अगर कृषि का निजी करण हो रहा है, ठेकेदारी प्रथा वापिस आ रही है तो फिर इस बिल को किसान बिल क्यों कहा जा रहा है?

सुल्तान अहमद – ग्राम वाणी फीचर्स

देश में बीते दो साल में एक के बाद एक बड़े किसान आंदोलन देखने को मिले हैं. चाहे 2017 में मध्‍यप्रदेश के मंदसौर में हुआ किसान आंदोलन हो या फिर इसी साल हुए दिल्ली और महाराष्ट्र के किसानों का बड़ा प्रदर्शन. किसान कर्ज में दबे हैं, राजनीति के मारे हैं, समाज से कटे हैं, सुविधाओं से महरूम हैं और योजनाओं के नाम पर केवल उनकी उपाधि का इस्तेमाल किया जाता है. सरकार चाहे कोई भी हो, किसानों के मसले हल होने का नाम नहीं ले रहे.

इन समस्यों के बीच केन्द्र सरकार ने कृषि सुधार के नाम पर जो तीन बिल पारित किए हैं, कृषि क्षेत्र में कार्यरत अर्थशास्त्रीयों का मानना है की केंद्र  सर्कार कोरोना 19 का प्रयोग एकतरफा अध्यादेश और कानून बनाने के लिए इस्तेमाल कर रही जिसमें राज्यों के अधिकारों की उपेक्षा की जारही है , इसी दिशा में कृषि अध्यादेश जो अब राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद कानून बन चूका है , कृषि राज्यों का विषय है केंद्र सरकार केवल  फ्री मार्केटिंग और सतत व्यापर के लिए राज्यों के लिए कानून बनाने को स्वतंत्र है लेकिन मौजूदा कृषि बिल लाने से पहले किसी भी राज्यों से मशवरा नहीं किया गया . उसने किसानों के सब्र का बांध तोड़ दिया. 25 दिसंबर को देश का किसान एकजुट हुआ , छित पुट किसानों के आन्दोलन को मीडिया ने तरजीह भी दिया लेकिन बड़े अस्तर पर किसान मुख्या धरा की मीडिया से गायब ही रहा सरकार के लिए तो यह मसला जरूरी कभी था ही नहीं. ऐसा लगा जैसे प्रशासन, शासन, सरकार सब जानते थे कि क्या होगा? किसान जमा होंगे, रेल की पटरियां और हाइवे जाम होंगे, नारेबाजी होगी… और फिर किसान हताश होकर अपने घर लौट जाएंगे! असल में हुआ भी यही…!

आगे बढ़ने  से पहले हम यह भी जान लेते हैं आखिर इतने बड़े हंगामें की वजह क्या थी , कौन से से नए बिल केंद्र सरकार द्वारा पारित किया गया ? एक अध्यादेश सरकार द्वारा कृषि उत्पाद की खरीद पर ढिलाई देती है , दूसरी बिल आवश्यक सामग्री अधिनियम कानून 1955 में ढिलाई देती है यानी अब कोई भी स्वतंत्र है कृषि उत्पाद को खरीद कर कितने दिन भी भंडारण करने के लिए – सीधे तौर पर जमाखोरी को बढ़ावा देता है  और तीसरा बिल कृषि क्षेत्र में कॉन्ट्रैक्ट खेती को कानूनी जमा पहनना है , उयानी लिखित तौर पर अब किसान और कंपनी कृषि कार्य अब अपने मुनाफे के लिए खेती करेगी.

मोटे तौर पर  तीनों अध्यादेश को एक साथ जोड़ कर देखना चाहिए जिससे से पता चलता है कृषि क्षेत्र को भी बाजार के हवाले किया जारहा अहि , वर्षों से किसानों की आया को दुगुना करने वाली सरकार अब तक किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य की भी गारंटी देने से बाख रही है और बाजर के भरोसे छोड़ देना चाहती है अब खुद ही अपने कृषि उपज का मोल भाल कर लाभ या हानि के जिम्मेदार बनें.

ऐसे वक़्त में जब किसान अपनी आवाज किसी मीडिया चैनल पर दर्ज नहीं करा पारहे हैं वहीँ थोड़ी उम्मीद की किरणें उन्हें मोबाइल वाणी पर दिखती है , उसी उम्मीद को हमारा प्रयास है की आप तक लाया जाए ताकि हमारे  अन्न दाता को न्याय मिल सके . बहुत से परेशान किसानों ने मोबाइलवाणी पर अपनी बात रिकॉर्ड की है. ज्यादातर ये कहते हैं कि बस यही एक जरिया है जहां हम अपनी बात कह पा रहे हैं बाकि तो सरकारें कानों में रूई लगाए बैठी हैं.. तो चलिए जमीन से आईं किसानों की बातें के जरिए समझते हैं कि आखिर दिक्कत कहां आ रही है?

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भारत सरकार है या ईस्ट इंडिया कंपनी?

समस्तीपुर जिला के विभूतिपुर प्रखंड के किसान मनोज कुशवाहा कहते हैं कि लगता ही नहीं कि आजाद देश में रह रहे हैं. सरकार तो ऐसे कानून लागू कर रही है जैसे ईस्ट इंडिया कंपनी का राज हो. ना पूछा, ना सलाह ली बस लागू कर दिया. सरकार ने कृषि सुधार के नाम पर जो तीन बिल पारित किए हैं, उससे तो किसान अपने ही खेत में मजदूर हो जाएगा. उद्योगों के हाथ में खेत जाएंगे तो किसानों को वही करना होगा जो वे कहेंगे. वही उगाना होगा जो वे कहेंगे? ऐसे में किसान को क्या मिलेगा? मनोज कहते हैं कि हमें सबसे ज्यादा डर इस बात का है कि अगर फसल खराब होती है या गुणवत्ता वैसी नहीं मिलती जैसी उद्योगपतियों को चाहिए तब क्या होगा? किसान धरती पर आलू उगाता है तो माटी के भाव मिलते हैं और जब वही आलू धोकर, प्लास्टिक में पैक करके, एसी मॉल में बेचा जाता है तो उसके दाम 50 गुणा हो जाते हैं? अभी ये कम हो रहा है, कल ज्यादा होगा… और कुछ सालों में बस यही होगा. इससे किसान तो मार खाएगा ही आम आदमी भी सस्ती चीजें महंगी दरों पर खरीदने को मजबूर होंगे. कांट्रेक्ट फार्मिंग वहां हो सकती है जहां कुछ लोग खेती करते हैं पर जो देश ही गांव में बसता है, कृषि विकास की नींव समझी जाती है वहां ऐसा करना कुछ समझ नहीं आ रहा है?

समस्तीपुर के ही किसान मोहम्मद मिन्नतुल्लाह उर्फ आरजू कहते हैं कि इतने सालों में किसान के हित के लिए हुआ क्या है? हम बस आंदोलन करते रह गए हैं, सरकार को तो अब आदत सी हो गई है किसान आंदोलनों की, इसलिए उन्हें कोई फर्क भी नहीं पड़ता. समस्तीपुर के ही एक किसान हैं सुनील कुमार, वो कहते हैं कि किसान अपनी खेती में ही उलझा रहता है. उसके पास कोई गोदाम नहीं है इसलिए फसल कटते ही बेचना पड़ता है. अब दाम कम हो या ज्यादा उससे उसे फर्क नहीं पड़ता. व्यापारी अनाज और सब्जी खरीदते हैं और स्टॉक कर लेते हैं. जब दाम अच्छे मिलते हैं तो उसे बाजार में उतार देते हैं. अब सरकार कह रही है कि किसान खुद भी अपने पास स्टॉक कर रख सकते हैं… तो भई अगर किसान के पास यह व्यवस्था होती तो वो खुद मुनाफा ना कमा रहा होता? अगर घर को गोदाम बना दें तो किसान रहेगा कहां? इस अध्यादेश से अच्छा होता कि सरकार किसानों के लिए कोल्ड स्टोरेज और गोदाम बनाकर देती, जहां न्यूनतम किराए में स्टॉक जमा किया जा सकता. ऐसा लगता है कि सरकार ने सरकारी तंत्र को किनारे रखकर सब कुछ निजी हाथों में सौंप दिया है.

दूसरी तरफ आप भाजपा के नेताओं का ब्यान  सुन रहे होंगे जो कहते हैं की विपक्ष किसानों को बेहतर आमदनी से रोक रही है उसे और उसे बहका रही है , अब किसान दुसरे राज्य भी कृषि उत्पाद को बेच पाएंगे असल में सरकार ने नए कानून के जरिए किसानों को अपने राज्य से बाहर फसल बेचने और मुनाफा कमाने की आजादी दी है. फसलों के सरकारी दामों में भी इजाफा किया है. लेकिन उनके पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं कि आखिर फसल को एक राज्य से दूसरे राज्य ले जाने का खर्च उठाने वाले किसान आखिर हैं कितने? अगर किसानों के पास इतना पैसा होता तो क्या वे कर्ज लेकर खेती करते?

किसान को किसान रहने दे सरकार

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मुंगेर के नौवागढ़ी दक्षिणी पंचायत के किसान रवीन्द्र मंडल सरकार से पूछते हैं कि हम किसान हैं तो हमें किसान रहने दें, हमारी जमीनें हैं तो हमें खेती करने दें… इसे उद्योगपतियों के देने की जरूरत ही क्या है? रवीन्द्र कहते हैं कि सरकार नई नई तकनीक से खेती करने की बात कर रही है पर असल में ये सुविधाएं किसानों को नहीं बल्कि उद्योपतियों को मिलेंगी. उन्हें मुनाफा चाहिए, किसी भी कीमत पर. हम तो फिर भी किसान है नफा—नुकसान सब बर्दाश्त कर रहे हैं.

यह डर देश के ​अधिकांश किसानों के मन है. इन बिलों के कारण भविष्य में निजी कंपनियों की मनमानी को लेकर आशंकाएं खड़ी हो रही हैं. पहला बिल कृषक उपज व्‍यापार और वाणिज्‍य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक, 2020 है जो एक ऐसा क़ानून होगा जिसके तहत किसानों और व्यापारियों को एपीएमसी की मंडी से बाहर फ़सल बेचने की आज़ादी होगी. पर सवाल यह की क्या अब तक मौजूदा APMC एक्ट किसानों को बहार किसी निजी मंदी में फसल उत्पाद बेचने से मन कर रही थी , नहीं APMC जो सरकारी मंडी है वहां कम से कम इस बात का भरोसा था की किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलेगा लेकिन क्या यह व्यवस्था निजी मंडी में भी होगा , बिहार इसका जीता जागता उदाहरण है , बिहार में  2006 में APMC कानून को खत्म कर निजी मंडी को ही बेहतर व्यापर माना गया  बेहतर पूँजी निवेश की कामना की गयी थी लेकिन क्या ऐसा हुआ ? ,क्या किसी के पास इसका जवाब होगा की बिहार के किसान को पंजाब के किसान से बेहतर उपज की कीमत मिली हो जहाँ APMC कानून लागू है किसान अपनी उपज सरकारी मंडी में ही बेचते हैं ,क्या कृषि की बदहाली बिहार के किसान के पलायन  का सबसे बड़ा कारण नहीं बना?   पर मूलभूत दिक्कत ये है कि किसान अपनी फसल को बाजार तक पहुंचाने का खर्च नहीं उठा पाता फिर दूसरे राज्य में या व्यापारी—व्यापारी तक कैसे पहुंचाएगा? दूसरा बिल कृषक (सशक्‍तिकरण व संरक्षण) क़ीमत आश्‍वासन और कृषि सेवा पर क़रार विधेयक, 2020 है. यह क़ानून कृषि क़रारों पर राष्ट्रीय फ़्रेमवर्क के लिए है. आसान शब्दों में कहें तो कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग में किसानों के आने के लिए यह एक ढांचा मुहैया कराएगा. जिसका नुकसान भूमिहीन किसानों को होगा, क्योंकि अभी तक वे खेत किराए पर लेकर कुछ उपज कर ही लेते थे पर अगर उद्योगपतियों  के पास लीज पर जाएंगी तो वे कहां उपज पैदा करेंगे?

किसान कहते हैं कि सरकार ने जो भी क़ानून में कहा है वैसा तो पहले भी होता रहा है, कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग और अपनी फ़सलों को बाहर बेचने जैसी चीज़ें पहले भी होती रही हैं और यह बिल सिर्फ़ ‘अंबानी-अडानी’ जैसे व्यापारियों को लाभ देने के लिए लाया गया है. सरकार हमें किसान से उद्योगपति बनाने का सपना दिखा रही है पर हम किसान रहना चाहते हैं. भारतीय खाद्य निगम की कार्य कुशलता और वित्तीय प्रबंधन में सुधार के लिए बनाई गई शांता कुमार समिति की रिपोर्ट में कहा गया है कि सिर्फ़ 6 फ़ीसदी किसान ही एमएसपी पर अपनी फ़सल बेच पाते हैं. इसमें भी हरियाणा और पंजाब के किसानों की बड़ी संख्या है जिस कारण अधिक प्रदर्शन भी इन्हीं दो राज्यों में हो रहे हैं. आंदोलन करने वाले किसान कह रहे हैं कि देश में 23 फ़सलों पर ही एमएसपी है अगर एमएसपी का प्रावधान निजी कंपनियों के लिए किया गया होता तो इससे देश के सभी राज्यों के किसानों को फ़ायदा पहुंचता और आगे उनके शोषण होने की आशंका कम हो जाती.

2015-16 में हुई कृषि गणना के अनुसार देश के 86 फ़ीसदी किसानों के पास छोटी जोत की ज़मीन है या यह वे किसान हैं जिनके पास 2 हेक्टेयर से कम ज़मीन है. कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा कहते हैं कि प्राइवेट प्लेयर्स को कृषि क्षेत्र में लाने की योजना जब अमरीका और यूरोप में फ़ेल हो गई तो भारत में कैसे सफल होगी, वहां के किसान तब भी संकट में हैं जबकि सरकार उन्हें सब्सिडी भी देती है.

कृषि उन्मूलन और किसानों की बेहतर स्थिति के लिए क्या कहती है स्वामीनाथन रिपोर्ट

भारत में हरित क्रांति और किसानों के बदहाली पर मुखर होकर लिखने वाले मग्सेसे अवार्ड से सम्मानित वरिष्ट पत्रकार और कई किताबों के लेखक जिनमें एक बहुचर्चित किताब हिंदी में रूपांतरण की गयी तीसरी फसल के नाम से चर्चित है –पी साईंनाथ कहते हैं कि सरकार क्यों ना इन तीन कृषि बिलों के साथ एक और बिल ले आएँ, जो न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के कभी लुप्त ना होने देने की गारंटी देता हो.

भाजपा ने 2014 में देश के किसानों के लिए स्वामीनाथन फ़ॉर्मूला लागू करने का वायदा किया था. जिसके अनुसार बड़े व्यापारी, कंपनियाँ या कोई ‘नए ख़रीदार’ एमएसपी से कम दाम पर माल नहीं ख़रीद सकेंगे. अब मुख़्तारी की गारंटी हो ताकि एमएसपी एक मज़ाक़ ना बन जाए और यह नया बिल किसानों के क़र्ज़ को ख़ारिज कर दे- वरना कोई तरीक़ा ही नहीं है जिसके ज़रिए सरकार 2022 तो क्या, वर्ष 2032 तक भी किसानों की आय दोगुनी नहीं कर कर पाएगी , लेकिन एक मजेदार बात यह भी है अब तक जिस आमदनी को दोगुना करने की बात कही जाती है वो आज तक बताया ही नहीं गया बुनियादी आय क्या हो जिसे दोगुना किया जाएगा. किसानों को यह डर है कि ‘सरकार कृषि क्षेत्र में भी ज़ोर-शोर से निजीकरण ला रही है, जिसकी वजह से फ़सल बेचने के रहे-सहे सरकारी ठिकाने भी ख़त्म हो जाएँगे. इससे जमाख़ोरी बढ़ेगी और फ़सल ख़रीद की ऐसी शर्तों को जगह मिलेगी जो किसान के हित में नहीं होंगी.

साईनाथ इन बिलों को किसानों के लिए ‘बहुत ही बुरा’ बताते हैं. वे कहते हैं, इनमें एक बिल एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्केट कमेटी (एपीएमसी) से संबंधित है जो एपीएमसी को विलेन की तरह दिखाता है और एक ऐसी तस्वीर रचता है कि ‘एपीएमसी (आढ़तियों) ने किसानों को ग़ुलाम बना रखा है.’ लेकिन सारा ज़ोर इसी बात पर देना, बहुत नासमझी की बात है क्योंकि आज भी कृषि उपज की बिक्री का एक बड़ा हिस्सा विनियमित विपणन केंद्रों और अधिसूचित थोक बाज़ारों के बाहर होता है. इस देश में, किसान अपने खेत में ही अपनी उपज बेचता है. एक बिचौलिया या साहूकार उसके खेत में जाता है और उसकी उपज ले लेता है. कुल किसानों का सिर्फ़ 6 से 8% ही इन अधिसूचित थोक बाज़ारों में जाता है. इसलिए किसानों की असल समस्या फ़सलों का मूल्य है. उन्हें सही और तय दाम मिले, तो उनकी परेशानियाँ कम हों.

साईनाथ कहते हैं कि मोदी सरकार ‘कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग’ की बात कर रही है. मज़ेदार बात तो ये है कि इस बिल के मुताबिक़, खेती से संबंधित अनुबंध लिखित हो, ऐसा ज़रूरी नहीं. कहा गया है कि ‘अगर वे चाहें तो लिखित अनुबंध कर सकते हैं.’ ये क्या बात हुई? ये व्यवस्था तो आज भी है. किसान और बिचौलिये एक दूसरे की बात पर भरोसा करते हैं और ज़ुबानी ही काम होता है. लेकिन किसान की चिंता ये नहीं है. वो डरे हुए हैं कि अगर किसी बड़े कॉरपोरेट ने इक़रारनामे (कॉन्ट्रैक्ट) का उल्लंघन किया तो क्या होगा? क्योंकि किसान अदालत में जा नहीं सकता. कॉपोरेट कई बार अपने गृह राज्यों में मुकदमा करेंगे और न्याय क्षेत्र भी वही होगा , वहां आने जाने रहने और वकील का खर्च कौन वहन करेगा? इस बिल में एक प्रावधान है की जिले के कलक्टर और सब्डीविज्नल मजिस्ट्रेट के यहाँ शिकायत कर सकता है और अपने शिकायत की निपटान कर सकता है यानी अब उसे कोर्ट जाने से भी रोकना है

केंद्र सरकार यह भी कह रही है कि ‘मंडी सिस्‍टम जैसा है, वैसा ही रहेगा. अनाज मंडियों की व्यवस्था को ख़त्म नहीं किया जा रहा, बल्कि किसानों को सरकार विकल्प देकर, आज़ाद करने जा रही है. पी साईनाथ कहते हैं कि किसान पहले से ही अपनी उपज को सरकारी बाज़ारों से बाहर या कहें कि ‘देश में कहीं भी’ बेच ही रहे हैं. ये पहले से है. इसमें नया क्या है? लेकिन किसानों का एक तबक़ा ऐसा भी है जो इन अधिसूचित थोक बाज़ारों और मंडियों से लाभान्वित हो रहा है. सरकार उन्हें नष्ट करने की कोशिश कर रही है. साईंनाथ कहते हैं कि कॉरपोरेट इस क्षेत्र में किसानों को मुनाफ़ा देने के लिए आ रहे हैं, तो भूल जाइए. वे अपने शेयरधारकों को लाभ देने के लिए इसमें आ रहे हैं. वे किसानों को उनकी फ़सल का सीमित दाम देकर, अपना मुनाफ़ा कमाएँगे. अगर वो किसानों को ज़्यादा भुगतान करने लगेंगे, तो बताएँ इस धंधे में उन्हें लाभ कैसे होगा? बिहार में एपीएमसी एक्ट नहीं है. 2006 में इसे ख़त्म कर दिया गया था. वहाँ क्या हुआ? क्या बिहार में कॉरपोरेट स्थानीय किसानों की सेवा करते हैं? हुआ ये कि अंत में बिहार के किसानों को अपना मक्का हरियाणा के किसानों को बेचने पर मजबूर होना पड़ा. यानी किसी पार्टी को कोई लाभ नहीं हो रहा.

साईंनाथ सलाह देते हैं कि अगर किसान एकजुट होकर आपसी समन्वय स्थापित करें, तो वो हज़ारों किसान बाज़ार बना सकते हैं. किसान ख़ुद इन बाज़ारों को नियंत्रित कर सकते हैं. केरल में कोई अधिसूचित थोक बाज़ार नहीं हैं. उसके लिए कोई क़ानून भी नहीं हैं. लेकिन बाज़ार हैं.

भूमिहीनों का क्या ?

विरोध के बीच में कई ऐसे किसान भी हैं जिनके जीवन में इस अध्यादेश का कोई खास फर्क नहीं दिख रहा है. ये वे किसान हैं जो अति गरीब हैं या फिर किसी और के खेत को ठेके या बटाई पर लेकर खेती करते हैं.

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परसौना गांव के किसान शशि भूषण राय कहते हैं कि मैं छोटा किसान हूं और अकेला नहीं हूं, मुझ जैसे कई किसान है. सरकार ने जो भी नियम बनाएं हैं उनसे बड़े किसानों को अपना फायदा नुकसान नजर आ रहा होगा पर हमें तो हमारी दशा में कोई बदलाव नहीं दिखता. सरकार इतनी घोषणाएं करती है, गरीबों के लिए ये होगा वो होगा पर होता क्या है? हम गरीब हैं, हमसे पूछो कुछ नहीं मिला इतने समय में. कोरोना काल में राशन देने की बात कही थी, दुकान के चक्कर लगाते रह गए पर दाना नहीं मिला.

गिद्धौर के बाना डीह पंचायत से भूमिहीन किसान श्याम रावत कहते हैं कि उन्हें सरकार की तरफ से पास हुए बिलों की कोई जानकारी नहीं है. जब मोबाइलवाणी संवाददात ने उन्हें बिलों के बारे में बताया तो श्याम ने कहा क्या फायदा! हमारे पास तो जमीन भी नहीं है. ये सब आंदोलन, बिल, कानून बड़े किसानों के लिए है. आंदोलन कर कर के तो कई किसान नेता बन गए पर उससे हमारे लिए क्या बदला? अब ये कानून बना है कि किसान व्यापारियों को सब्जी अनाज बेच सकेंगे पर हमारे पास तो इतनी उपज ही नहीं कि व्यापारी उसे खरीदे? इससे तो अच्छा होता कि सरकार हम जैसे भूमिहीन किसानों के लिए कुछ कर देती. कोरोना के कारण मजदूरी भी नहीं मिल रही है. सरकार जो सम्मान राशि देती है उसमें भी हमारा हिस्सा नहीं. तो ऐसे में हम लोग आंदोलन करके क्या कर लेंगे?

जमुई के किसान बालेश्वर रावत कहते हैं कि हम बटाई करते हैं, खेती के लिए खुद की जमीन नहीं है. अब अगर सरकार इसे भी निजी कंपनियों के हवाले करना शुरू कर देगी तो हमें कौन अपनी जमीनें देगा? इतनी सी खेती से किसी तरह घरवालों का पेट भर पाता है, पैसों की जरूरत होती है तो अनाज का कुछ हिस्सा छोटी—मोटी दुकान पर बेच देते और इसी से गुजर बसर चल रही है? सरकार की मंडी होती तो बात अलग थी, कम से कम कुछ तो सही दाम मिलता.

ऐसे भी हैं जो कुछ नहीं जानते

मोबाइलवाणी के माध्यम से करीब 150 से ज्यादा किसानों ने अपनी राय—प्रतिक्रियाएं रखीं. ज्यादातर का पक्ष किसान बिल के विरोध में ही रहा पर एक और पहलू ये भी सामने आया कि बहुत से ऐसे किसान भी हैं जिन्हें कृषि सुधार बिल और नए कानूनों की जानकारी ही नहीं.

गिद्धौर से शिवांशु कुमार कहते हैं कि कृषि बिल को लेकर इतना उग्र आंदोलन चल रहा है. हाइवे, रेलवे मार्ग जाम है पर बहुत से छोटे किसान ऐसे हैं जिन्हें ठीक से इस बिल के बारे में जानकारी दी ​नहीं, फिर भी चूंकि गांव के बड़े किसानों ने कहा ​है इसलिए वे भी आंदोलन में शामिल हो गए हैं. शिवांशु कहते हैं प्रखंड के ज्यादातर किसान बिल के बारे में अपनी प्रतिक्रिया नहीं दे पा रहे हैं, वजह ये है कि उन्हें पता ही नहीं है कि सरकार ने आखिर क्या फैसला लिया है? 

सारण जिले से राजेन्द्र प्रसाद और उनके कई साथी किसानों ने मोबाइलवाणी के जरिए बताया कि उन तक किसान बिल की सही जानकारी पहुंची ही नहीं है. गांव के ही गोपाल महतो कहते हैं कि हमें कुछ नहीं पता कि ये हंगामा हो क्यों रहा है? पटना और दिल्ली की खबरें सुनी तो पता चला कि किसान आंदोलन कर रहे हैं पर क्यों कर रहे हैं इस बारे में कुछ नहीं पता. किसान कहते हैं कि बिल के बारे में प्रचार होना चाहिए था, तब तो पता चलता. मधुबनी के साहरघाट से आरएन ठाकुर बताते हैं कि गांव के बहुत से किसान हैं जो कृषि सुधार बिल के बारे में कुछ नहीं जानते. ऐसा इसलिए क्योंकि अधिकत्तर किसानों के घरों में टीवी नहीं है, मोबाइल फोन और अखबार नहीं आते. असल में सरकार को कानून लागू करने से पहले लोगों को उसके बारे में बताना भी तो चाहिए? कम से कम किसानों को तो पता हो कि उनके नाम पर क्या किया जा रहा है?

छिंदवाड़ा के किसान जागेश्वर बताते हैं कि असल मायनों में किसानों तक बिल की पूरी जानकारी पहुंची ही नहीं है. बहुत से छोटे किसान पूंजीपति किसानों के कहे अनुसार आंदोलन में शामिल हुए हैं. जितना लोगों से सुना है उस हिसाब से यही कह सकते हैं कि मंडी खत्म ना हो तो ही अच्छा है वरना किसानों को तो नुकसान ही नुकसान है. पहले किसान खेती करे और फिर फसल लेकर व्यापारियों के चक्कर काटे, इसमें किसी का फायदा नहीं. पलासपानी के किसान भी मोबाइलवाणी पर यही बात कह रहे हैं. उन्हें कृषि बिल के बारे में जानकारी चाहिए.

जो किसान ये जानकारी मांग रहे हैं वे अधिकांश निम्न स्थिति से आते हैं. उनके घरों में टीवी और फोन जैसी सुविधाएं नहीं है. अखबार नहीं आते. अब जरा सोचिए कि जब देश में ऐसे किसानों का भी बहुत बड़ा तबका बसता है तो फिर ये कृषि बिल है किसके लिए? अगर कृषि का निजी करण हो रहा है, ठेकेदारी प्रथा वापिस आ रही है तो फिर इस बिल को किसान बिल क्यों कहा जा रहा है? किसानों की भाषा में कहें तो यह उद्योगपति मुनाफा बिल है.. जो पारित  हो गया है, कानून बन गया है और अब लागू भी हो जाएगा.