हिंदी साहित्य के इतिहास पर कुछ फुटकल विचार…

हिंदी (कई भाषाओँ के समुच्चय का नाम) साहित्य का इतिहास शुरू होता है एक क्रमभंग से. शेल्डन पोलाक इसे देशी भाषाओं की सहस्त्राब्दी की शुरुआत कहते हैं, रामविलास जी सामन्तवाद विरोधी ‘लोकजागरण’ की और हजारीप्रसाद द्विवेदी इसे ‘शास्त्र का लोक की तरफ झुकना’ कहते हैं. हजार इस्वी के आस पास समूचे यूरेशिया में भाषा-साहित्य और राजनीति के स्तरों पर व्यापक बदलाव दिखलाई पड़ते हैं. सामंती स्थानीयता को तोड़ते हुए एक नई वैश्विकता की प्रस्तावना अपनी-अपनी विशिष्ट स्थितियों की आलोचना के क्रम में सामने आ रही थी. संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश की नकली साहित्यिक संस्कृति के आधिपत्य टूट रहे थे. साहित्य और धर्म और राजनीति की धुरी बदल रही थी. इतिहासकार इसे आरम्भिक आधुनिक काल की शुरुआत कहते हैं. हिंदी साहित्य का उद्भव स्वयं आरम्भिक आधुनिकता के उद्भव के साथ नाभि-नाल-बद्ध है. फिर इसे आदिकाल, मध्यकाल और आधुनिक काल में विभाजित करना स्वयं अमान्य हो जाता है. ऐसा काल विभाजन इतिहास की साम्राज्यवादी दृष्टि का परिणाम है.

हिंदी साहित्य के इतिहास की वास्तविक शुरुआत द्विवेदी जी संतों के साहित्य से मानते हैं. संतों के साहित्य में ही आरम्भिक आधुनिकता का क्रमभंग आन्दोलनधर्मी चरित्र अख्तियार करता है. यह डिग्निटी/आत्म-मर्यादा का निषेधात्मक आंदोलित स्वरुप है जो जाति/आत्मा/धर्म के रूपों में विरूपित होता रहा था और गर्भ में ही जिसकी हत्याएं होती रही थीं – शास्त्र और शस्त्र की हिंसा से बलात्कृत. गरीबों की आह का निषेधात्मक आन्दोलन जिसे ‘मुसलमानों के आक्रमण’ से ‘हतवीर्य’ ‘हिन्दू जनता की आह’ बता कर धर्म के स्वरुप में बाँधने की कोशिश इतिहासकार रामचंद्र शुक्ल करते हैं.

मर्यादा के निषेधात्मक आंदोलित स्वरुप को रामविलास जी ‘व्यापारी पूँजी’ के आगमन की सकारात्मकता में बाँधने की कोशिश करते हैं और अकारण नहीं कि धर्म की पुनर्स्थापना व्यापारी पूँजी की सकारात्मकता के साथ मिल कर एक ही इतिहास दृष्टि रचती है. शर्मा जी प्रेमचंद को तुलसी की परम्परा में बाँधते हैं. पेशगी राशि दे कर बुनकरों से काम करवाने (ददनी प्रथा) को शर्मा जी इतिहास के मामले में आगे बढ़ी हुई अवस्था करार देते हैं. मानो सामंत विरोधी आंदोलनों में ही ऐसा कुछ था जो आगे चलकर प्रगतिशील भारतीय पूँजीवाद को जन्म दे सकता था पर ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने अपनी प्रतिक्रियावादी और परमसत्तावादी राज्य चरित्र के कारण नए किस्म का सामन्तवाद पैदा किया. ‘पुनर्सामंतीभवन’/ री-फ्यूडलाइजेसन का यह तर्क ही पुरुषोत्तम अग्रवाल के यहाँ ‘औपनिवेशिक ज्ञान-काण्ड’ की तरह सामने आता है और कबीर आदि संतों को भारतीय आधुनिकता/ भारतीय पूँजीवाद के आदि विचारक की तरह पेश किया जाता है. यह इतिहास दृष्टि कबीर को गांधीवादी साबित करती है. अस्मिता की राजनीति सामन्ती और प्रतिक्रियावादी और औपनिवेशिक है जिसका उत्तर पैसे की सार्वभौमिकता के पास है! ‘’फेयर डील’ की यह विचारधारा हिंदी साहित्य के उद्भव के प्रश्न को फेटिसाइज़ करती है. कबीर आदि संतों के यहाँ मर्यादा के विकसित होते सामूहिक और निषेधात्मक आन्दोलन में आगामी इतिहास के बीज ढूंढने के क्रम में हम विछिन्न प्रवाह की नैसर्गिकता को पुनः सातत्य के क्रम में वियोजित कर लेते हैं. मार्क्स ने ऐसी इतिहास दृष्टि की आलोचना करते हुए बताया था कि बंदर की शरीर रचना में ऐसा कुछ भी आत्यंतिक नहीं है कि आगे चलकर वह होमो सेपियंस होगा. वरन यह होमो सेपियंस की शरीर रचना है जिसके सहारे देखने पर हम बंदर को अपना पूर्वज कहते हैं. इतिहास विछिन्न प्रवाह के सातत्य की संभावना को स्थगित करता है और इसी क्रम में इतिहास अपने धर्म का पालन करता है. यह स्थगन बिना हिंसा के असंभव है. हिंसा के अनुरूप ही ‘शक्ति, शील और सौन्दर्य’ के समाज का पुनर्निर्माण आवश्यक हो उठता है.

शुक्ल जी का वीरगाथा काल पहले ही तथ्यों के अलोक में अमान्य हो चुका है. कबीर और तुलसी दोनों की काव्य-प्रवृत्ति को ‘भक्ति’ की अवधारणा में औसत किया जाना उस ‘मानवतावादी’ इतिहास दृष्टि की उपज है जो मालिक और मजूर दोनों को ‘मनुष्य’ के नाम पर एक बनाता है और इस प्रकार दोनों की विशिष्ट और अंतर्विरोधी सामाजिक स्थितियों को रक्षित करते हुए असमानता या गैर-बराबरी को बहाल किये रहता है. मानवता गैर-बराबरी को ढंकने के क्रम में ही उजागर करता है. जैसे पैसे से और पैसा बनाने को ‘फेयर डील’ कहा जाता है. ‘फेयर डील’ महाजनी सभ्यता का तर्क है जिसे अग्रवाल जी कबीर में ढूंढते हैं और इस तरह ‘काव्योक्त’ ही सही भक्ति की अवधारणा में संतों के निषेधमूलक आन्दोलन को फिर से अलक्षित बना देते हैं. यह भक्ति की अवधारणा में शामिल सिद्धांत/शास्त्र और व्यवहार/काव्य के द्वैत को ही पुनुर्त्पादित करना है. यह संतों के यहाँ नई आलोचनात्मक दृष्टि के रूप में ‘व्यवहार के दर्शन’ के उन्मेष को, जिसे नामवर जी ‘अनुभवसम्मत विवेकवाद’ कहते हैं, उसकी नई भाषा को पुरानी शास्त्रीयता में बाँधने के अलावा कुछ नहीं है. इसे केवल दर्शन का नया व्यवहार नहीं कहा जा सकता और इसलिए कबीर आदि संतों का व्यवहार ‘नारदीय भक्ति सूत्र’ का काव्यानुवाद मात्र नहीं है. कबीर की प्रेम साधना नारदीय या शांडिल्य भक्ति नहीं है. भक्तिकाल कहने से हिंदी साहित्य के उद्भव में शामिल धर्म और साहित्य मात्र की मौलिक आलोचना नजरों से गायब हो जाती है.

संत काव्य के उन्मेष से रामभक्ति काव्य तक के ऐतिहासिक विकासक्रम को उलटे रंदे से छीलते हुए मुक्तिबोध जिस पहलू का उद्घाटन कर रहे थे वह आधुनिकता के विछिन्न प्रवाह तक पहुँचने की चेष्टा थी. विछिन्न प्रवाह की स्थगित निरंतरता को पहचानने का ही फल था कि द्विवेदी जी को प्रेमचंद आधुनिक कबीर लगते हैं. प्रेमचंद के साहित्य में मर्यादा के निषेधात्मक आन्दोलन का इतिहास विशिष्ट चरित्र आकार ग्रहण करता है. शुक्ल और प्रेमचंद बनारस में रहते हुए दो परस्पर विरोधी इतिहास दृष्टि का निर्माण कर रहे थे. नामवर जी ने कभी लिखा था कि जो लोग स्वयं इतिहास बदलने की चेष्टा में नहीं हैं वह इतिहास लिख भी नहीं सकते. इतिहास बदलने वाले समकालीन काव्य और गद्य के साथ शुक्ल नहीं थे. छायावाद सम्बन्धी उनकी आलोचना भी इसका प्रमाण है. शुक्ल भारतेंदु युग के अपने सिद्धांतकार थे, स्वयं जिनका एक पैर रीतिकाल में था. शुक्ल के इतिहास का सबसे उज्जवल पहलू रीति-काव्य की उनकी आलोचना है बाकी सारा इतिहास ‘धर्म’ के पुनर्स्थापन की हिंसात्मक चेष्टा है और इसलिए समकालीन है.

मार्तंड प्रगल्भा