आस्तित्व संकट में मुसलमान अकेला क्यों ?

आसिफ सईद
कहना कठिन है। पर ये साफ है कि आजादी के बाद पहली बार भारतीय मुसलमान धार्मिक आधार पर अलग -थलग पड़ता हुआ दिख रहा है। ये मात्र संयोग नहीं है बल्कि इसके पिछे बहुत गंभीर कारण हैं। अब तक राजनैतिक रूप से भारत की सबसे सेकुलर समाज कोई रहा है तो वो मुस्लिम समाज है। ऐसी एक मात्र समुदाय जिसने अपनी जाति/ धर्म के आधार पर कोई राजनितिक पार्टी नही बनाई। वह मुख्यधारा की पार्टियों में ही अपना नेतृत्व देखता रहा जिनका आधार गैरमुस्लिम था।
मौलाना आज़ाद से लेकर पूर्व राष्ट्रपति डॉक्टर ए पी जे अब्दुल कलाम तक, उसने कांग्रेस, वाम पंथियों , समाजवादियों और यहां तक कि भाजपा को भी समर्थन दिया और ये उम्मीद की कोई तो उनकी दशा और दिशा बदलने में मददगार साबित होगा । संविधान ,धर्म निरपेक्षता से लेकर “सबका साथ सबका विकास सबका विश्वास” को अपना समर्थन दिया। यहां तक कि इन पार्टियों में मुस्लिम नेताओं के मिलने वाले दोयम दर्जे को भी कमोबेश स्वीकार लिया था।
मगर जब वक्त आया, तो ये सारी पार्टियां अपनी जिम्मेदारी में असफल रहीं । यहां बात मुसलमानों के सिर्फ आर्थिक विकास, सामाजिक पिछड़ेपन, शैक्षणिक पिछड़ेपन सब्सिडी या धार्मिक स्वतंत्रता की नही हो रही है बल्कि राजनीति में, भारत की लगभग 20 करोड़ से ज़्यादा आबादी की भागीदारी की भी बात हो रही है।
पिछले आधी शताब्दी या यूँ कहें कि पिछले 70 सालों में महाराष्ट में ऐआर अंतुले और बिहार में अब्दुल गफूर के बाद, किसी प्रमुख राज्य में (कश्मीर छोड़) कोई मुस्लिम मुख्यमंत्री नही बन पाया। एक बैरोमीटर है जहां 5-6 प्रतिशत आबादी वाले जाति वर्ग को साधने के लिए उनके नेताओं को शीर्ष अस्थान मिल जाती हैं, वहीं 18 प्रतिशत आबादी वाले मुस्लिम् समाज बस कहार बने रहे और सभी पार्टियों के पर्चे बांटते रहे।
कांग्रेस व वाम दल सहित सभी मुख्यधारा के दलों ने उन्हें एक रखने, और दिशा देने और उनकी दशा बदलने लायक नेता कभी उभरने नहीं दिया। लोकतंत्र में इतना बड़ा तबका जिसे भारत की दूसरी सबसे बड़ी आबादी कहा जाता है, के बीच नेतृत्व संकट का मतलब आप समझते हैं??? आपके पास इतनी बड़ी आबादी के दिलो में झांकने की कोई खिड़की नही है। यह एक धर्म या राजनीति का नही बल्कि हमारे लोकतंत्र की गुणवत्ता का संकट है। और अब ये संकट, इस जडमूर्ख शासन के दौर में, एक अलग ही तरह के आस्तित्व संकट में मुसलमानों को अकेला छोड़ देने से गहरा गया है।
हम हिंदुस्तानी सेक्युलर खास तौर पे मुस्लिम समाज बेसब्री से इंतजार करते रहे कि कोई माई का लाल तो आएगा जो इस विभाजन की राजनीति के सामने सीना ठोककर, सहमे, भयभीत समाज को गले लगाकर, देश मे उनके सम्मानजनक स्थान का आश्वासन देगा लेकिन ये हो ना सका।
जब सरकार ने नागरिकता संसोधन अधिनियम पास किया और इस कानून के खिलाफ जामिआ मिल्लिया से उठी आवाज़ को शाहीन बाग़ का समर्थन मिला जो बाद में आन्दोलन पुरे देश में फैला लेकिन मीडिया और सरकार और बीजेपी इसे एक विशेष समुदाय का विरोध बताते रहे जबकि सच्चाई इसके बिल्कुल उल्टी थी। इस आंदोलन को सभी का समर्थन मिला लेकिन जिस तरह से मिलना चाहिए था उतना नहीं मिला। जो सबसे परेशान करने वाली बात थी कि सेकुलरिज्म का नाम जपने वाले दलों के नेता नदारद थे। वो दिल्ली और लखनऊ में नदारद थे। पटना, कानपूर, मुम्बई, गुवाहाटी, हैदराबाद, भोपाल, कोलकाता में भी नदारद थे। वो लगभग हर जगह नदारद थे। सेकुलरिज्म का दम्भ भरने वाले पार्टियों के पास एक ऐतिहासिक मौका था जो वे चूक गए। इस आंदोलन का इतना ही फ़ायदा हुवा कि लगभग 19 राज्यों ने अपने विधान सभा में ये विधेयक पास किया कि वो अपने प्रदेश में नागरिकता संसोधन अधिनियम लागु नहीं करेंगे लेकिन इसका बहुत ज़्यादा फ़ायदा नहीं होगा क्योंकि नागरिकता सम्बन्धी कानून केंद्र की सूची में आता है और कानून बनाने का अधिकार भी केंद्र के पास ही है।
नागरिकता सम्बन्धी कानून को जब सुप्रीम कोर्ट में चुनवती दी गई तो वहां भी मुसलमानों को निराशा ही हाथ लगी. कोर्ट से कोई राहत नहीं मिली उल्टा कोर्ट ने शाहीन बाग़ के प्रदर्शन पर सही प्रतिकिर्या नहीं दी। और फिर पूर्वी दिल्ली में सुनियोजित तरीके से दंगा हुवा। ऐसा लग रहा था कि सरकार , प्रशाषन और पुलिस यहां तक कि दिल्ली की केजरीवाल सरकार भी इस दंगे में शामिल थी। पुलिस ने हमेशा की तरह ना सिर्फ एक तरफ़ा कार्रवाई की बल्कि दंगाइयों का साथ भी दिया। आज भी बहुत सारे निर्दोष काल कोठरियों में बिना किसी वजह के बंद हैं। उल्टा नागरिकता कानून का विरोध करने वाले छात्रों और कार्यकर्ताओं को पुलिस ने सरकार के संरक्षण में जेल में डाल दिया जिसमे अभी तक बहुतों को जमानत नहीं मिल सकी है।
अजब मोदी जी को दुबारा और ज़्यादा बहुतमत वाली सरकार बनाने का मौका मिला। वैसे तो मोदी जी ने दूसरी बार शपथ लेने के बाद कहा कि वो ‘ सबका साथ सबका विकास सबका विश्वास ‘ में विश्वास करते हुए देश के लिए काम करेंगे और वो 130 करोड़ लोगों के प्रधान मंत्री हैं। इससे मुसलमानों को एक हिम्मत मिली। एक उम्मीद जगी। एक आशा की किरण दिखाई दी तभी बाबरी मस्जिद राम जन्म भूमि विवाद का फैसला आया और एक तरफ़ा फैसला आया जिसका किसी को उम्मीद नहीं थी। इस घटना ने मुसलमानों के विश्वास को हिला कर रख दिया। यहां भी कांग्रेस समेत सभी पार्टियों ने मुसलमानों को न सिर्फ निराश किया बल्कि जले पे नमक छिड़का। सभी पार्टियां ने मंदिरों की दौड़ और सॉफ्ट हिंदुत्व नाम का प्रहसन किया जो सांप्रदायिक सैहार्द के चैंपियन माने जाते थे।
बीजेपी पार्टी की स्पस्ट निति है, देश की 20% आबादी को टाइट रखना है और धर्म के आधार पर समाज और राजनीती या बल्कि यूँ कहें कि हर जगह एक खाई बनानी है ताकि उनकी राजनीती चलती रहे। उसको चैलेंज करने वाला अभी कोई पार्टी है नहीं क्योंकि बीजेपी को छोड़ कर बाकि सभी पार्टियां सॉफ्ट हिंदुत्व की निति पर ही अमल कर रहे हैं।
मुसलमान मेल मिलाप चाहता है। वह देश के हाल पर द्रवित है, परेशान है, चिंतित है और उनके साथ आम शहरी जिसको सच में देश की चिंता है, वह चिंतित, आहत, द्रवित और सच कहिये तो आशंकित है। कांग्रेस सहित तमाम सेकुलर दल उस अवसर को चूक गए जहाँ वो मुसलमानों के अलग थलग पड़े राजनीति को धक्का दे सकते थे लेकिन वे यह अवसर चूक गए। यह चूक साधारण नही है। यह विभाजन की अगली फेज में ले जाने वाला धक्का है। सामाजिक विभाजन के बाद अब राजनैतिक विभाजन की फेज आ चुकी है। इस दौर में सत्ताधारी पार्टी की तरफ से लगातार कोशिश हो रही है कि इस विभाजन की राजनीति को और बढ़ाया जाये तभी कभी योगी तो कभी कपिल मिश्रा तो कभी तेजस्वी सूर्या का उभार होता रहता है।
आज़ादी से पहले सावरकर के औचित्य पर जिन्ना का उभार हुआ। दोनों ने एक दूसरे का भय दिखाकर अपने अपने एजेंडे चलाये। आज उसी दौर की हूबहू पुनरावृत्ति है। मुसलमानों के दूसरे सारे राजनितिक विकल्प खत्म किये जा रहे हैं /कर दिए गए हैं। सरकार और सत्ताधारी पार्टी उन्हें ओवैसी की तरफ धकेल रही है। ऐसे राजनितिक माहौल में हम आप चाहें न चाहें, ओवैसी का उभार होना भी तय है।पर याद रखिये, ओवैसी का तय दायरे से, बाहर निकलना मात्र संयोग नहीं है बल्कि ये एक सोची समझी राजनितिक रणनीतिका का हिस्सा है. ये लोक तंत्र के लिए अच्छा संकेत नहीं है क्योंकि लोकशाही के जनता के पास विकल्प होना चाहिए नहीं तो लोक तंत्र नहीं रह जाएगा।
(लेखक जामिआ में सामाजिक कार्य के छात्र हैं )