बाबा रामदेव के गले में किसकी आवाज है?

गुलज़ार हुसैन
बाबा रामदेव ने मेडिकल साइंस के खिलाफ जो लगातार नफरत फैलाई है, उसके संकेत बहुत गंभीर हैं। चेचक, एड्स, कैंसर, टीबी और न जाने कितनी बीमरियों से मानव जीवन को बचाने में जिस मेडिकल साइंस ने अतुलनीय योगदान दिया है, उसे कमतर और बदनाम करने की कोशिश ऐसे ही नहीं हो रही है।
इसमें कुछ ताकतवर संगठन की सुनियोजित साजिश लग रही है। एक संगठन जिस तरह सेक्युलर संविधान बदलना चाहता है…जिस तरह वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाली शिक्षा को जड़ से उखाड़ देना चाहता है, ठीक वैसे ही यह मेडिकल साइंस की जगह अंधविश्वासी चिकित्सा को भी खड़ा करना चाहता है।
बाबा रामदेव प्रकृति प्रदत्त चीजों को अपने ब्रांड से बेचते हैं, इसमें कुछ गलत नहीं है, लेकिन यह तो मार्केटिंग है, इसमें उनका क्या इतना योगदान हो गया कि वे दुनिया भर में सफल मेडिकल साइंस से सवाल कर सकें? क्या फलों के जूस को दवाई कह दिया जा सकता है?
हमारे घर के पास नीम और आंवले का पेड़ है, तो उसके पत्तों का रस अगर हम अपने नाम से बेचने लगें, तो क्या हम मेडिकल साइंस से उपर हो गए? प्रकृति प्रदत्त चीजों को डब्बे में भर कर बेचना और सदियों के रिसर्च के बाद बनी दवाइयों की भला क्या तुलना हो सकती है।
वैज्ञानिकों की लंबी खोज के बाद, प्रयोगों, निरीक्षणों और वेरिफिकेशन के बाद बनी दवाइयों का महत्व इलाज के लिए है। यह अकाट्य सत्य है। और यह भी सत्य है कि प्रकृति प्रदत्त फलों, मसालों के गुणों के बारे में भी मेडिकल साइंस ही बताता रहा है। ये निस्संदेह पौष्टिक हैं, लेकिन ये कुष्ठ रोगों की दवा नहीं हो सकते।
किडनी या हृदय के ट्रांसप्लांट करने की कोशिश क्या किसी अन्य कथित घरेलू चिकित्सा पद्धति में संभव है? क्या कथित योग और मसालों के मिश्रण से बने हलवे घोल से पथरी, कैंसर, टीबी का इलाज संभव है? प्रकृति प्रदत्त पौष्टिक खाद्य पदार्थों और दवाइयों की कोई तुलना की जा सकती है क्या?
सवाल यह है कि मेडिकल साइंस के समकक्ष ‘हर्बल मार्केटिंग’ को चिकित्सा पद्धति बताते हुए खड़ा करना कहीं आने वाले समय में विज्ञान को बांधने की साजिश तो नहीं है?
(फेसबुक वाल से साभार )