सामुदायिक किचिन: खुलते-बंद होते गरीबों के भोजन रसोई

ग्राम वाणी फीचर्स 

साल 2019 या उससे पहले .. हममें से किसी ने भी नहीं सोचा था कि आने वाले साल में कोरोना जैसी महामारी से सामना होगा. तब और अब में अगर कुछ समान है तो वो है भूख के खिलाफ जंग. तब भी आबादी का बड़ा तबका भूक की जंग लड़ रहा था , बस केवल उसे उम्मीद थी की आने वाला कल बेहतर होगा , यह उम्मीद 2019 के बाद बिखरती हुयी हर जगह देखि जा सकती है , दिल्ली में 5 किलो मुफ्त अनाज के लिए सरकारी स्कूलों में लग रही लम्बी कतार सुबह के 4 बजे से राशन का इंतज़ार कर रहे लोग इस बात का प्रमाण दे रहे हैं किस प्रकार महामारी ने आजीविका के साधनों को आम गरीब जनों से छीना है , माननीय सुप्रीम कोर्ट ने 13 मई और 24 मई को  कोरोना महामारी के दूसरी लहर से परेशान भारत के कुल 8 करोड़ प्रवासी मजदूरों के लिए केंद्र और राज्यों को आदेश दिए कि वे अपने जिले, ब्लॉक स्तर और पंचायतों में कम्युनिटी किचन यानि सामुदायिक रसोई की स्थापना करें. जहां ये रसोई संचालित नहीं हो रहीं थी, वहां की राज्य सरकारों को नोटिस भी जारी किया गया. जस्टिस एनवी रमण की अध्यक्षता वाली पीठ ने अपन आदेश में कहा कि भूख और कुपोषण की वजह से पांच साल से कम उम्र के कई बच्चे मर जाते हैं और यह स्थिति भोजन के अधिकार और नागरिकों के जीवन के अधिकार समेत विभिन्न मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती है. इसलिए जरूरी है कि राज्य और केन्द्र सरकार नागरिकों को पर्याप्त भोजन उपलब्ध करवाए. 

इसके बाद जब हमारा देश कोरोना काल की दूसरी लहर से तबाह होगया तब एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट ने राज्य और केन्द्र सरकार को याद दिलाया कि उन्हें कम्युनिटी किचिन की स्थापना करनी थी? और पूछा कि उस आदेश का क्या हुआ? जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस एमआर शाह की पीठ ने कहा कि केंद्र सरकार को जरूरतमंदों का ख्याल रखते हुए ‘आत्मनिर्भर भारत योजना’ या फिर किसी भी दूसरी सरकारी योजना के तहत गरीबों को नि:शुल्क भोजन उपलब्ध करवाना चाहिए.  आप जानते हैं की न्यालय द्वारा राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत अगर कहीं कोई अकाल आता है तो उस क्षेत्र के सभी लोगों को चाहे उनके पास राशन कार्ड है या नहीं सभी को मुफ्त राशन और सम्मान पूर्ण जिंदगी जीने के लिए आर्थिक सहयोग देने की वकालत करता है.  

अगर लोगों को नि:शुल्क राशन और कम्युनिटी किचिन जैसी सुविधाएं मिल पा रही होती तो ग्राउंड से वो आवाजें नहीं आती जो मोबाइलवाणी तक पहुंच रहीं हैं. मोबाइलवाणी पर कई राज्यों के ग्रामीण इलाकों से उन लोगों ने अपनी व्यथा बताई है, जो इस तरह की योजनाओं के सुचारू होने की वाट जोह रही है.

राशन की दिक्कतें जस की तस

सामुदायिक रसोई का कॉन्सेप्ट तो नया है, इसके पहले से देश में जो नि:शुल्क राशन बांटे जाने का विज्ञापन रूपी प्रचार हो रहा है उसकी दिक्कतें अब तक दूर नहीं हो पाई हैं. मुख्य धरा की मीडिया वहां पहुंचा है जहां सरकार ने उन्हें पहुंचाया है और सरकार वहां पहुंची है जिन कुछ जगहों पर राशन पहुंचा. बाकी देश के गांव—कस्बे अभी भी भूख से जंग जारी रखे हुए हैं. मध्यप्रदेश के बडवानी के आवली गांव से भाकीराम खाते बताते हैं कि जब से देश में कोरोना संक्रमण फैला है तब से उन्हें राशन नहीं मिल रहा है. सरकार ने पिछले साल और इस साल भी नि:शुल्क राशन की घोषणा की लेकिन इसका उनके गांव में तो कोई असर नहीं है. 

अब बात करें वहां कि जहां राशन दिया जा रहा है, तो वहां परेशानी ये है कि राशन की गुणवत्ता ऐसी है कि गरीब उसे लेने में कतरा रहे हैं. मुंगेर के धरहरा प्रखंड के मानगढ़ गांव से गंगा चौधरी, सुभाष कुमार और मीना देवी ने मोबाइलवाणी संवाददाता को बताया कि उन्हें राशन तो दिया जा रहा है पर उसकी गुणवत्ता इतनी खराब है कि वो खाना बच्चों को खिलाने से डर लगता है. अगर आपको याद हो तो ऐसा ही मामला पिछले साल मध्यप्रदेश में सामने आया था. जहां हितग्राहियों को वो चावल बांट दिया गया जो मुर्गियों को खिलाने के लिए रखा जाता है. कुछ ऐसा ही हाल बिहार के गांवों का भी है. बहुत से हितग्राहियों का कहना है कि उन्हें थर्ड क्लास क्वालिटी का चावल आटा दिया जा रहा है. जिसमें पहले से ही फफूंद और कीडे और पत्थर होते हैं.

अगर आप सोच रहे हैं कि दिक्कत केवल जनवितरण प्रणाली में है तो ऐसा नहीं है. क्योंकि दिक्कतें उन सरकारी योजनाओं में भी हैं जहां से बच्चों को भोजन मिल सकता है. जैसे मिड डे मील और आंगनबाडी केन्द्र. ग़ाज़ीपुर ज़िले के जखनियां प्रखंड के जलालाबाद से मनोज कुमार कहते हैं कि बच्चों को मिड डे मील की राशि मिलनी थी या फिर उसके बदले सूखा राशन. लेकिन गांव के बच्चों तक ना राशि पहुंची ना ही राशन. इसके अलावा छोटे बच्चों को आंगनबाडी की ओर से जो राशन दिया जाना था वो भी नहीं बांटा गया. इस बारे में आंगनबाडी दीदी से बात करो तो वो हर बार टाल देती है. बच्चों के अलावा बुजुर्ग और विधवाएं भी इस तरह की सरकारी दिक्कतें झेल रही हैं. नालंदा के नगरनौसा प्रखंड से 70 वर्षीय जानकी देवी कहती हैं कि अब तक राशन मिल रहा था, कोई दिक्कत नहीं थी लेकिन पिछले 4—5 माह से राशन नहीं दिया गया. दुकानदार ने बताया कि उनका नाम लिस्ट में नहीं है. बाद में पता चला कि ब्लॉक स्तर पर जानकी देवी को मृत घोषित कर दिया गया है. ऐसा कैसे हुआ, किसी को नहीं पता. अब जानकी के घर में कोई और नहीं है जो इस भूल में सुधार करवा सके. 70 साल की जानकी अकेले सरकारी मुलाजिमों के सामने अपने जिंदा होने का सबूत पेश करती घूम रहीं हैं, वो भी बिना राशन—पानी के. 

ये भ्रष्ट्राचार वाली दिक्कतें

मोबाइलवाणी पर पहले भी इस तरह की शिकायतें आईं हैं जहां डीलर और दुकानदारों की मनमानी के चलते लोगों को राशन नहीं मिल पाया पर सोचा था लॉकडाउन के दौरान शायद इनका जमीर जाग जाए. लेकिन हकीकत क्या है….? सोनपुर प्रखंड के अंतर्गत सबलपुर मध्यवर्ती पंचायत वार्ड संख्या 2 से साक्षी कुमारी ने जानकारी दी कि गांव में जन वितरण प्रणाली के तहत बंटने वाला राशन अब तक नहीं दिया गया. कई महीनों से गरीबों को मांग कर खाना खाने पर मजबूर किया जा रहा है. जबकि गरीबों के नाम पर डीलर के पास हर माह राशन पहुंचता है. गुस्से में कुछ ग्रामीणों ने पहले तो डीलर के साथ मारपीट की और फिर इसकी शिकायत विभाग में भी की गई. लेकिन दिक्कत ये है कि विभाग के लोगों को ग्रामीणों द्वारा की गई मारपीट दिखाई दे रही है, डीलर की मनमानी नहीं.

भूखा आदमी और कर भी क्या सकता है. वह मार सकता है खुद को या फिर उसको जो उसके हिस्से का भोजन खा गया? वह लड़ नहीं सकता, ना भूख से ना प्रशासन से. इसतरह की घटनाओं में हर बार मजदूर और गरीब वर्ग बनते हैं  पर ये जांच या कार्रवाई कोई नहीं करता कि आखिर मारने वालों के पेट खाली और हाथ हथियारों से कैसे भर गए? गैर बराबरी कैसे मिटे इस पर न तो प्रसाशन और न ही सरकार कोई अमली जामा पहनती दिख रही है, कहा गया क्या की लॉक डाउन सभी को एक प्रकार से प्रभावित किया , माद्यम वर्ग कितने हैं जिन्हें खाने इ दिक्कत हुई वही निम्न वर्ग तो भूक से लड़ते और मारने पर मजबूर हैं.   दिक्कते ये है कि ये घटनाएं लगभग हर रोज किसी ना किसी गांव में घट रही हैं पर सरकारी तंत्र भ्रष्टाचार के मसले पर शांत है. छिंदवाड़ा जिला से योगेश गौतम बताते हैं कि शासन के निर्देश पर सोसायटी ने हितग्राहियों को राशन तो दिया लेकिन इसके बदले उनसे राशि भी वसूल की. जब कुछ लोगों ने इसकी शिकायत की तो राशि वापिस कर दी गई. लेकिन अब लोगों को नई दिक्कत आ रही है. डीलर चावल—आटा तो हितग्राहियों को दे रहा है लेकिन नमक के बदले पैसे लिए जा रहे हैं. जरूरतमंद कहते हैं कि सरकार घोषणाएं तो कर देती है पर उसका लाभ लेना हमारे लिए मुश्किल होता जा रहा है. डीलर और सोसायटी कहीं ना कहीं से अपने लिए पैसे उगाही का जरिया तलाश ही लेते हैं. मुंगेर से अनीता देवी कहती हैं कि सरकार केवल अखबारों और टीवी पर बोल रही है कि हम राशन देंगे गरीबों को… हम गरीब हैं, हमें तो कोई राशन नहीं मिला. विधवा हैं.. पेंशन नहीं मिली. सारे कागजात हैं, जिनकों लेकर एक बाबू से दूसरे बाबू की टेबल  पर जाते हैं पर कोई सुनता ही नहीं. गांव में मनरेगा के तहत काम नहीं मिला. बाहर काम करने जाओ तो पुलिस वाले भगा देते हैं. अब बताओ बच्चों का पेट कैसे भरें? सरकार कुछ दे नहीं रही, हम कुछ कमा नहीं सकते.. अब तो भूख से मर ही सकते हैं बस.

पहले वैक्सीन नही तो  राशन नहीं 

इन सबके बीच डीलरों को गरीबों से लूट का एक नया तरीका मिल गया है. उत्तरप्रदेश के अनूपपुर से तो अजीब मामला सामने आया है. यहां से मोबाइलवाणी के एक श्रोता पंकज कुमार ने बताया कि उनके पास राशन कार्ड है पर राशन नहीं दिया जा रहा. असल में डीलर और दुकानदार कहते हैं कि पहले कोरोना बचाव की वैक्सीन लगवाओ और फिर राशन लेने आओ. पंकज कहते हैं कि इस शर्त के चक्कर में कई परिवार राशन पाने से वंचित है. इतना ही नहीं गांव में वैक्सीन लगवाने के लिए शिविर भी नहीं लग रहा है. अगर वैक्सीनेशन का काम शुरू हो जाए तो दोे दिन में ही टीके खत्म हो जाते हैं. यानि इस नए पैंतरे के तहत डीलर राशन की बचत कर रहे हैं. बाद में यही राशन दुकानों पर बेच दिया जाता है. लेकिन जब इन जनवितरण प्रणाली के दूकानदार से पूछा गया की उनके पास ऐसा फरमान कहाँ से आया तो उनके पास कोई ठोस जवाब नहीं था , अब उतर प्रदेश की सुसाशन की सरकार के पास इसका भी कोई न कोई जवाब जरूर होगा. 

इतनी भी क्या जल्दी थी?

अब बात करें, सरकारी रेस्टारेंट की यानि सामुदायिक किचिन की. इन्हें सरकारी रेस्त्रां इसलिए कहा गया क्योंकि ये सरकारी दावों की तरह बस दिखावे के ही रहे. इनके खुलने का जितना शोर मचाया गया बंद होने पर उतनी ही शांति है. सरकारी रेस्टोरेंट के शटर कब खुले कब बंद हुए पता ही नहीं चला. आवाज एनजीओ के सचिव नरेश कुमार सेन कहते हैं कि सरकार के वायदे बस कागजों और टीवी पर हैं. जिस कम्युनिटी किचिन की बात की जा रही है वो असल में फैक्ट्री और कारखाने के आसपास है ही नहीं. कुछ शहरी इलाकों में जरूर रसोई चल रहीं हैं पर मजदूरों के लिए काम छोड़कर उतने दूर खाने के लिए जाना मुमकिन नहीं है. योजना के हिसाब से हर इंड्रस्ट्रीयल एरिया में कम से कम 2 से 3 कम्युनिटी किचिन होने थे पर पूरा लॉकडाउन खत्म हो गया लेकिन किचिन नहीं खुल पाए. 

कम्युनिटी किचिन के मुद्दे पर सीआईटीयू के नोएडा प्रदेश अध्यक्ष गंगेश्वर दत्त शर्मा कहते हैं कि कोर्ट के आदेश के बाद भी सरकार ने मजदूरों के लिए पर्याप्त कम्युनिटी किचिन शुरू नहीं किए हैं. जो चल रहें हैं वहां खाना खत्म हो जाता है. प्रवासी मजदूरों के सामने दिक्कतें ज्यादा हैं, क्योंकि अब उन्हें काम देने वालों पर ज्यादा भरोसा नहीं है. ऐसा लगता है कि कभी भी लॉकडाउन लग जाएगा इसलिए वो अपने साथ ज्यादा सामान नहीं लाए हैं. अब अगर इन्हें खाना भी नहीं मिल पाएगा तो वो कैसे काम करेंगे? खाना मिलने ना मिलने की परेशानियों के बीच बहुत से राज्यों से खबरें आ रही हैं कि वहां कम्युनिटी किचिन बंद कर दिए गए हैं. वैशाली जिले के महनार में चलने वाला इकलौता सामुदायिक किचिन खुलने के बाद से ही विवादों में रहा. पहले यहां साफ सफाई ना होने की शिकायतें आईं इसके बाद बिजली चोरी की. जैसे तैसे समस्याओं का समाधान हो रहा था, पर लॉकडाउन खुलने के दूसरे दिन ही किचिन में ताला लगा दिया गया. जिलाधिकारी उदिता सिंह ने मामले की जांच के आदेश दिए, प्रखंड अधिकारी को समस्याएं दूर करने के लिए कहा पर कुछ हो पाता इसके पहले ही किचिन बंद हो गया. मजदूरों का कहना है कि प्रशासन को रसोई बंद करने की इतनी जल्दी क्या था? वैसे भी एक वक्त खाना खा रहे हैं, उसमें भी कभी खाना मिलता था कभी नहीं. पर अनलॉक के बाद तो किचिन ऐसे बंद हुआ जैसे बाजार खुलते ही हमें पैसे मिल जाएंगे? 

यही दिक्कत सीवान के मजदूरों के साथ भी आ रही है. यहां आदर प्रखंड क्षेत्र के उच्च विद्यालय में चल रहे कम्युनिटी किचिन में अनलॉक के अगले दिन ही बंद कर दिया गया. अंचलाधिकारी रामेश्वर राम ने तर्क दिया कि अनलॉक के बाद मजदूर दूसरे शहर काम के लिए चले जाएंगे तो फिर किचिन का क्या फायदा? सिसवन प्रखंड क्षेत्र के कन्या मध्य विद्यालय का कम्युनिटी किचिन भी इसी तर्क के साथ बंद किया जा चुका है. अंचलाधिकारी इंद्रवंश राय ने कहा कि अब अनलॉक हो गया है, मजदूर काम करें और खाना खाएं. किचिन को बंद किया जा रहा है. अब जरा इस तर्क के बारे में सोचिए… सरकार यह माने बैठी है कि मजदूर बाहर जाएंगे ही! क्यों? क्या उन्हें रोकने के लिए अपने राज्य में काम की व्यवस्था नहीं की जा सकती? और अगर जाएंगे भी तो अनलॉक के अगले दिन ही राज्य मजदूरों से खाली हो जाएंगे? सवाल ये है कि कम्युनिटी किचिन मजदूरों के अकेले के लिए नहीं बल्कि उन सभी निराश्रित गरीबों के लिए खोले गए थे जो खाने का इन्तेजाम करने में अक्षम थे. राज्य सरकार इन्हीं अक्षम परिवारों के कल्याण का डीएम भारती है, अन्य योजना के माध्यम से लोन पर अनाज दिया जाता है और बाद में उसकी रकम वसूली जाती है , यह है हमरे कल्याणकारी राज्य की कल्याणकारी नीति सरकार यह मान बैठी है की  प्रवासी मजदूरों के जाने के बाद भी जो गरीब गांव, शहरों और कस्बों में रह जाएंगे वे भूखे रहें? सवाल यह है की जिस देश और राज्य की सरकार 80 करोड़ या उससे अधिक परिवारों का पेट भरने के लिए राष्ट्र के नाम संबोधन करे क्या कभी इन गरीब , असहाय , निराश्रित परिवारों की खोज खबर लेती है और उनके जीवन के अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए कुछ करती है , क्यों की यहीं परिवार पहले कभी विकास को गति देने के लिए फक्ट्री के पहिया तो कहीं अपने श्रम बल के आधार पर कंपनी की संपत्ति का अम्बार खड़ा किया है , तभी तो भारत से स्विस बैंक में जमा धारकों की संख्या में इजाफा होता है , मल्टी नेशनल कंपनी को सीधे तौर पर निवेश के लिए हमारे प्रधान सेवक निमंत्रण देते हैं , राज्य और केंद्र सरकारें वाइब्रेंट सबमिट करती रही है . 

ऐसे बहुत से सवाल हैं, जिनके स्थाई हल तलाशने की जरूरत है. बात ये है कि जब संसद में चल रही सरकारी रसोई सत्ताधारियों को कम दाम में सबसे बेहतर क्वालिटी का भोजन दे सकती है तो फिर देश के गली मोहल्लों में गरीबों के लिए खोले गए कम्युनिटी किचिन पर ताले क्यों? क्या गारंटी है कि अनलॉक होते ही हर मजदूर को काम मिल चुका होगा? शहरों में तो लेबर चौक पर दिन भर मजदूर काम की तलाश करते ही रह जाते हैं, कम्पनियाँ बंद हो चुकी हैं या कम मजदूरों के साथ काम कर रही है , कम मजदूर से काम करवाना या कंप बंद होने का कारण कम्पनी मालिक मांग में कमी बताते हैं,  देश में कोरोना काल के पहले भी भुखमरी थी आज हालात और भी बदत्तर हैं. जब इस तरह की रसोईयों और सूखे राशन को बांटने की सबसे ज्यादा जरूरत है तो फिर क्यों सरकार उन्हें गोदामों में रख कर  सड़ा देने का आनंद ले रही है?