किसान आंदोलन को तोड़ने का हिस्सा बनता सुप्रीमकोर्ट

लहर डेस्क,14 जनवरी , दिल्ली :
भारत के लोगों के लिए सुप्रीम कोर्ट न्याय की आखिरी उम्मीद होता है. लेकिन पिछले कुछ समय से सुप्रीम कोर्ट की रूप रेखा बदलती नज़र आ रही है। कभी-कभार के अपवादों को छोड़कर भारत के सुप्रीम कोर्ट के अधिकांश निर्णायक फैसले वर्ण व्यवस्था, जाति व्यवस्था, पितृसत्ता, जमींदारों-भूस्वामियों के हितों की रक्षा और पूंजीवाद के पक्ष में रहे हैं. यानि सुप्रीकोर्ट उच्च जाती मर्दों, सामंतो और पूंजीपतियों के हितों की रक्षा करता रहा है। इन वर्चस्वशाली समूहों के विपरीत सुप्रीम कोर्ट ने भी तभी फैसले दिए, जब उसे जन दबाव का सामना करना पड़ा या इस बात की आशंका पैदा हुई कि उसके किसी फैसले से भारी जनाक्रोश पैदा हो सकता है जो वर्चस्वशाली समुदायों के लिए खतरा बन सकता है।
2014 के बाद तो धीरे-धीरे सुप्रीम कोर्ट खुले तौर पर हिदू राष्ट्र निर्माण और कार्पोरेट हितों की रक्षा का सबसे बड़ा उपकरण बन गया। एससी-एसटी एक्ट पर सुप्रीमकोर्ट का फैसला, आरक्षण पर सुप्रीकोर्ट के फैसले, रामजन्मभूमि के पक्ष में सुप्रीकोर्ट का निर्णय, नागरिकता (संशोधन) कानून 2019, 124 वां संविधान संशोधन के तहत आर्थिक आधार पर आरक्षण (सवर्ण आरक्षण ), पिछले साल दिल्ली में दंगे पर चुप चाप मूक दर्शक बने रहना, नागरिकता कानून के खिलाफ आंदोलन करियों पे कोर्ट का रुख, तब्लीग़ी जमात पे कोर्ट का रुख और संविधान के अनुच्छेद 370 की समाप्ति पर सुप्रीकोर्ट का रूख इसके सबसे बड़े प्रमाण हैं।
धीरे-धीरे सुप्रीम कोर्ट एक और काम करने लगा है. वह है सरकार के हर जनविरोधी और राष्ट्र विरोधी निर्णयों और संविधान संसोधनों को वैध ठहराना। इसका सबसे बड़ा सबूत राफेल कांड पर सरकार के निर्णय पर मुहर, अमितशाह का केस देख रहे, जज लोया की मृत्यु पर फैसला, शाहीन बाग पर सुप्रीमकोर्ट की टिप्पणी, भीमा कोरेगांव षडयंत्र के नाम पर मनमानी गिरफ्तारियों और गिरफ्तार लोगों के साथ अमानवीय व्यवहार उसका रवैया आदि हैं। पिछले दिनों कई मामले आए, जिस पर सुप्रीकोर्ट ने सरकार की राह आसान की। अकारण नहीं है, किसानों के साथ आठवें दौर की बात-चीत में सरकार ने किसानों को सुप्रीमकोर्ट जाने के लिए कहा।
किसान आंदोलन के मुद्दे पर सतही रूप में सुप्रीम कोर्ट जितना भी सरकार के खिलाफ दिख रहा हो और किसानों के साथ हमदर्दी भरी टिप्पणियां कर रहा हो, लेकिन टिप्पणियों के बीच की पंक्तियां और सुप्रीम कोर्ट द्वारा बताए जा रहे समाधान के उपाय इस बात के प्रमाण हैं कि सुप्रीम कोर्ट देश के इतिहास के सबसे बड़े जन आंदोलन में से एक वर्तमान किसान आंदोलन को तोड़ने और तितर-बितर करने की सरकार की मंशा का एक उपकरण बनने जा रहा है, जिस किसान आंदोलन के निशाने पर कार्पोरेट और उनके हिंदू राष्ट्रवादी नुमांइंदे नरेंद्र मोदी हैं और जो किसान आंदोलन देश को नई दिशा देने की ताकत रखता है।
सुप्रीम कोर्ट और सरकार की मिलीभगत से तैयार इस मंशा को किसान आंदोलन के नेता बखूबी समझ रहे हैं. इसलिए उन्होंने साफ शब्दों में कह दिया है कि वे सरकार और किसानों के बीच सुप्रीम कोर्ट को मध्यस्थ के रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। यही लोकतांत्रिक तरीका है, फैसला सीधे राजसत्ता और जनता के बीच के संवाद से लिया जाए। इसलिए किसानों का रूख पूर्णतया लोकतांत्रिक वसूलों- मूल्यों के अनुसार है और लोकतंत्र मजबूत करने वाला है.
इस जनांदोलन की हार देश के जनतंत्र और जनता के हितों के लिए एक और बहुत बड़ा धक्का होगी। यदि सुप्रीम कोर्ट इसमें हस्तक्षेप कर रहा है क्योंकि यह जनांदोलन सरकार को कानून वापस लेने के लिए वाध्य करने की क्षमता रखता है। सुप्रीम कोर्ट के द्वारा बनाई गई कमिटी से साफ़ हो गया है की कोर्ट किसकी तरफदारी कर रहा है. जिन चार लोगों की कमिटी बनाई गई है उनकी राय जग जाहिर है. वो किसान बिल को पूरी तरह से सर्थन दे चुके हैं साथ ही सरकार से आग्रह कर चुके हैं की वो इस बिल को वापिस नहीं ले. ऐसे में ये कमिटी कोई निष्पक्ष राय दे पायेगी इसमें बहुत बड़ा संदेह है.
सरकार की मंशा को ध्यान में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने वही किया जो सरकार के सुप्रीम लीडर चाहते थे. नए कृषि कानूनों के क्रियान्वयन पर रोक लगाने का मतलब है कि एक न एक दिन रोक हटा ली जाएगी. कोर्ट ने कहा भी है कि यह रोक अनंतकाल के लिए नहीं है. कोर्ट ने जो समिति बनाई है उसके चारों सदस्य सार्वजनिक रूप से नए कानूनों का समर्थन कर चुके हैं जिनके नाम हैं अशोक गुलाटी, शरद जोशी, डॉ. पी के जोशी और बी एस मान सिंह। अशोक गुलाटी कह चुके हैं कि नए कृषि कानूनों को लेकर विपक्ष दिग्भ्रमित है. यह सही दिशा में उठाया गया कदम है वहीँ शरद जोशी सरकार से अपील कर चुके हैं कि सरकार को नए कानून रद्द नहीं करना चाहिए.ये पहले से कृषि क्षेत्र में खुले बाज़ार की वकालत करते रहे हैं. दूसरी तरफ समिति के अन्य सदस्य डॉ पी के जोशी यहां तक बोल चुके हैं की कि नए कानून को अगर कमजोर किया गया तो भारत कृषि क्षेत्र में विश्वशक्ति बनने से रह जाएगा वहीँ मान सिंह हाल ही में कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर से मिल कर नए कानूनों के प्रति अपना समर्थन जता चुके हैं. मतलब साफ़ है की जो सरकार चाहेगी कमिटी वही राय देगी।
ऐसी हालात में किसानों ने जिस परिपक्वता और सूझ-बूझ से मांमले की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए जो फैसला किया है कि वो अपना आंदोलन जारी रखेंगे, ये सराहनीय है. किसानों ने ये भी साफ़ कर दिया है की वो इस कमिटी के बुलाने पे अपनी राय नहीं देंगे क्योंकि इस कमिटी की मांग किसानों ने नहीं की थी। वैसे सरकार और उसके तंत्र ने माफ़ी मेहनत किया है की आंदोलन को कुचल दिया जाये जिससे नया कृषि बिल को लागु करने का रास्ता साफ़ हो सके लेकिन लगता नहीं की सरकार इतनी आसानी से करने में सफल हो पायेगी। साथ ही किसान संगठनों ने जिस एकता और सूझ -बूझ का परिचय दिया है उससे लगता है की सरकार ये तीनो बिल वापिस लेने पड़ सकते हैं.