गाँधी एक विचार है जो मरता नहीं

यह वही गाँधी हैं, जिन्हें टैगोर ने महात्मा विचार है कहा, तो नेताजी ने राष्ट्रपिता। गाँधी की नीतियों और कार्यशैलियों से घोर असहमति के कारण नेताजी ने कांग्रेस छोड़कर अलग राह ली, लेकिन जब आज़ाद हिंद फ़ौज की कमान संभाली, तो एक टुकड़ी का नाम गाँधी के नाम पर दिया। यह वही गाँधी हैं, जिनकी छत्र छाया से लौह पुरुष पटेल, प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद और प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू ज़िंदगी भर निकल नहीं सके, तो आज़ादी के बाद विनोबा भक्त बने रहे और लोहिया-जेपी जैसे उनके आलोचक भी उनके प्रति अपनी श्रद्धा दिखाई।

अंबेडकर ने असहमतियाँ दिखाईं, विरोध किया; लेकिन व्यक्तित्व और राष्ट्र के लिए उनके समर्पण के लिए उतना ही सम्मान भी प्रदर्शित किया।ऐसा कैसे हो सकता है, कि एक साथ इतने बड़े नेताओं की श्रद्धा के केंद्र को ख़त्म कर कोई देशभक्त बनने की भी बात कर सकता है? क्या कोई एक साथ इतनों को नकार सकता है? समझने की बात यह है कि नकार ही नहीं सकता है, बल्कि एक ऐसा झूठ गढ़ सकता है, जिससे कच्ची बुद्धि वाले लोग दिग्भ्रमित हो जाएँ। लेकिन हमारा कर्त्तव्य बनता है कि ऐसों पर भी एक नज़र डाली जाए। गाँधी की हत्या के तीन साल पहले 1945 में गोड्से द्वारा संपादित पत्र ‘अग्रणी’ में एक कार्टून छपता है, जिसमें गाँधी रावण के रूप में हैं। उनके दस सिरों में नेहरू, सुभाष, पटेल से लेकर अंबेडकर तक के सिर हैं। काली टोपी वाले राम तथा सफाचट माथे और घनी मूँछों वाले लक्ष्मण तीर चला रहे हैं।

एक साल और पीछे लौटिए, 1944 में पंचगनी में गोड्से प्रार्थना सभा में चाकू लेकर दौड़ता हुआ पहुँच जाता है, कि गाँधी से हमें कुछ पूछना है। भीकूदाजी भिलारे द्वारा चाकू छीन लेने पर वह घटना होते-होते रह जाती है। ये दो प्रसंग उस बड़े झूठ का पर्दाफाश करते हैं, जिसमें कहा गया कि गाँधी की हत्या के कारण देश का विभाजन, हिंदुओं का नरसंहार और गाँधी का पाकिस्तान(मुस्लिम) प्रेम था, क्योंकि तब न विभाजन हुआ था, न उसके बाद की त्रासदी; बल्कि गाँधी विभाजन की हर आशंका के सामने अपनी कुर्बानी देकर भी अडिग रहने की बात कर रहे थे। ऐसे समय में विभाजन का विरोध करनेवाला कोई भी आदमी गाँधी को मजबूत करता कि क्या पता यह आदमी विभाजन रुकवा ही दे, लेकिन गोड्से उस विभाजन-विरोधी को ही रास्ते से हटाने के लिए तत्पर था।

यह सच है कि भारत का धार्मिक आधार पर विभाजन गाँधी की बड़ी असफलता है, लेकिन यह असफलता बस इसलिए है, क्योंकि गाँधी उस समय के सबसे बड़े व्यक्तित्व थे और विभाजन के विरोधी थे। यह असफलता एक महान आदर्श की असफलता है, जैसे कृष्ण या भीष्म के न चाहने पर भी महाभारत का हो जाना। इस असफलता के दाग को गाँधी भलीभाँति समझते थे, इसलिए आज़ादी के जश्नों से दूर उनका समय मानवता की रक्षा में बीत रहा था।

वैसे विभाजन को गाँधी की असफलता कहना, बहुत सरलीकरण है; क्योंकि इस विभाजन की नींव गाँधी के भारतीय राजनीति के पटल पर आने के पूर्व पड़ चुकी थी। हिंदू और मुस्लिम कट्टरपंथी लगातार समाज(देश!) के विभाजन में लगे थे और अंग्रेज़ी सरकार उन्हें हवा दे रही थी। दो राष्ट्रों का सिद्धांत हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग दोनों के लिए समान रूप से मान्य था। बाद में जिन्ना और सावरकर जैसे देशभक्त अपने केंचुल त्यागने को तैयार खड़े थे। दंगे हो रहे थे और विचारों में हिंदूस्थान और पाकिस्तान (!) रूप लेने लगा था। गाँधी और कांग्रेस की एक बड़ी शक्ति इनसे मुकाबला करने में लग रही थी।

गाँधी, नेहरू, पटेल, विद्यार्थी, मौलाना आज़ाद, सीमांत गाँधी (भगत सिंह भी) अपने-अपने ढंग से द्वेष की खाई को मिटाने और सद्भाव लाने में प्रयत्नशील थे; लेकिन हिंदुओं में कांग्रेस मुस्लिमों की पार्टी प्रचारित थी, तो मुस्लिमों में हिंदुओं की। इसलिए कट्टरपंथी ताकतों ने एक-दूसरे के खिलाफ लड़ाई कभी नहीं लड़ी, बल्कि मुख्य शत्रु कांग्रेस को बनाये रखा। काँग्रेस और गाँधी उनके उद्देश्य (विभाजन के) के बीच आ जा रहे थे। उन्होंने एकल और सम्मिलित दोनों रूपों में अनेकता में एकता-वादी कांग्रेस से लड़ाई लड़ी। पंजाब और बंगाल में इन शक्तियों ने मिलकर सरकार चलाई। जी हां, पंजाब में गोड्से की मातृ-संस्था हिंदू महासभा मुस्लिम लीग की सहयोगी हुई। मामला साफ था कि देश को एक नहीं रहने देना है। यहाँ तक कि हत्या के बाद खुद को मुस्लिम कहा ताकि समाज और नया भारत फिर से विभाजित हो, दंगे मचे।

दरअसल गोड्से की देश से जुड़ी छवि बाद में तैयार हुई है और इसमें सबसे ज्यादा भूमिका उसके भाई गोपाल गोड्से की रही। उसने नाथूराम में देवत्व स्थापित करने की भी कोशिश की और कहा कि बहुत छोटी अवस्था में नाथू अजीबोगरीब मंत्रोच्चार कर घर में कुलदेवी के साथ अपना तार जोड़ लिया था। ‘गाँधी वध क्यों’ किताब भी गोपाल गोड्से के विचारों का पुलिंदा है, जिसमें सभी तरह की प्रवंचनाएँ, झूठ और मक्कारी शामिल है।

गोड्से की देशभक्ति को समझना ही चाहें, तो एक सवाल रख सकते हैं कि यदि गाँधी की हत्या में यह नहीं होता, तो इतिहास में इसका नाम कहाँ होता? लगभग भगत सिंह के साथ का जन्मा यह आदमी, जो हिंसा में विश्वास भी करता है, पिस्तौल भी जुगड़िया सकता है, चला सकता है, अपनी इस प्रतिभा का उपयोग क्यों नहीं करता। उसकी भरी जवानी में चंद्रेशखर आज़ाद की सशस्त्र कार्रवाई होती है, उसका पता नहीं होता। फिर दस सालों बाद नेताजी की सैनिक चढ़ाई होती है, वह किसी गुप्त निद्रा में निमग्न रहता है। यह कैसी देशभक्ति थी, जो हर बार गाँधी को देखकर ही जाग उठती है?

गाँधी किसी तरह से आलोचना से परे और विरोध से दूर नहीं हो सकते। उनकी आलोचना होती रही है और होती रहनी चाहिए। उन्हें देवता के समान मानने वाले सुभाष, उनके छाया-समान अनुयायी नेहरू तक ने उनकी आलोचना की है। अंबेडकर और मार्क्सवादियों को तो करना ही था। लेकिन आलोचना तथ्यात्मक ढंग से होती है, दुष्प्रचार और अफवाहों के द्वारा नहीं। उसपर हत्या फिर हत्या का महिमामंडन कैसे किया जा सकता है?

सच है कि गाँधीवाद सफल नहीं है, लेकिन इसके साथ यह भी सच है कि किसी वाद-सिद्धांत-विचार की सफलता की गारंटी नहीं है। बुद्ध, ईसा, मोहम्मद, मार्क्स ही क्या सफल हुए? जिस सनातन की दुहाई यहाँ दी जाती है, वह भी इंद्र-वरुण के लिए किये जाते रहे यज्ञ और अग्निहोत्र से आगे निकल कर राम और हनुमान की मूर्ति और मंदिर की स्थापना तक पहुँच गया। आप किसे सफलता कहते हैं? साथ ही यह भी कि महान आदर्श का सच नहीं होना, उसकी असफलता नहीं है, यह हमारी-आपकी-पूरी मानवता की असफलता है।

लब्बोलुबाब यह कि गाँधी की ख़ूब आलोचना कीजिए, लेकिन यदि गोड्से में आपको देशभक्त और नेता जैसा कुछ दीख रहा हो, तो उसके दो ही कारण हो सकते हैं- या तो आप गोड्से की संततियों (रक्त या वैचारिक) में शामिल हैं अथवा आपके मन-मस्तिष्क को किसी ने तेज़ एसिड से रगड़-रगड़कर धो डाला है।

और हां, यदि आपको यह लगता है कि विभाजन के समय जितने हिंदू मारे गये, उतने ही मुसलमानों का संहार भी हमें करना चाहिए था, तो आपको किसी मनोचिकित्सक की सख़्त ज़रूरत है। इस एक आलेख में इतना दम कहाँ कि पागलपन का इलाज़ कर सके।

अस्मुरारी नंदन मिश्रा