माँ बनना स्त्री के जीवन की अनिवार्यता नहीं

माँ बनना किसी स्त्री के जीवन का एक भाग हो सकता है मगर यह उसके जीवन का कोई अनिवार्य भाग नहीं है न ही ये उसके जीवन के सम्पूर्णता के लिए आवश्यक है। जिस समाज मे स्त्री को यह तय करने का अधिकार नहीं है कि वो माँ बनना चाहती है या नहीं, वो समाज मातृव को इस प्रकार प्रचारित करता है जिससे पूरे समाज मे यह धारणा बन जाती है कि बिना माँ बने कोई स्त्री सम्पूर्ण नहीं होती.
यही वजह है कि समाज मे ऐसी स्त्रियां जिनकी सन्तान नही है उन्हें अपवित्र ठहरा दिया जाता है। और असल मे माँ बनना भी एक स्त्री की सम्पूर्णता तय नहीं करता जब तक वो पुत्र को जन्म ना दे जिन स्त्रियों को पुत्र पैदा हुए किये समाज मे उनकी हैसियत उन स्त्रियों से ज्यादा है जिनकी पुत्री पैदा हुई। पितृसत्ता में स्त्री की कोई स्वतंत्र हैसियत नहीं होती उसकी हैसियत पुरुष से तय होती है। माँ की भी कोई स्वतंत्र हैसियत नहीं होती, आपने तरह की बाते अक्सर सुनी होंगी की धन्य है वो माँ जिसने फ़लाना जैसे वीर पुत्र को जन्म दिया या मैं उन माँ के चरणों को नमन करता हूँ जिसने फ़लाना जैसे सुपुत्र को जन्म दिया। अगर इन वाक्यो को खोले तो साफ नजर आयेगा माँ की हैसियत उसके पुत्र से तय होती है।
मानव समाज मे प्रजनन और सन्तानोत्पत्ति बस एक जैव शारीरिक क्रिया नहीं है यह अनिवार्यतः एक सामाजिक प्रकिया है। और मातृत्व के नाम पर ममता, आत्मत्याग और अन्य स्त्रैणय गुणों का अतिमहिमामंडन स्त्री उत्पीड़न का ही एक साधन है।
जिस समाज मे मां बनना एक मजबूरी है वहां मदर्स डे की कोई सार्थकता नहीं है ,अगर स्त्री को ये तय करने का अधिकार हो कि वो माँ बने या न बने और अगर वह माँ बने तो बच्चों के पालन पोषण की जिम्मेदारी मां बाप दोनों की बराबर से हो तथा ममता का नाम देकर उसका उत्पीड़न न किया जाए तब ही मदर्स डे की कोई सार्थकता है अन्यथा ये बस आधी आबादी की मजबूरी का उत्सव मनाने जैसा है।
आप सभी को मदर्स दे की सुभकामनाएँ
अंकित साहिर