जनशक्ति अभियान: एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम के खिलाफ मोबाइल वाणी की सशक्त मुहिम

ग्राम वाणी फीचर्स – दिल्ली
हर साल बारिश इस जमीन को तर कर जाती है. हर साल कंपकंपाती ठंड हमें ठिठुरा जाती है. हर साल गर्मी बेहाल कर जाती है. और हर साल चमकी बुखार (एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम) बिहार के मासूमों को मौत की नींद सुला जाता है…बारिश से बचने के लिए छातें है, ठंड के लिए महंगे—महंगे ऊनी कपड़े हैं और गर्मियां तो एसी की ठंडक में कट ही जाती हैं… पर चमकी से बचने के लिए हमारे पास क्या है? जवाब है कुछ नहीं.

और फिर जरूरत भी क्या है? यह महामारी देश के एक खास हिस्से में, खास वर्ग के बच्चों को खास समय पर अपनी चपेट में लेती है और जब मौत का कोटा पूरा हो जाता है तो अचानक ही गायब हो जाती है. ठीक वैसे ही जैसे कोई मौसम. जिसका आना और गुजर जाना तय है. जब तक यह महामारी किलकारी को चीख में बदल रही थी, तब पूरा ​मीडिया, पूरी राजनीति, पूरा समाज इस पर बात कर रहा था, पर जब चीख खामोश होती गईं तो हम सब भूल गए. पर इंतजार है अगले साल का, जब बिहार के एक कोने में फिर से मौत का तांडव होगा!

लेकिन मोबाइलवाणी ने इस मामले की तह तक जाने का प्रयास किया है. जिसके लिए खासतौर पर जून 2019 से जनशक्ति अभियान की शुरूआत की गई है. इस अभियान के तहत बिहार की ग्रामीण स्वास्थ्य व्यवस्थाओं की ग्राउंड रिपोर्ट तैयार की गई है. जिसे बनाने में सहयोग दिया है उन्ही लोगों ने जो राज्य की स्वास्थ्य व्यवस्था (जो किसी अव्यवस्था से कम नहीं) से रोजाना दो—चार हो रहे हैं. मोबाइल वाणी पर आम जनता ने अपने विचार रिकॉर्ड किए हैं और बताया है कि जो कहर बिहार पर बरसा है उसकी जड़ें कहां हैं?

क्यों अधूरी रह गईं तैयारियां?

बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर जिले सहित 12 जिलों में एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम (एईएस)/जापानी इंसेफेलाइटिस (जेई) का प्रकोप 1995 से है. साल 2012, 2013 और 2014 में इस बीमारी का हमला बहुत तीखा था. नेशनल वेक्टर बॉर्न डिजीज कंट्रोल प्रोग्राम (एनवीबीडीसीपी) के अनुसार बिहार में 2013 में 143, 2014 में 357 लोगों की मौत हुई. इसके बाद 2015 में 102, 2016 में 127, 2017 में 65 और 2018 में 44 लोगों की मौत हुई. इसमें एक से 15 वर्ष से कम आयु के बच्चों की संख्या सबसे ज्यादा थी. जब मीडिया और स्वयंसेवी संगठनों ने आवाज बुलंद की तो सरकार चेती और फिर एईएस/जेई के कारकों की जानने की दिशा में प्रयास शुरू हुए.

सरकार ने इसके लिए साल 2012 में स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर (एसओपी) तैयार किया. इसमें प्राथमिक स्तर से लेकर मेडिकल कॉलेज पर इलाज का प्रोटोकॉल बनाया गया. इतना ही नहीं, आशा, एएनएम,स्वयं सहायता समूहों के लिए एईएस/जेई के रोकथाम/ प्रबंधन की गाइड लाइन बनायी गई, उन्हें खासतौर पर प्रशिक्षण भी दिया गया. मीडिया का दबाव ऐसा बना कि आनन—फानन में सरकार ने शोध कार्य शुरू करवा दिए. 2012-14 के बीच केंद्रीय स्तर से कई टीमें आईं और जांच करके चली गईं.

इसके बाद डॉ. जैकब जॉन की नेतृत्ववाली बिहार टीम ने एईएस के लिए लीची को दोषी करार दिया. लेकिन इसके आगे क्या होना था वो तय ही नहीं किया गया. साल 2015 के बाद एईएस/जेई के केस कम होने से सरकारी स्तर पर इस बीमारी के रोकथाम के लिए किए जाने वाले काम में शिथिलता आ गई. बिहार के समस्तीपुर से डॉक्टर अमरेन्दु कुमार ने मोबाइलवाणी पर जानकारी देते हुए कहा कि जब चमकी बुखार अपनी शुरुआती स्टेज पर था, तब लोग अपने बच्चों को डॉक्टर के पास ले जाने की बजाए ओझा और स्थानीय वैद्य के पास ले गए. जिन्हें असर में बीमारी के बारे में कुछ नहीं पता था. फिर धीरे—धीरे हालात बेकाबू होते गए और जब यह मामला मुजफ्फरपुर के अस्पताल तक पहुंचा तब जाकर मीडिया के सामने आया. जाहिर सी बात है कि ग्रामीण लोगों में इतने सालों के बाद भी एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम के बारे में पता ही नहीं था. ऐसे में सरकार कैसे कह सकती है कि वह लोगों को जागरुक करती आ रही है?

बिहार सरकार ने 2018 में एसओपी को संशोधित किया था. लेकिन अस्पतालों में इलाज की व्यवस्था को बेहतर करने पर कोई जोर दिया ही नहीं गया. खासतौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में. यह तो वही बात हुई कि सैनिक को बता दिया गया कि उसे कैसे लड़ना है लेकिन उसे युद्ध में प्रयुक्त साजोसामान नहीं दिया गया. इसका क्या नतीजा हो सकता है, वह सामने है.

नगरनौसा प्रखडं के शिवकुमार ने मोबाइल वाणी पर अपनी बात रिकॉर्ड की. वे कहते हैं कि बिहार में एक दशक से एक्यूट इंसेफेलाइटिस फैल रहा है. हर साल बच्चे मरते हैं पर सरकार ना तो अस्पतालों को दुरुस्त कर रही है ना ही आंगनबाड़ियों को. जब ये बात सब जानते थे कि गर्मी में चमकी बुखार वापिस आएगा तो फिर सरकार ने तैयारियां क्यों नहीं की? श्रीकृष्ण मेडिकल कॉलेज और अस्पताल जैसे बाकी सभी अस्पतालों में न तो पर्याप्त बेड हैं ना ही डॉक्टर. वेंटिलेटर और पैरा मेडिकल स्टाफ तक नहीं है. मोबाइलवाणी के एक और श्रोता दिनेश कुमार कहते हैं कि इस मेडिकल कॉलेज के पास सिर्फ दो पीडियाट्रिक आईसीयू थे. इसके अलावा एक जनरल वॉर्ड था. सरकार ने इतने सालों में वॉर्ड की संख्या बढ़ाने के लिए प्रयास क्यों नहीं किए?

वैसे याद दिला दें कि 2014 में तबके स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन की घोषणा के अनुरूप 100 बेड के पीडियाट्रिक इंटेंसिव केयर यूनिट (पीआईसीयू) बनाने के लिए भी कोई काम नहीं हुआ और पांच वर्ष बाद भी इसके निर्माण के लिए एक ईंट तक नहीं रखी जा सकी.

जब जून की पहली तारीख से एईएस/जेई के मरीज बढ़ने लगे तो एसकेएमसीएच में बेड की कमी हो गई. आनन-फानन में जुगाड़ से दो और पीआईसीयू बनाए गए. कैदी वॉर्ड को पीआईसीयू में बदला गया. एक पीआईसीयू (16 बेड) तो 19 जून को शुरू हुआ. ये कवायद करके भी पीआईसीयू की क्षमता 66 बेड की ही हो पाई है. बच्चों के जनरल वॉर्ड में जून के दूसरे पखवाड़े में कुछ एसी, कूलर लगवाए गए. पीआईसीयू में लगातार बिजली आपूर्ति के भी इंतजाम नहीं थे. अस्पताल में बिजली लगातार आती-जाती रहती थी.

19 जून की सुबह तो डेढ़ घंटे बिजली गुल रही. इस दौरान एक बच्ची की मौत भी हो गई. इस घटना के बाद एक नया ट्रांसफर लगाया गया ताकि बिजली व्यवस्था दुरुस्त रहे. एसकेएमसीएच में चिकित्सकों की कमी पहले से थी और किसी ने भी इसे दूर करने की जहमत नहीं उठाई.

क्या गांव में इंसान नहीं बसते?

मल्टीनेशनल हॉस्पिटल की चमचमाती इमारतें और ऑनलाइन दवाओं का खड़ा होता मार्केट बस शहर में बसने वालों के लिए है, क्योंकि गांव में तो इंसान बसते ही नहीं है! कम से कम सरकार तो यही सोच रही है. तभी तो गांव के बच्चों को उन आंगनबाड़ियों के भरोसे छोड़ दिया गया है, जहां उनका पेट बिस्कुट खिलाकर भरा जाता है. जी हां यह सच है, और इस सच के बारे में मोबाइलवाणी पर बताया है गिद्धौर से रंजन कुमार ने. रंजन ने बताया कि उनके क्षेत्र के आसपास चलने वाली आंगनबाड़ी में बच्चों को पोषण आहार के नाम पर चॉकलेट और बिस्कुट खिलाकर घर भेज दिया जाता है. इस बारे में ना तो कभी सरकार ने चिंता की ना ही बच्चों के माता—पिता ने. अब अगर यह सच है तो फिर सरकार किस आधार पर दावा करती है कि आंगनबाड़ी बच्चों के पोषण का ध्यान रख रही हैं?

वैसे भी बिहार की आंगनबाड़ी के हालातों की पोल तो इस साल की शुरूआत में ही खुल गई थी. जब पूरे राज्य की आंगनबाड़ी कार्यकर्ता, सेविका और सहायिका अपने एक साल से लंबित वेतन के लिए सड़कों पर उतर आईं थीं. बिहार में एक समय था जब 1 लाख 20 हजार आंगनबाड़ी शुरू की गईं थीं और अब इनमें से केवल 92 हजार बची हैं. इन 92 हजार आंगनबाड़ी के कार्यकर्ता भी बिना वेतन के बैठे हैं. विरोध—आंदोलन रोज की बात हो गई है. सरकार इन्हें लगभग 2500 से 3500 रुपए प्रति माह भी नहीं दे पा रही है, तो भला कैसे आंगनबाड़ी तक पोषण आहार पहुंचाएंगी?

एईएस/जेई के बारे में सरकार कहती है कि मरने वाले बच्चों की संख्या 109 है. लेकिन क्या यह पूरी संख्या है? क्या इसमें वे बच्चे भी शामिल हैं जो अस्पताल में नहीं पहुंच सके और गांव में ही दम तोड़ गए. वो भी इसलिए क्योंकि उन्हें आंगनबाड़ी का सहारा नहीं मिला और प्राथमिक स्वास्थ केन्द्र तो नक्शे से ही गायब थे. मोबाइलवाणी के संवाददाता बताते हैं कि मुजफ्फरपुर और उसके आसपास के जिलों के अंदर आने वाले गांव में अब तक मातम पसरा है. जब भी कोई वहां चमकी के बारे में सवाल करता है लोग फूट—फूटकर रोने लगते हैं. यह आवाज हर साल तेज.. और तेज होती जा रही है.

मोबाइलवाणी पर जमुई की अनीता देवी ने बताया कि वे अपने स्तर से गांव में लोगों को चमकी बुखार के बारे में जागरूक कर रही हूं. अनीता कहती हैं कि— अब इस बीमारी का कोई इलाज तो है नहीं, इसलिए जागरुकता ही बचाव है. मैं अपनी तरफ से कोशिश कर रही हूं लेकिन यह काफी होगा या नहीं पता नहीं?

क्यों डर रह रहे हैं दूसरे राज्य?

एनएफएचएस-4 के अनुसार बिहार के 44 फीसदी बच्चे कुपोषित हैं. इस रिपोर्ट के बावजूद कुपोषण को दूर करने का कोई प्रभावी अभियान मुज़फ़्फ़रपुर सहित इंसेफेलाइटिस प्रभावित 14 जिलों में नहीं चलाया गया है. क्योंकि एईएस/जेई/चमकी बुखार का संबंध कुपोषण से है, इसलिए अब उन राज्यों में भी घबराहट है जहां कुपोषण के हालात बिहार से ज्यादा बेहतर नहीं हैं. खासतौर पर झारंखड में. झारखंड मोबाइलवाणी के श्रोता और आदर्श ग्राम विकास सेवा समीति के सचिव भारती शर्मा कहते हैं कि झारंखड में भी डॉक्टर्स की कमी बनी हुई है. यहां भी आंगनबाड़ी खस्ताहाल हैं, बच्चों को पोषण आहार नहीं मिल रहा है और जागरुकता अभियान तो पूरे राज्य से गायब हैं. यदि बिहार में हालात इतने गंभीर हो सकते हैं तो इस बात की क्या गारंटी है कि झारंखड में यह तस्वीर नहीं होगी?

भारती का सवाल लाजमी है. क्योंकि जबकि यह साबित हो चुका है कि कुपोषण हर बीमारी की जड़ है तो फिर राज्य सरकारें इसे दूर करने में नाकाम क्यों हैं? यह सवाल मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ से भी है. झारखंड की महिला कल्याण समीति के प्रमुख श्याम कुमार भारती ने एईएस/जेई/चमकी बुखार के कारण होने वाली मौतों के लिए सीधे तौर पर सरकार को जिम्मेदार ठहराया है. मोबाइलवाणी पर अपनी बात रिकॉर्ड करते हुए भारती ने कहा कि जनता गरीब है, वह अपनी दैनिक जरूरतें पूरी नहीं कर सकती. ऐसे में बच्चों को अच्छा पोषण कहां से दे. यदि सरकार ने आंगनबाड़ी, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र, मिड डे मील, आशा कार्यकर्ता के दम पर यह दावा किया है कि कुपोषण को मिटा दिया जाएगा तो फिर उसे यह काम करना चाहिए. यदि सबकुछ ठीक तरह से हो रहा है तो फिर क्यों, हालात गंभीर हो रहे हैं?

आंगनबाड़ी की खस्ता हालत तो मप्र और छत्तीसगढ़ में भी है. तो क्यों नहीं ये सभी राज्य मिलकर प्रयास कर रहे हैं? बेशक झारखंड, मप्र और छत्तीसगढ़ में चमकी बुखार का प्रकोप नहीं है लेकिन कुपोषण से मौत का सिलसिला तो जारी है. सरकारों के पास शोध हैं, निर्णय लेने की क्षमता है और उसे लागू करने का अधिकार भी, जरुरत है तो बस मूड की. मूड बनना चाहिए कि आंगनबाड़ी, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र, मिड डे मील व्यवस्था को बेहतर बनाया जाए. डॉक्टर्स की कमी को पूरा किया जाए. ना कि जनता को स्वास्थ्य बीमा की बीन थमा दी जाए. जो समय आने पर बजती तक नहीं है. जैसा बिहार में एक्यूट इंसेफलाइटिस के दौरान हुआ.

मोबाइलवाणी पर और भी कई श्रोताओं ने अपनी राय साझा की है और सबका सारा बस यही है कि जनता को सरकारें बीमा पकड़ा देती हैं और अस्पताल बनाना भूल जाती हैं. कुछ जगहों पर अस्पताल तो बन जाते हैं मगर वहां पर चालू करने के लिए डॉक्टर और स्टाफ वर्षों तक पूरे नहीं हो पाते. सब ठीक करने का प्रयास दोनों ओर से होना चाहिए.

मोबाइल वाणी पर रिकॉर्ड किए गए कुछ विचार आप भी यहाँ सुन सकते हैं .

http://voice.gramvaani.org/vapp/mnews/0/show/tags/janshakti/
http://voice.gramvaani.org/vapp/mnews/10/show/detail/1811528/
http://voice.gramvaani.org/vapp/mnews/10/show/detail/1812993/
http://voice.gramvaani.org/vapp/mnews/1325/show/detail/1812433/
http://voice.gramvaani.org/vapp/mnews/730/show/detail/1825544/
http://voice.gramvaani.org/vapp/mnews/977/show/detail/1822021/
http://voice.gramvaani.org/vapp/mnews/436/show/detail/1828868/