुष्ट लोग। आखिर पूरा प्रशासन एक समुदाय को तथाकथित सबक सीखा रहा था। ऐसे में उस समुदाय की सबसे बड़ी सम्पदा पर चोट करना ही था। ऐसे कुल 42 लोग थे, जिन्हें स्थानीय प्रशासन ने शारीरिक रूप से तंदरुस्त समझा था। जिन्हें पीएसी ने मेरठ से दिल्ली आ रही सड़क पर दो नहरों के किनारे मार कर फेंक दिया।

जब स्थानीय प्रशासन ही हत्यारे की भूमिका में हो। ऐसे में पीड़ित के बचाने की गुंजाइश कहां होती है? ना ही हत्यारों को डर होता है कि उन्हें कोई सजा मिलेगी। यहां भी वही हुआ। चश्मदीदों के बयान बदले गए। सेना के अधिकारी बार – बार बुलाए जाने पर भी सीआईडी के सामने नहीं पेश हुए। अदालत को सेना और पुलिस की वर्दी के रंग में उलझा कर भ्रम की स्थिति पैदा कर दी गई। जिससे दोषियों को संदेह का लाभ मिला। इस तरह स्थानीय प्रशासन के बड़े अधिकारी आराम से बच निकले। जिस पर हमारी न्यायिक व्यवस्था ने भी मौन साध लिया।

जवाहरलाल नेहरू ने एक बार कहा था, ” एक साम्प्रदायिकता से दूसरी साम्प्रदायिकता समाप्त नहीं होती। प्रत्येक एक दूसरे को बढ़ावा देती है और दोनों ही पनपती हैं।” अगर सिर्फ यही बात तत्कालीन प्रधानमंत्री और नेहरु के उत्तराधिकारी राजीव गांधी ने पढ़ी होती तब भी शायद हाशिमपुरा नहीं होता। तत्कालीन गृह राज्य मंत्री चिदम्बरम ने भी इस मामलें निराश किया। कुल मिलाकर हम हाशिमपुरा के लिए कह सकते हैं कि कांग्रेस अपनी सुविधा के अनुसार सेकुलरिज्म को मानती और अपनाती है। उसने, उसके नेता और उसके प्रशासन ने जानबूझकर हाशिमपुरा होने दिया।

हाशिमपुरा क्यों हुआ होगा? क्यों नौजवानों के सीने पर राइफल लगाकर गोली दागी गई? क्यों किसी नौजवान की आँख में गोली मारी गई? क्यों किसी मकान मालिक ने अपने किराएदार की हत्या का दुस्साहस किया होगा? उसका एक जवाब ढूढें तो हमे यही मिलेगा। कि हमारा सिस्टम काम नहीं कर रहा था। स्थानीय प्रशासन ने जानबूझकर सबकुछ होने दिया। यही हुआ था चौरासी में, यही हुआ गुजरात और मुजफ्फरनगर में भी.. स्थानीय प्रशासन चाह लेता तो ये सब नहीं होता। अगर आगे भविष्य में प्रशासन यह तय कर ले कि वो कानून के हिसाब से चलेगा। तो ना कोई हाशिमपुरा होगा और ना ही कोई चौरासी और ना ही फिर कोई 2002 होगा।

(लेखक पेशे से पत्रकार हैं और इनसे ankit54017@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है)