इजराइल उड़ाता रहा है अंतरराष्ट्रीय मानवीय कानून की धज्जियां

रिज़वान रहमान

संघर्ष और युद्ध में “नैतिकता” की चर्चा ग्रीक, रोमन, भारतीय और चीनी सभ्यताओं में मिलती है। इसके अलावा इसका उल्लेख तमाम धार्मिक ग्रंथ में है। पुनर्जागरण काल ​​में इसे काफी बढ़ावा मिला। इसी दौर में ह्यूगो ग्रोटियस (1583-1645) जो एक डच फिलोसोफर थे, और डी जुरे बेलि एसी पैकिस (द राइट्स ऑफ वॉर एंड पीस के लेखक), ने युद्ध के लिए शर्तें लिखी जिसे आज व्यापक रूप में माना जाता है।

इसी क्रम में 20वीं सदी में जेनेवा और हेग के कन्वेंशन में, अंतरराष्ट्रीय मानवीय कानून (IHL), आर्म्ड स्ट्रगल और युद्ध को लेकर कानून बनाए गए। इसका मकसद जंग में इस्तेमाल में लाए जाने वाले साधन और तरीकों को सीमित करना था। और जहां तक संभव हो सके, सबों को युद्ध की पीड़ा से बचाना था। आर्म्ड कंफ्लिक्ट में अंतरराष्ट्रीय मानवीय कानून “jus ad bellum और jus in bello” के रूप में दो प्रावधान के तहत काम करता है। इसके जरिये युद्ध से पहले और बाद में नेशन-स्टेट को गाइडलाइन्स जारी किए जाते हैं।

“jus ad bellum” युद्ध में जाने के लिए इंसाफ के कायदे से जुड़े कानून हैं। इसमें दरअसल युद्ध के उद्देश्य पर चर्चा की गई है, चाहे वह आत्मरक्षा के लिए हो या मानवाधिकार की रक्षा के लिए। यह मांग करता है कि युद्ध में जाने से पहले उसे जस्टिफाई किया जाए कि यह क्यों ज़रूरी है। इसी तरह “jus in bello”, चल रहे जंग के बीच कानून और न्याय के पालन को लेकर है। लेकिन इजरायल द्वारा फिलिस्तीनी क्षेत्रों पर कब्जे और लगभग 72 वर्षों से चल रहे ना-इंसाफी को लेकर इन पर सवाल खड़े हैं।

“jus ad bellum” का सोर्स संयुक्त राष्ट्र चार्टर का आर्टिकल 2(4) और चैप्टर-7 है। आर्टिकल 2(4) में लिखा है, “संयुक्त राष्ट्र के उद्देश्य के मुताबिक सभी सदस्य को किसी भी स्टेट की क्षेत्रीय अखंडता या राजनीतिक स्वतंत्रता के खिलाफ किसी भी तरह की जबरदस्ती या बल प्रयोग से बचना होगा।” संयुक्त राष्ट्र चार्टर के चैप्टर-7 के अंतर्गत आर्टिकल 39 से लेकर 51 में इजरायल-फिलिस्तीनी कंफ्लिक्ट को लेकर लिखा गया है। हालांकि इसमें कंफ्लिक्ट क्लियर बात नहीं रखी गई है और कई ग्रे स्पेस छोड़ दिए गए हैं। “आक्रमण” भी साफ तौर पर परिभाषित नहीं है। ऐसा लगता है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की दिलचस्पी “आक्रामकता” को सही तरीके से परिभाषित करने में नहीं थी। और यह अंतरराष्ट्रीय कानून की जटिलता में घसीटा दिया गया।

इजराइल का आरोप है कि संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव 181 के तहत, पहले अरब राष्ट्रों ने इजराइल जैसे नए राष्ट्र के खिलाफ आक्रामक रवैया अपनाया। वहीं फिलीस्तीनियों का प्रतिनिधित्व करने वाले अरब राष्ट्रों ने इज़राइल पर अवैध राज्य स्थापित करने का आरोप लगाया है। यहां “आक्रामकता” को लेकर इजराइल के आरोप में विरोधाभास है। मूल प्रश्न है कि पहला आक्रमणकारी कौन है? इज़राइल का तर्क है कि उसने आत्मरक्षा में युद्ध लड़ा, जैसा कि “jus ad bellum” में लिखा है। इसी तरह, अरब राष्ट्रों का तर्क है कि फिलिस्तीनी क्षेत्र की रक्षा के लिए इज़राइल के खिलाफ युद्ध शुरू किया गया था, जैसा कि “jus ad bellum” में है। लेकिन मामला पेचीदा और बदतर तब हुआ, जब अमेरिका और पश्चिमी देशों ने कोल्ड वॉर (1945-90) के लेंस से इसकी व्याख्या शुरू की और इज़राइल के पक्ष में “आक्रामकता” को सही ठहराया।

आक्रमकता को लेकर “jus ad bellum”, इजराइल का हाथ पकड़ने में अप्रभावी है। सही मायने में संयुक्त राष्ट्र का चैप्टर-7, सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्य (यूएस, रूस, यूके, फ्रांस और चीन) पर लागू नहीं किया जा सकता है। उन्हें इसके आर्टिकल 27(3) के तहत वीटो जैसी ताकत मिली हुई है जिसकी वजह से इज़राइल को अमेरिका की वीटो बचा ले जाती है। जाहिर है, इज़राइल को शक्तिशाली देशों का बैकअप हासिल है, और इसलिए वह “jus ad bellum” की व्याख्या अपने तरीके से करता है जिसमें फिलिस्तीन की बलि चढ़ जाती है।

फिलिस्तीनियों ने अब तक अपने बचाव के लिए लड़ाई लड़ी जिसे अक्सर “आतंकवाद” के रूप में लेबल किया गया। जबकि सच यह है कि “फिलिस्तीनी अपराइजिंग” के मूल में “आत्मरक्षा” है। अंतरराष्ट्रीय राजनीति में कहा भी जाता है, “कोई एक के लिए आतंकवादी हो सकता है, तो दूसरे के लिए फ्रीडम फाईटर” फिलिस्तीनी संदर्भ में, हम आज़ादी और आत्मरक्षा की लड़ाई के बीच साफ लकीर नहीं खींच सकते। उनके लिए, हमास आज़ादी का दस्ता है तो इजरायल और उसकी तरह की विचारधारा वाले देशों के लिए आतंकवादी है।

अंतरराष्ट्रीय मानवीय कानून का “jus in bello”, युद्ध के दौरान और युद्ध के बाद के व्यवहार के बारे में है। यह जिनेवा और हेग कन्वेंशन के जरिए अस्तित्व में आया था। 1899 और 1907 का हेग कन्वेंशन, गोलियों के प्रयोग, बम गिराने, गैसों का गोला फोड़ने, बारूदी सुरंगों के उपयोग और रासायनिक हथियारों के इस्तेमाल पर रोक लगाने के लिए आयोजित किया गया था। 1864, 1929 और 1949 के जिनेवा कन्वेंशन में यह बताया गया कि, “सैन्य लड़ाकों और गैर-लड़ाकों का इलाज किया जाए और युद्ध में रेप को एक अंतरराष्ट्रीय अपराध के रूप में कोड किया जाए” खासकर जिनेवा कन्वेंशन 1949, जंग में घायल, बीमार और युद्ध में बनाए गए आर्म्ड और सिविलियन कैदियों को लेकर है।

लेकिन असलियत में अंतरराष्ट्रीय मानवीय कानून के कानूनों का पालन नहीं होता है। इज़राइल-फिलिस्तीनी संघर्ष में, इज़राइल अपने हित के लिए इसका उलंघन करता आया है। फिलिस्तीनी नागरिकों के खिलाफ युद्ध में, अब तक उनकी ज़मीनें, घर, इमारतें, स्कूल, ऐतिहासिक स्मारक, अस्पताल, पानी के बुनियादी ढांचे और जैतून की खेती को निशाना बनाया गया। यह “jus in bello” के कोड के खिलाफ है। इज़राइल ने दिसंबर 1949 में जिनेवा कन्वेंशन में हस्ताक्षर किए थे और 1951 में माना था कि सभी परिस्थितियों में कन्वेंशन के विचार का सम्मान करेंगे। लेकिन अब तक इज़राइल का रवैया इसके उलट देखने को मिला।

कैनेडियन फॉर जस्टिस एंड पीस इन द मिडल ईस्ट (CJPME) ने 2004 में बताया कि कैसे इजरायल ने यहूदी बस्तियां स्थापित की। और फिलिस्तीन में विध्वंस, सजा, हत्या, नजरबंदी, नागरिकों के साथ अमानवीय व्यवहार, और मेडिकल यूनिट में तोड़-फोड़ को अंजाम दिया। इसके अलावा वेस्ट बैंक, इस्ट यरुशलम और गाजा में कानूनों का उलंघन करते हुए कब्जा जमाया। आये दिन नागरयकों को परेशान करना , उन्हें प्रताड़ित करना आम बात हो गयी है। इसमें पश्चिम देशों की ढुलमुल रवैया भी देखने को मिलता है। इसका अंदाज़ा सिर्फ एक बात से लगाया जा सकता है कि अमेरिका ने अभी तक 43 बार जी हाँ आपने सही पढ़ा 43 बार इजराइल के समर्थन में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव पर अपना वीटो कर चुका है। यानि एक तरह से अमेरिका की तरफ से इजराइल को अपनी मनमानी करने की खुली छूट है।

हालांकि संयुक्त राष्ट्र और अंतर्राष्ट्रीय प्लेटफार्म ने इसे लेकर इजराइल की आलोचना की है। लेकिन कोई भी इज़राइल को रोक नहीं पाया। पश्चिमी राष्ट्र, जो अंतर्राष्ट्रीय मानवीय कानून बनाने के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार हैं, इजरायल से पालन नहीं करवा पाए हैं। इसमें इन देशो का मकसद क्या है, स्पष्ट है। असलियत में इनके वादे, झूठे वादे होते हैं। और फिलिस्तीनी कई दशकों से इसे झेल रहे हैं। अंतर्राष्ट्रीय मानवीय कानून बस नाम भर के लिए है। इसमें इजरायल से पालन करवाने की ताकत नहीं है। साफ तौर पर कहें तो अंतर्राष्ट्रीय मानवीय कानून का “jus ad bellum और jus in bello” इजराइल के कैद में है।