त्रिकोनिए संग्राम को दोतरफा संग्राम समझना भी जातिवादी अवधारणा है
राजेश चंद्रा
बेगूसराय में गठबंधन प्रत्याशी और बदली परिस्थितियों में जीत के सबसे प्रबल दावेदार तनवीर हसन को तस्वीर से ग़ायब और गिरिराज सिंह को कन्हैया के टक्कर में बताने वाले कुछ ‘कॉमरेड’ ‘आयेगा तो मोदी ही’ जैसी जुमलेबाज़ी कर रहे हैं। आशावाद अच्छी चीज़ है, भले ही वह मरते हुए आदमी के भीतर क्यों न पल रहा हो। इससे आसन्न मृत्यु का भय कुछ कम होता ही होगा। सब जानते हैं कि बेगूसराय में गठबंधन का ही ऐसा सामाजिक-राजनीतिक आधार है कि वह फासिस्ट गिरिराज सिंह को धूल चटा सकता है। ऐसे में कन्हैया की लगभग सुनिश्चित (अगर कोई बड़ा उलटफेर न हो) हार की सच्चाई को झुठलाने और गठबंधन के मतदाताओं को इस भ्रम में डालने का प्रयास चल रहा है कि कन्हैया कुमार के ज़्यादा वोट काट लेने से गिरिराज जीत सकते हैं, ताकि गिरिराज को रोकने के लिये वे तनवीर हसन की बजाय कन्हैया को वोट देने का फ़ैसला कर लें।
वे सोचते हैं कि इस रणनीति के कारगर होने से अगर कन्हैया की बजाय तनवीर हसन तीसरे स्थान पर चले जाते हैं, भले ही गिरिराज की जीत का रास्ता साफ़ क्यों न हो जाये, तब भी वे अपनी झेंप मिटाने के लिये कह पायेंगे कि उनकी ज़ोरदार मुहिम के कारण कन्हैया तो जीत रहा था, पर गठबंधन के जातिवाद और अड़ियल रवैये ने खेल बिगाड़ दिया! इस तरह कन्हैया के जनेऊ वामपंथी रणनीतिकार सम्भावित परिणाम का ठीकरा अपने सिर न लेकर गठबंधन के सिर फोड़ना चाहते हैं!
रणनीति अच्छी तो है, पर समय इस बात को दर्ज़ कर रहा है कि जब अपने दलगत स्वार्थ और अहंकार को किनारे करने और एकजुट होकर देश भर में मोदी-भाजपा के नृशंस फासीवाद को परास्त करने की ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी सिर पर थी, तब हमारे देश के बहुतेरे कथित वामपंथी सिपहसालार फासीवाद के ख़िलाफ़ लड़ने की भंगिमा बना कर असल में उसी की पालकी ढो रहे थे। वे केवल ब्राह्मणवाद की प्रतिष्ठा और ताजपोशी चाहते थे, चाहे वह जिसके भी माध्यम से हो जाये।