मनरेगा: अक्सर सरकार के दावे खोखले और जमीन से आती आवाजें सच्ची क्यों लगती हैं?

MGNREGA workers in Rajasthan. Photo: UN Women/Gaganjit Singh/Flickr CC BY-NC-ND 2.0

ग्राम वाणी फीचर्स

महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) योजना के संबंध में बिहार सरकार ने एक बार फिर बड़ा दावा किया है. बिहार विधानसभा में मोबाइलवाणी और आरटीआई कार्यकर्ताओं के कुछ सवालों के जवाब में सरकार ने कहा है कि वह मनरेगा में काम करने के सभी इच्छुक परिवारों को रोजगार देने में कामयाब रहे हैं. अपनी कामयाबी को बखानते हुए राज्य सरकार ने स्पष्ट किया कि सरकार कोरोना के बाद से अब अपने राज्य में ही रोजगार सृजन कर रही है और इसमें मनरेगा बहुत बड़े हथियार के रूप में उभरकर सामने आया है. कोरोना काल में अलग—अलग राज्यों से वापिस लौटे बिहारी मजदूरों को अब राज्य से बाहर ना जाना पड़े इसके लिए सरकार प्रतिबद्ध है. इतना ही नहीं, इस मुहिम को पुख्ता करने के लिए लगातार जॉब कार्ड बनाएं जा रहे हैं. 

रिपोर्ट के मुताबिक कोरोना काल में क्वारंटाइन कैम्प में रहने वाले कुल 2,23,105 परिवारों के जॉब कार्ड बनवा गए ताकि वे राज्य में रहकर ही काम करें. आपदा प्रबंधन, जिला परामर्श केन्द्र, उद्योग विभाग, जिला औद्योगिक नवप्रर्वतन योजना के तहत अलग—अलग विभागों के मदद से रोजगार के नए अवसर पैदा किए जा रहे हैं. जिससे एक ओर ना केवल गांव का विकास हो रहा है बल्कि दूसरी ओर राज्य से पलायन कम होने की दलील दी जा रही है . पर सवाल ये है कि अगर सरकार ने कोरोना काल के बाद से अब तक इतना कुछ अच्छा कर दिया  है तो राज्य में मनरेगा मजदूरों की परेशानियां कम क्यों नहीं हो रही हैं? क्यों इस साल फरवरी में मनरेगा मजदूरों को दिल्ली कूच करने की जरूरत आन पड़ी और वो भी जंतर मंतर पर लगातार 60  दिनों के लिए?

नहीं है कोई काम!

समस्तीपुर से विधान परिषद सदस्य श्री  तरुण कुमार ने विधानसभा में कुछ सवाल किए. जिसमें पूछा कि सरकार बताए कि उस दावे का क्या हुआ जिसमें कहा गया था कि कोरोना काल में लौटे मजदूरो को काम ​के लिए अब दूसरे राज्य नहीं जाना होगा, उनका कार्य विकास होगा, उन्हें नया काम सिखाकर राज्य में ही रोजगार उपलब्ध करवाएंगे? मजदूरों के पलायन, उनके विकास और नीतियों से संबंधित और भी कई सवाल पूछे गए हैं… जिसमें सरकार ने खुलेआम दावा किया कि वे हर मोर्चे पर काम कर रही है और उसका असर भी दिख रहा है. लेकिन सवाल ये पैदा होता है कि सरकार ये दावे किस आधार पर कर रही है? क्योंकि पहले कोरोना और अब बेरोजगार की मार झेल रही जनता तो कुछ और ही कहती है.

जमुई जिला के गिद्धौर प्रखंड से एक महिला ने मोबाइलवाणी पर बताया कि कोरोना के समय काम छूट गया था तो गांव वापिस आ गए पर तब से अब तक यहां भी कोई काम नहीं मिला. लोगों के यहां काम मांग मांगकर गुजारा करते हैं. यहां ना तो आयुष्मान भारत कार्ड बनाने का कोई कैम्प लगा है ना जॉबकार्ड बनाने के लिए. इसलिए सरकारी सुविधा का लाभ नहीं मिलता. कोरोना के समय भी बहुत मुश्किल से गुजारा कर पाए थे. वहीं दूसरी ओर विशनपुर पंचायत के दरियापुर गाँव से रामजी सदा कहते हैं कि सरकार केवल वायदे कर रही है, काम नहीं दे रही. गांव में महीनों से मनरेगा में कोई काम नहीं हुआ है. मुखिया और वार्ड सदस्य कहते हैं कि सारे काम पूरे हो चुके हैं अब यहां करने के लिए कुछ नहीं. कोरोना के बाद से अब तक गांव में मनरेगा के तहत कोई काम नहीं मिला है.

नीति आयोग की रिपोर्ट ‘सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल-3’ में बताया गया है कि जब देशभर में कोरोनावायरस का कहर था, तो मजदूरों ने मनरेगा के तहत जितना काम मांगा था, उसके मुकाबले 78.60 प्रतिशत काम ही मुहैया कराया जा सका था. इसके पहले साल 2019 में बिहार में मनरेगा के तहत काम की जितनी मांग की गई थी, उसके मुकाबले 77.25 प्रतिशत काम ही दिया गया था. बिहार सरकार पर ये आरोप अक्सर लगता रहता है कि मनरेगा के तहत काम मुहैया कराने को लेकर वह गंभीर नहीं है, जिस कारण मजदूरों को मजबूर होकर पलायन करना पड़ता है.

बिहार, मुंगेर  के हवेली खड़गपुर से राकेश सिंह ने कोरोना लॉकडाउन के समय मोबाइलवाणी पर कॉल कर काम की मांग की थी. राकेश का कहना है कि कोरोना के बाद से अब शहर में फिर से काम करना आसान नहीं है, वे अपने गांव में ही काम चाहते हैं या फिर गांव के आसपास लेकिन यहां मनरेगा में कोई काम ही नहीं. मनरेगा के तहत बस खुदाई के काम  हो रहे हैं जबकि उनकी योग्यता ज्यादा है लेकिन मुखिया  कहते हैं कि यहां उनके लायक काम नहीं. अब राकेश सोच रहे हैं कि वे कैसे अपने परिवार का पालन पोषण करें? इसके अलावा सारण जिला के दिघवारा प्रखंड से दीपक मांझी कहते हैं कि कोरोना से पहले दिल्ली के एक कारखाने में काम कर रहे थे पर लॉकडाउन के समय काम छूट गया और वहां लोगों ने साथ नहीं दिया तो गांव आ गए. अब वापिस शहर नहीं जाना चाहते लेकिन गांव में कोई काम ही नहीं. यहां ना तो राशन कार्ड बन पा रहा है ना ही मनरेगा कार्ड. आधार कार्ड में जानकारी अपडेट तक नहीं हो पाती. पंचायत से कोई मदद नहीं मिल रही है… ऐसे में हम लोग कहां जाएं?

जारी है जॉब कार्ड रद्द होने का सिलसिला

रोजगार सृजन के वायदे के बीच खबर है कि बिहार राज्य सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय ने राज्य में निष्क्रिय मजदूरों के 39.36 लाख मनरेगा जॉब कार्ड रद्द कर दिये हैं. एक अधिकारी के मुताबिक, राज्य सरकार ने पहल की है क्योंकि मनरेगा मजदूरों के जॉब कार्ड के साथ आधार कार्ड मेल नहीं खाता था. सबसे ज्यादा कैंसिलेशन पटना, वैशाली, समस्तीपुर, भागलपुर, भोजपुर और दरभंगा जिले से हो रहे हैं. बिहार के चंपारण में पण्डितपुर क्षेत्र से मोबाइलवाणी के एक श्रोता ने बताया कि उनके क्षेत्र में कई मजदूर हैं जो जॉबकार्ड बनवाने के लिए चक्कर लगा रहे हैं लेकिन कार्ड बन नहीं पा रहा. मजदूर जॉब कार्ड के लिए आवेदन कर रहे हैं पर प्रखंड कार्यालय से उनका सत्यापन नहीं हो रहा. क्षेत्र के पीओ प्रकाश कुमार श्रीवास्तव कहते हैं कि जॉब कार्ड के लिए आधार, खाता नंबर, फोटो व मोबाइल नंबर देना अनिवार्य होता है पर मजदूरों के पास सारे दस्तावेज ही नहीं हैं. जबकि मजदूरों का कहना है कि वे सारे दस्तावेज जमा कर चुके हैं पर कार्ड नहीं बन रहे हैं. 

सरकारी आंकडों के अनुसार कोरोना महामारी और लॉकडाउन के समय 32 लाख 60 हजार से ज्यादा प्रवासी मजदूर प्रदेश वापस लौटे हैं. राज्य में ही नौकरी के वादे को पूरा करने के लिए नीतीश कुमार ने महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (ग्रामीण) को मजबूत करने, गरीब कल्याण रोजगार अभियान के अंतर्गत नई नौकरियां देने, राज्य में कौशल प्रशिक्षण कार्यक्रम चालू करने और कुशल और अर्ध कुशल प्रवासी मजदूरों को काम का अवसर देने के लिए छोटे उद्यम लगाने की बात की. जुलाई और अगस्त में आई प्रलयंकारी बाढ़ से भी राज्य में बहुत से लोग प्रभावित हुए हैं. इस बाढ़ ने खेतों और घरों को तहस-नहस कर दिया और लोगों की बची-खुची  बचत भी खत्म कर दी. इसका मतलब यह हुआ है कि कई श्रमिकों के समक्ष रोजगार की तलाश में राज्य से बाहर जाने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा. 

स्थिति तो यह है कि राज्य से बाहर जाना भी मजदूरों के लिए महंगा पड़ रहा है क्योंकि उन्हें बड़े शहरों में जाने के लिए पैसे उधार लेने पड़ रहे हैं. पश्चिमी चंपारण जिले के श्रम अधिकार कार्यकर्ता सिद्धार्थ कुमार ने  कहा, “बहुत से लोगों को अपना आत्मसम्मान गिरवी रखना पड़ा है. लॉकडाउन के दौरान जिस तरह का बुरा बर्ताव और अपमान उन्होंने झेला था तो अधिकांश मजदूर बड़े शहरों में दोबारा जाना नहीं चाहते थे लेकिन उन्हें जाना पड़ रहा है. कोई आदमी आजीविका के साधन के बिना घरों में कितने दिनों तक रह सकता है?” शिवपुर से त्रिभुवन कुमार कहते हैं कि मनरेगा का जॉब कार्ड बना हुआ है पर गांव में महीनों से कोई काम नहीं है. मजबूरी में गांव के बहुत से लोग शहर चले गए हैं लेकिन वहां भी काम का ठिकाना नहीं है. 

बीते साल अलायंस फॉर दलित राइट्स ने एक सर्वे किया था जिसमें पता चला था कि महामारी शुरू होते वक्त ही ग्रामीण बिहारियों के घरों की आर्थिक स्थिति, खासकर सीमांत समुदायों की, बहुत खराब थी. इन लोगों ने 14 राज्य के 112 गांव में 1400 दलित और आदिवासी परिवारों का सर्वे किया था. 27 फीसदी परिवारों के पास लॉकडाउन की घोषणा के वक्त एक पैसा नहीं था, जबकि 36 प्रतिशत परिवारों के पास थोड़ी बचत थी. सर्वे में पता चला कि केवल 5 फीसदी परिवारों के पास लॉकडाउन जैसी आपातकालीन स्थिति में जिंदा रहने लायक पैसे थे. 85 फीसदी परिवार दैनिक मजदूरी पर आश्रित थे, जबकि बाकियों में से अधिकांश प्रवासी मजदूरों द्वारा भेजे जाने वाले पैसे पर निर्भर थे. महामारी ने आय के सभी साधनों को समाप्त कर दिया जिस वजह से बिहार के गरीब लोग बिना किसी निश्चित आय, भोजन और सरकारी सहायता के आजीविका से वंचित हो गए.

और इस भ्रष्टाचार का क्या?

मनरेगा के तहत काम हासिल करने के रास्ते में सबसे बड़ा अवरोध स्थानीय भ्रष्टाचार है. काम देने का अधिकार पूरी तरह से स्थानीय ठेकेदारों और पंचायत के अधिकारियों के अधीन है. मधुबनी से रानीदेवी कहती हैं कि मैंने 4 महीने मनरेगा में काम किया है तब मुझे केवल 50 रुपए दिन की मजदूरी मिलती थी. मैं मनरेगा में और काम करना चाहती हूं पर ठेकेदार काम ही नहीं देता, काम करवा ले तो पैसा पूरा नहीं मिलता. यहीं की गुड़िया देवी बताती हैं कि 4 महीने मनरेगा में मजदूरी की पर पैसे नहीं दिए. हमें तो ये भी नहीं पता कि मनरेगा में क्या क्या काम होता है, कितने रुपए मिलते हैं… ठेकेदार इसी का फायदा उठाते हैं. 

मनरेगा मजदूर यासमिन खातून कहती है कि मनरेगा में बस दो दिन ही काम मिला तब से खाली बैठे हैं. ठेकेदार ने कहा कि मनरेगा मजदूरी तभी मिलेगी जब हम उसके पास आधार कार्ड और जॉबकार्ड जमा करेंगे, तो हमनें कार्ड उसके पास जमा करवा दिया अब वो हमें कार्ड वापिस नहीं कर रहा. ठेकेदार कहता है कि मजदूरी के जो भी पैसे आएंगे उसमें से 200 रुपए हमें मिलेंगे बाकी उसे देने पड़ेगे तभी कार्ड वापिस करेगा. मधुबनी के मेधवन पंचायत की सरिता देवी ने जॉबकार्ड बनवाया है पर मनरेगा में अब तक कोई काम नहीं मिला है. सरिता देवी को मनरेगा में होने वाले काम और मजदूरी की पूरी जानकारी है पर ठेकेदार और सरपंच गांव की महिला मजदूरों को ज्यादा काम ही नहीं देते… जिसके कारण उनका जॉबकार्ड बेकार है. 

जाहिर हैं इस योजना के अंतर्गत पंजीकृत मजदूरों को यह भी नहीं पता था कि काम के लिए श्रमिकों का चयन किस आधार पर किया जाता है. अक्सर यह निर्णय पंचायत के प्रतिनिधि मनमाने तरीके से करते हैं. ये लोग मनरेगा के तमाम रिकार्डों को गुप्त रखते हैं. कानूनन कांट्रेक्टरों और पंचायत के लिए जरूरी है कि वे बोर्ड में उन श्रमिकों के नाम लिखें जिन्हें काम के लिए चयनित किया गया है और प्रत्येक मजदूर का कितना पैसा पंचायत पर बकाया है यह भी लिखा जाना चाहिए. सार्वजनिक रिकॉर्ड की कमी का मतलब है कि अनुमान लगा पाना मुश्किल है कि मनरेगा के लिए उपलब्ध कितने पैसों का गबन हुआ. जब इस योजना के अंतर्गत जब कोई काम होता है तो छाया के लिए टेंट, दवाइयां या अन्य सुविधाएं अक्सर श्रमिकों को नहीं दी जाती. 

मजदूरी के इंतजार में मजदूर

मनरेगा के तहत बड़ी संख्या में काम करने वाले श्रमिकों को अपनी मजदूरी प्राप्त करने में  में भारी समस्याओं का सामना करता पड़ा है. इसके लिए न सिर्फ उन्हें अक्सर लंबी दूरी की यात्रा करनी पड़ती  है, बल्कि अपनी मजदूरी पाने के लिए कई घंटे इंतजार करना पड़ता है. सामाजिक कार्यकर्ताओं, इंजीनियर्स और डेटा साइंटिस्टों के एक समूह लिबटेक इंडिया (Lib Tech India) की रिपोर्ट से ये जानकारी सामने आई है. ‘Length of the Last Mile: Delays and Hurdles in NREGA Wage Payments’ नामक इस रिपोर्ट में बताया गया है कि मनरेगा मजदूरों को अपने हफ्ते भर की कमाई का एक तिहाई से अधिक हिस्सा अपनी मजदूरी निकालने में खर्च करना पड़ता है. इससे यह भी पता चलता है कि करीब आधे (45%) मजदूरों को अपना पैसा निकालने के लिए कई बार बैंक जाना पड़ता है. इसके अलावा कई श्रमिकों ने शिकायत की कि उन्हें बैंक से अपनी मजदूरी प्राप्त करने में चार घंटे तक का समय लगता है.

रिपोर्ट के मुताबिक, 45.1 फीसदी श्रमिकों को अपनी मजदूरी के पैसे निकालने के लिए कई बार बैंक के चक्कर लगाने पड़े हैं. रिपोर्ट में मनरेगा मजदूरी के वितरण के लिए पोस्ट ऑफिस की व्यवस्था को सुधारने और इसे बढ़ावा देने की मांग की गई है. सर्वे में इस ओर भी ध्यान खींचा गया है कि कई तकनीकि समस्याओं के कारण भुगतान कैंसिल हो जाता है या उनके खाते में नहीं पहुंचता है. इसके चलते मजदूरों को तब तक उनकी मजदूरी नहीं मिलती है जब तक कि कैंसिल या रिजेक्ट किए गए भुगतान को सत्यापित नहीं किया जाता है. बाकी बहुत सी कमी ठेकेदारों के हिस्से से भी है. जैसे रोहतास जिला के चेनारी प्रखंड से सीताराम बताते हैं कि मनरेगा में बहुत काम मांगने के बाद मौका मिला पर काम करवाने के बाद ठेकेदार ने अब तक पैसों का हिसाब नहीं किया. कहते हैं कि सरकार पैसे देगी पर सरकार एक महीना हो चुका है लेकिन पैसे नहीं मिले. मेरे साथ और भी कई मजदूरों ने काम किया था, सभी के साथ यही हुआ. मनरेगा में समय पर पैसे नहीं मिलते इसलिए लोग शहर जाकर कारखानों में काम करने को मजबूर होते हैं , इनका कहना यह भी सरकार जान बूझकर ऐसा करती है ताकि ग्रामीण मजदूर शहरी फक्ट्री के लिए सस्ते मजदूर बने रहें नहीं तो फैक्ट्री चलाएगा कौन.

बिहार के कैमूर क्षेत्र की डिहरिया पंचायत के मजदूर भी कम परेशान नहीं हैं. यहां महादलित बस्ती के बहुत से मजदूरों से मनरेगा में काम करवाया गया पर बदले में पैसे नहीं दिए. मजदूर अपनी मजदूरी मांगने कभी ठेकेदार के तो कभी मुखिया  के चक्कर लगा रहे हैं. पहले उन्हें यह कहकर टाल दिया कि खाता नहीं खुला है और अब कह रहे हैं कि सरकार खातों में पैसे नहीं डाल रही.. और तो और जिन मजदूरों ने विरोध किया उन्हें अब मनरेगा में दोबारा काम तक नहीं दे रहे हैं. 

अब अगर सरकार विधान परिषद् के सदस्य तरुण कुमार के सवालों के जवाब में में सबके सामने ये कह रही है कि उन्होंने काम किया है और इसका असर दिख रहा है तो जमीन से आती इन आवाजों का मतलब क्या है….?