आम आदमी के लिए टीकाकरण उतना ही मुश्किल जितना कोरोना का इलाज

ग्राम वाणी फीचर्स
भारत में कोरोना वायरस की दूसरी लहर के बीच सरकार ने आम आदमी के लिए कोरोना टीकाकरण की राह खोल दी है. बजुर्गों और प्रौढ के बाद अब युवा भी कोरोना का टीका लगवा सकते हैं पर कैसे? शहरों में भले ही टीका लगवाने में दिक्कतें कम हों लेकिन गांव में तो यह काम चुनौती बन गया है. कोरोना की दूसरी लहर में जहां सबसे बुरे हालात गांव में बने वही हालात फिर से टीकाकरण के दौरान बन रहे हैं. इसके पीछे सरकार की वो प्रक्रिया है, जिसपर चलते हुए टीकाकरण केन्द्र तक पहुंचा जा सकता है. यह प्रक्रिया ही इतनी जटिल है कि आम आदमी टीका लगवाने की बताए घर में दुबके बैठे रहने को ही एकमात्र रास्ता समझ रहा है.
हालांकि केन्द्र सरकार ने कोरोना टीकाकरण के लिए डिजिटल पंजीयन की अनिवार्यता खत्म करने की बात की है लेकिन इस संबंध में अब तक आदेश—निर्देश जारी नहीं हुए हैं. दूसरी तरफ नेशनल हेल्थ अथोरिटी के वरिष्ट अधिकारी आर एस शर्मा ने कहा है की ग्रामीण छेत्रों के नागरिक को कोरोना के वैक्सीन के पंजीयन के लिए सरकार की और से सभी सामजिक सुविधा केंद्र को वैक्सीन पंजीयन की अनुमति दे दी गयी है, यहाँ ग्रामीण जाकर अपना पंजीयन और टीके का स्लॉट बुक कर सकते हैं , इसके लिए उन्हें कोई शुल्क नहीं देना होगा , साथ ही उन्होंने ये भी कहाँ की अब ग्रामीणों के लिए टोल फ्री नंबर – 1075 पर फ़ोन कर पंजीयन कर सकते हैं , इनका दावा है की जो समाजक संस्था और अन्य लोग डिजिटल डिवाइड की बात करते हैं वो भूल जाते हैं की हमारे कविन प्लेटफोर्म पर ग्रामीण छेत्रों से 45 साल से अधिक उम्र के लोग 50 प्रतिशत से जयादा ऑनलाइन टीके का पंजीयन किया और टीका लगवाया है, अब इन्हें कौन बताए की आबादी का अब केवल २-३% प्रतिशत आबादी को ही कोरोना का टीका लगा है. ग्रामीण छेत्रों में चूँकि स्थानीय वासी कोरोना का टीका लेने से हिचक रहे हैं इसलिए वहां टीका की उपलब्धता रहती है और शहरी छेत्रों से लोग जाकर ग्रामीणों के लिए आवंटित टीके पर अपना हक जता कर टीका लगवाते हैं . सच्चाई यह है की अधिकांश राज्यों में अब भी ऑनलाइन पंजीयन और स्लॉट बुकिंग के बाद ही टीके लग रहे हैं. यही कारण है कि जो लोग इस प्रक्रिया को फॉलो नहीं कर पा रहे हैं वे परेशान हैं और उनके हिस्से की वैक्सीन नालियों में बह रही है. इसके अलावा और भी बुनियादी दिक्कतें हैं, जिसे सुलझाने के लिए सरकार को काम करना चाहिए. टीका करण पंजीयन और इसकी उपलब्धता वह भी किसी ऐसे माध्यम पर जहाँ गरीब ग्रामीण आबादी की पहुँच नहीं है दर्शाता है की किस प्रकार पूरी नीति निर्धारक दस्ता ग्रामीणों की समस्या और उसके संधान के प्रति उदासीन है , यूं कहें की शहरी चश्में से ग्रामीणों को देखने का यह निष्ठुर प्रयास है.
जब टीकाकरण और उसमें आरही परेशानियों को समझने का प्रयास मोबाइल वाणी ने किया तो ग्रामीणों ने खुद मोबाइलवाणी पर बताया. मोबाइलवाणी पर चल रहे अभियान कोरोना और जिंदगी के तहत 500 से भी ज्यादा लोगों ने कोरोना बचाव टीकाकरण पर अपनी राय साझा की. इस दौरान अधिकांश लोगों ने वो हकीकत बयां की जो सरकार के उस दावे को झुठलाती है जिसमें कहा जा रहा है कि वैक्सीनेशन का काम जोरों पर है और जनता सुरक्षित हो रही है!
टीकाकरण सेंटर्स की कमी
भारत की कुल आबादी 136 करोड़ के आसपास है जबकि सरकारी डेटा के मुताबिक अबतक महज 19 करोड़ लोगों को ही वैक्सीन लग पाई है. इस बीच वैज्ञानिकों ने स्पष्ट कर दिया है कि कोरोना की तीसरी लहर आएगी और अगर ज्यादा से ज्यादा लोगों को इसके पहले वैक्सीन नहीं लगी तो इस बार की तबाही पहले से कई गुना ज्यादा होगी. भारत में वैक्सीनेशन की प्रक्रिया पर नज़र डाली जाए तो अभी भी डोर टू डोर वैक्सीनेशन तो दूर शहर के हर अस्पताल में ही वैक्सीन नहीं पहुंच सकी है. गांवों के वैक्सीनेशन सेंटर खाली हैं. राज्य सरकारें लाख दावा कर लें कि उनके राज्य में वैक्सीनेशन का कार्य बेहतर ढ़ंग से किया जा रहा है, लेकिन सच यही है कि लगभग हर राज्य में टीकाकरण का काम मुश्किल से चल पा रहा है.
झारखण्ड के हजारीबाग के ही विष्णुगढ़ से रंजीत कुमार कहते हैं कि मैं टीका लगवाना चाहता हूं. मेरे पास स्मार्ट फोन भी है पर दिक्कत ये है कि हमारे गांव में कहीं भी टीकाकरण केन्द्र नहीं बना है. जो केन्द्र एप पर दिखाई दे रहे हैं वे हमारे यहां से बहुत दूर हैं. ऐसे बहुत सारे और लोग भी हैं जो केन्द्र दूर होने की वजह से टीका लगवाने नहीं जा पा रहे हैं. लॉकडाउन के कारण परिवहन पहले ही बंद है, ऐसे में हर किसी के लिए निजी वाहन का इंतजाम करना और टीका लगवाने जाना संभव नहीं है. हज़ारीबाग से ही बसंती देवी मोबाइलवाणी पर बताती हैं कि टीका लगवाना भी चाहते हैं तो नही लगवा सकते, क्योंकि टीकाकरण केन्द्र गांव से बहुत दूर है. बसंती अपना अनुभव बताते हुए कहती हैं कि मैं बर्तन धोकर अपना परिवार पालती हूं. लॉकडाउन के कारण ये काम भी बंद हो गया है. घर में जैसे तैसे गुजारा कर रहे हैं. जब टीकाकरण होने की बात पता चली तो मैं केन्द्र तक पहुंची लेकिन वहां पहुंचने में मेरे 250 रुपए खर्च हो गए. अगर परिवार के हर सदस्य को अलग—अलग जाकर टीका लगवाना पडा तो ये बहुत महंगा पड जाएगा. हमारे जैसे गरीब परिवारों के लिए तो यह मुमकिन ही नहीं है. इससे तो अच्छा है कि टीका गांव में लगे, ताकि पैदल जा सकें.
शहर के कुछ अस्पतालों में वैक्सीनेशन सेंटर बनाया गया है जहां लंबी लंबी कतारे हैं जबकि शहर का 80-90 प्रतिशत नागरिक अभी भी इन वैक्सीनेशन सेंटरों से दूर है. वहीं भारत में ग्रामीण क्षेत्रों में करीब 65-70 फीसदी नागरिक निवास करते हैं लेकिन वैक्सीनेशन प्रक्रिया में इन्हें पूरी तरह से नज़रअंदाज़ कर दिया गया है. ग्रामीण इलाकों में सीएचसी अस्पतालों में वैक्सीनेशन किया जा रहा है. मगर गांव के लोग अभी इस बात से ही अंजान हैं और जो लोग जानते भी हैं तो वो अफवाहों का शिकार हो गए हैं.
पंजीयन की कठिन राह
बिहार के समस्तीपुर से धीरज कुमार कहते हैं, पहले तो कोविड वैक्सीन के लिए पंजीयन ही नहीं हो रहा था. फिर जैसे तैसे पंजीयन हुआ तो मुश्किल से स्लॉट मिला लेकिन अब तक वैक्सीन ही नहीं लग पाई है. धीरज काफी समय से वैक्सीन सेंटर पर वैक्सीन आने का इंतजार कर रहे हैं. अगर आप सोच रहे हैं कि यह स्थिति बिहार जैसे गरीब राज्य की है तो ये गलत है. क्योंकि दिल्ली से सटे मानेसर में काम करने वाले प्रवासी श्रमिक अर्जुन अपने दोस्तों के साथ कोरोना टीका लगवाने के लिए तैयार हैं पर दिक्कत ये है कि उनका पंजीयन ही नहीं हो रहा. अर्जुन कहते हैं कभी सर्वर डाउन रहता है तो कभी ओटीपी ही नहीं आता. सब हो जाए तो स्लॉट नहीं मिलता. कुल मिलाकर कोरोना का टीका लगवाना कोरोना के इलाज कराने जैसा मुश्किल होता जा रहा है. इसी तरह मध्यप्रदेश के शिवपुरी से कृष्ण कुमार बताते हैं कि वो और उनके साथी, जो 18 साल से ज्यादा उम्र के हैं, कई दिनों से कोविन एप पर स्लॉट बुक करने की कोशिश कर रहे हैं पर उनका नम्बर ही नहीं आ रहा. इस बीच वैक्सीन खत्म हो जाने या खराब हो जाने की शिकायत है. वे कहते हैं कि सरकार ने टीकाकरण की प्रक्रिया को इतना मुश्किल बना दिया है कि जो लोग टीका लगवाना भी चाहते हैं वो इन दिक्कतों के कारण नहीं लगवा पा रहे हैं. ऐसे में लोगों का मनोबल टूट रहा है. ये धारणा बनने लगी है कि वैक्सीन लगाने की झंझट से अच्छा है घर बैठो.
भारत में जुलाई तक वैक्सीन की 50 करोड़ डोज़ बनाने और 25 करोड़ लोगों का टीकाकरण करने की योजना है. लेकिन जिस गति से टीकाकरण अभियान चल रहा है उससे हम लक्ष्य के आसपास भी कहीं दिखाई नहीं देते. देश का 42 साल पुराना टीकाकरण अभियान दुनिया के सबसे बड़े स्वास्थ्य अभियानों में से एक है जिसे 55 करोड़ लोगों तक पहुंचाया जाता है. इनमें खासतौर पर नवजात शिशु और गर्भवती महिलाएं शामिल हैं जिन्हें हर साल कई बीमारियों से बचाव के लिए वैक्सीन की करीब 39 करोड़ मुफ्त खुराकें मिलती हैं. बावजूद इसके हम बाकी देशों की तुलना में काफी पीछे हैं.
वैक्सीन प्रभावी रहे इसके लिए ज़रूरी है कि उसे उचित तापमान पर स्टोर किया जाए. भारत में 27,000 कोल्ड स्टोर्स हैं जहां से संग्रहित की गईं वैक्सीन को 80 लाख स्थानों पर पहुंचाया जा सकता है. लेकिन, क्या ये पर्याप्त होगा? शायद नहीं ही है, तभी तो टीके की बहुत सी खुराकें बेकार जा रहीं हैं. भारत में आम तौर पर होने वाले टीकाकरण कार्यक्रम को पूरा करने के लिए क़रीब 40 लाख डॉक्टर और नर्सों की ज़रूरत होती है. लेकिन, कोविड-19 के टीकाकरण के लिए और ज्यादा डॉक्टर्स चाहिए, जोकि हमारे पास नहीं हैं. इस काम में आशा और एएनएम कार्यकर्ताओं की मदद ली जा रही है पर इनके पास भी कोविड के जोखिमों से निपटने के हथियार, जैसे दवाएं, मास्क, सैनेटाइजर नहीं हैं.
अफवाहों से कैसे निपटेगी सरकार?
बिहार के गिद्धौर से रंजन कुमार बताते हैं कि बिहार सरकार ने कई बार लॉकडाउन की मियाद को बढाया है पर इससे उन लोगों को ज्यादा परेशानी आ रही है जो दिहाडी करके घर चलाते हैं. मनरेगा के काम भी बंद जैसे ही हैं. अब एक ही तरीका है कि हर वर्ग को कोरोना वैक्सीन लग जाए लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा. टीका लगने के बाद बुखार का आना और टीका लगने के बाद भी कोरोना का होना.. ये सारी बातें ग्रामीणों के दिमाग में इस तरह बैठी हैं कि वे टीकाकरण केन्द्र में पहुंचना ही नहीं चाहते. सरकार को टीकाकरण केन्द्र खोलने से पहले जरूरी है कि वे लोगों में जागरूकता फैलाएं. क्योंकि जब से कोरोना संक्रमण फैला है तब से अब तक बहुत तरह की अफवाहें भी फैली हैं जिससे लोग कई तरह के भ्रम पाले बैठे हैं.
बिहार में रह रहे प्रवासी मजदूर रवि कहते हैं कि उनके गांव में कोरोना वैक्सीन लगने के बाद कई लोगों की मौत हुई है. अब ये मौतें चाहे किसी भी वजह से हुई हों, लेकिन लोगों को यही लग रहा है कि वैक्सीन के कारण ऐसा हुआ. इसलिए अब टीकाकरण केन्द्रों पर कोई नहीं पहुंच रहा है. इस तरह की और भी खबरें हैं जो देश के अलग—अलग हिस्सों से आ रहीं हैं. उत्तर प्रदेश के डालीगंज की महिलाओं से जब मोबाइलवाणी ने टीकाकरण के संबंध में बात की तो उनके बीच अजीब से भय का पता चला. इनमें से एक सुहानी कहती हैं कि हम लोग टीका नहीं लगवाएंगे. जब हमें कोई बीमारी हुई ही नहीं तो टीका किस बात का? यानि महिलाओं के हिसाब से कोरोना का टीका उन लोगों को लगना चाहिए, जिन्हें संक्रमण हो चुका है. इस भ्रम के चक्कर में अधिकांश परिवारों में लोग टीका लगवाने के प्रति उत्साह नहीं दिखा रहे हैं.
कुल मिलाकर कोरोना टीकाकरण की राह में अफवाहें भी मुश्किल पैदा कर रही हैं. अगर सरकारें किसी तरह पंचायतों तक टीके पहुंचा भी दें, तो गांव वाले इन्हें अपनाने से कतरा रहे हैं. नतीजतन टीके की खुराक खराब हो रहीं हैं. ये सब तक है जब पहले ही हमारा देश टीके की कमी से जूझ रहा है. सरकार को खासतौर पर ग्रामीण भारत में टीकाकरण अभियान से पहले उसके प्रति जागरूकता पर काम करना चाहिए था. केवल टीके की डोज भिजवा देने से गांवों में काम नहीं चलेगा. यहां अफवाहें ज्यादा तेजी से फैलती हैं और लोग उन पर विश्वास भी करते हैं. इसलिए जरूरी है कि गांवों में टीकाकरण अभियान के प्रति जागरूकता पैदा की जाए. साथ ही ग्रामीणों के साथ बैठकर उनके सवालों के जवाब दिए जाएं. इस धारणा को कमजोर करना बहुत जरूरी है कि टीका हमारे शरीर के लिए नुकसानदायक है.
इन सब समस्याओं से अलग एक दूसरी दिक्कत है कि सरकार ने यह मान लिया है कि भारत का पूर्ण रूप से डिजिटलाइजेशन हो चुका है. जनता जागरूक है और वो विश्वास कर रही है सरकार के हर कार्य पर! चूंकि अगर ऐसा होता तो देश में दोबारा लॉकडाउन लगाने की नौबत नहीं आती. असल में स्मार्ट फोन इस्तेमाल करने वालों की जंग अफवाहों से लडकर—जीतकर कोरोना टीकाकरण केन्द्र तक पहुंचने की है पर इन सबसे अलग दिक्कत उन लोगों की है जिनका तकनीक से अब तक वास्ता ही पडा है. उत्तर प्रदेश सरकार, जो कोविड टेस्ट और टीकाकरण में नम्बरों की राजनीति कर रही है. कोविड बचाव के टीके राजधानी में किसी को लगें हो या न लगे हैं हों पर मुख्यमंत्री का टीकाकरण वाला पोस्टर प्रदेश के गली मोहल्लों में चस्पा कर दिया गया है. लेकिन बुनियादी दिक्कतें क्या हैं, वो वहां के रहवासी बताते हैं. जैसे लखनउ के डालीगंज से रजनी ने मोबाइलवाणी पर बताया कि उनके पास स्मार्ट फोन नहीं हैं कि वो टीकाकरण के लिए पंजीयन करवा सकें. रजनी अकेली नहीं है, वो कहती हैं कि मेरे मोहल्ले और आसपास में कई ऐसे परिवार हैं जहां अब भी फीचर फोन उपयोग होता है. इनमें से किसी ने भी टीकाकरण के लिए पंजीयन नहीं करवाया है.
निष्कर्ष:
ये सभी वे चुनौतियां हैं जो इस समय देश का आम आदमी भोग रहा है. सरकार का सारा ध्यान ज्यादा से ज्यादा लोगों को टीका लगाने पर है लेकिन ये तब होगा जब जनता टीके पर भरोसा जताएगी. इस काम के लिए राज्य और केन्द्र सरकार को मिलकर काम करने की जरूरत है. यह बहुत जरूरी है कि हम टीकाकरण की राह में आ रही तकनीकी दिक्कतों को दूर करें. लोगों के लिए टीका लगवाना सहज बनाएं ताकि वे इसे बोझ ना समझें. हाल ही में सरकार ने जो निर्णय लिया है वह स्वागत योग्य है पर इस निर्णय का पालन अब भी राज्यों में नहीं हो रहा है. टीकाकरण केन्द्रों पर डिजिटल पंजीयन की मांग, स्लॉट बुकिंग और आधार कार्ड जैसी अनिवार्यताएं बनी हुईं हैं. इसके साथ ही अफवाहों का बाजार भी गर्म है. बुनियादी तौरपर नौकशाहों , अफसरों और नीति निर्धारकों , नीति आयोग और जो कुशल टेक्नोक्रैट भारत की पूरी आबादी को तकनीक का चूरन पिलाकर उनकी साड़ी समस्या को छु मंतर करने का मंत्र मंत्रालय और अन्य संस्थाओं को देते और इनकी ही राय पर आए दिन कभी आरोग्य सेतु तो कभी कोविन और उमंग जैसे नए- नए एप का बाजार गर्म होजाता है लेकिन वे भूल जाते हैं की ग्रामीण आबादी जिसमें निरक्षरता , डिजिटल माध्यम को उपयोग करने और उसका का खर्च वहन करने लायक अभी इनकी आमदनी नहीं है और न ही इन्टरनेट की सुगमता ग्रामीण और दूर दराज के छेत्रों में हैं. क्या कभी किसी अधिकारी ने इस एप को लांच करते समय दूर दराज के आदिवासी ,घूमंतू और निरक्षर समुदाय को नज़र में रख कर इसप्रकार के निति का निर्माण किया होगा? कहना होगा यह सभी समुदाय हमारी चमक चौंध वाली खूबसूरत ईमारत में बैठे ऐसे अधिकारी की आखों से दूर हैं, इनके पाँव कभी इसं बस्तियों में पड़ते नहीं इसलिए इनकी समस्याओं से अनजान होकर निति का निर्माण करते हैं , 4 घंटे के अन्तराल पर तालाबंदी होती है और गरीब मजदूर ,प्रवासी मजदूरों को पैदल चल कर घर पहुँचने , भूके मरने के लिए छोड़ दिया जाता है? बाद में आर्थिक योजनाओं का बाढ़ ला कर इन्हें रिझाया जाता है. कुल मिलाकर अगर ऐसी ही निति बनी रही तो भारत में टीकाकरण का लक्ष्य पाना सरकार के लिए आसान नहीं होगा.