क्या पंचायत चुनाव में जनता की मांगों को अनदेखा करना संभव होगा?

सुल्तान अहमद – ग्राम्वानी फीचर्स

साल 2021 राजनितिक रूप से बहोत अहम् मानी जारही है , तमिलनाडू , केरल ,पश्चिम बंगाल , असम और पुडुचेरी में विधान सभा के चुनाव होने हैं वहीँ उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, झारखंड और बिहार में पंचायत और निकाय चुनाव होने हैं.. यह राज्य भी इन दिनों राजनीति की नजर से बहुत खास बने हुए है. प्रदेश की सरकारें युवाओं को रोजगार देने में सक्षम हो ना हों, किसानों को फसलों के दाम दे सकें या नहीं पर आम जनता को चुनाव में मतदान के मौके खूब दे रही हैं. फिलहाल यहां हो रही है, पंचायत चुनाव की तैयारी. वैसे तो ग्रामीण चुनावों में शहरी बाबूओं को दिलचस्पी कम होती है लेकिन राजनीति की नजर से देखा जाए तो ग्रामीण चुनाव बहुत मायने रखते हैं. आखिर यही जनता आगे चलकर दिग्गज नेताओं की सभा में भीड़ बनने का काम करती है और वो चाहे किसान महापंचायत हो या चुनावी रैली कितनी सफल रही का प्रमाण देती है. ग्रामीणों के लिए ही झूठे वायदे और लुभावनी योजनाओं की घोषणाएं की जाती हैं. फिर पीठ थपथपाई जाती है. गरीब के घर की थाली झूठी कर वाहवाई लूटी जाती है और फिर जब काम हो जाए तो गांव को अलविदा कर दिया जाता है पोंजिपतियों के पक्ष में कानून बनाने और मुनाफा पहुंचाने के प्रयास में लग जाती है , अगले चुनाव की तैयारी शुरू होजाती है.

ये सब करना तब तक संभव नहीं है जबकि गांव में राजनीतिक समझ को बनाएं ना रखा जाए. इस काम को अंजाम देने में मुखिया सबसे अहम भूमिका निभाते हैं. इसलिए पंचायत चुनावों को निचले दर्जे का समझना भूल हो सकती है. आखिर ये ग्रामीण समझ और ग्रामीण विकास का मामला है.

लेकिन इस बार लगता है कि बात कुछ और होगी? क्योंकि ग्रामीण जनता पिछले चुनावों से काफी सबक ले चुकी है. इस बार वे ये नहीं चाहते कि कोई भी आए और मुखिया का पद सम्हाल ले. इस बार जनता चाहती है कि उनका मुखिया ऐसा हो जो साक्षर, जनता को समान दृष्टि से देखती हो , भेदभाव कम करता हो , स्थानीय स्तर पर रोज़गार और दुसरे योजनाओं के क्रियान्वयन में जनता की भागीदारी और सबसे अहम् ग्रामसभा और समितियों के संचालन और ग्रामीणों को आरही समस्याओं के समाधान की जो पहल करने योग्य संभावित प्रत्यासी होंगे वे उन्हें अपना सर्थन देंगे . ये सारी बातें तब सामने आईं जब मोबाइलवाणी ने अपने अभियान मेरा मुखिया कैसा हो”  जिसकी शुरुआत 25 दिसंबर को इस उद्देश्य के साथ हुई की त्रिस्तारिये पंचायत चुनाव का महत्व , ग्रामीण विकास के लिए उचित प्रत्भागियों का चयन, समाज के वंचित वर्ग की इस चुनाव में भागीदारी के साथ चुनाव के बाद पचानायत को अपने जिम्मेदारी के प्रति उत्तरदायी बनाना है.  अभियान के तहत जनता से उनकी उम्मीदों के बारे में बात की. उनसे पूछा कि इस बार वे किस तरह का मुखिया चाहते हैं. आइये अब ग्रामीण जनता की पंचायत चुनाव पर आई प्रतिक्रिया पर एक नज़र डालते हैं …

अब गांव भी बढ़ रहे हैं

उत्तर प्रदेश के गाजीपुर के बिरनो ब्लॉक के धनशपुर निवासी राम प्रवेश कुमार कहते हैं कि पहले के मुखिया हमने देखे हैं. वे कम पढ़े लिखे होते थे, उन्हें सरकारी योजनाओं की समझ ही नहीं थी. अगर कोई मुखिया हिम्मत जुटाकर सरकारी अफसर से मुलाकात के लिए पहुंच भी जाए तो उसकी कोई इज्जत नहीं रहती थी. ना तो ग्रामीणों की बात सरकार तक पहुंचती थी और ना ही सरकारी लाभ गांव तक. इसलिए मुखिया तो ऐसा होना चाहिए जो केवल साक्षर ना हो, वह पढ़ा लिखा और जिम्मेदार व्यक्ति हो. उसे सरकारी नियमों, अधिका​रों की समझ हो. जो कुछ लोग रौब के लिए मुखिया बनते हैं उनसे केवल उनका भला हो पाता है, गांव का विकास नहीं. झारखंड के हजारीबाग के  बिष्णुगढ़ प्रखंड से बीना देवी ने तो तय कर लिया है कि इस बार वोट वायदों को देखकर नहीं बल्कि प्रतिनिधी की डिग्री देखकर देंगे. बीना देवी कहती हैं कि मुखिया बनने के बाद लोगों को ये तक नहीं पता होता कि ग्राम सभा करना चाहिए, कचहरी लगना चाहिए, गांव की तरक्की होना चाहिए. मुखिया बनने के बाद तो बस लोग अपना लाभ देखते हैं. अगर कोई शिक्षित व्यक्ति ऐसे पद पर होगा तो वो ये समझेगा कि गांव की जरूरत क्या है? उसे कैसे पूरा किया जा सकता है. लेकिन साथ में ये भी कहती है की प्रतिभागी केवल बाधा लिखा नहीं एक सामजिक जिम्मेदारियों को नरवाहन करने वाला व्यक्ति हो तो उसे वोट दिया जायेगा. 

सरकारी योजनाओं की जानकारी ब्लॉक स्तर पर प्रमुख , प्रधानों और सचिव को दी जाती है. प्रधान व सचिव की जिम्मेदारी है कि उन योजनाओं के बारे आम सभा बुलाकर ग्रामीणों को जानकारी दें. शाशन स्तर से योजनाएं बनने के बाद जिलाधिकारी, मुख्य विकास अधिकारी, खण्ड विकास अधिकारी, खंड अधिकारी से प्रधान और सचिव के माध्यम से ग्रामीणों तक पहुंचानी होती हैं. ग्रामीणों को सरकारी योजनाओं की जानकारी देने एवं ग्राम पंचायतों की लोगों में पारदर्शिता बनाने के लिए पंचायत में साल भर में चार ग्रामसभा सभाएं कराए जाने का प्रावधान है, लेकिन पंचायत विभाग की अनदेखी के चलते ये ग्रामसभाएं केवल दिशा निर्देशों का ही हिस्सा बन कर रह गया है , ग्रामीणों को सरकारी योजनाओं की कोई जानकारी उपलब्ध नहीं हो रही है. इसलिए इस बार जनता चाहती है कि वे किसी जिम्मेदार मुखिया को सत्ता की कमान सौंपें.

सरकारी योजनाओं को पहुंचाने वाला मुखिया हो 

हज़ारीबाग ज़िला के बिष्णुगढ़ प्रखंड के ऊँचाघरा ग्राम से मोनी लाल महतो कहते हैं कि अगर मुखिया समझदार होगा तो उसे पता होगा ​कि कौन सी सरकारी योजनाएं आ रही हैं? उनका लाभ कैसे दिलवाया जा सकता है. अभी तो ये हाल है कि हमें पता है कि सरकारी योजना क्या है पर मुखिया को नहीं पता कि उसका लाभ कैसे दिलवाएं? अब ऐसे में हम सरकार को दोष देते हैं कि कुछ हो नहीं रहा है पर असल में गांव का मुखिया ही कुछ नहीं कर रहा है.

उत्तर प्रदेश के कासिमाबाद क्षेत्र से  अफ़ज़ल कहते हैं कि इस बार तो चुनाव में ऐसा ग्राम प्रधान तलाश रहे हैं कि जो शिक्षित हो. पर दिक्कत ये है कि पढ़ें लिखे लोग गांव में रहना नहीं चाहते. अगर रह रहे हैं तो वे राजनीति का हिस्सा नहीं बनना चाहते. हमारे गांव में ढंग का प्राथमिक स्कूल तक नहीं है. आवास योजना और शौचालय बनवाने के नाम पर बहुत भ्रष्ट्राचार हो रहा है. मनरेगा में भी यही हाल है. गांव के गरीबों का पैसा तो मुखिया और उनके लोग ही खा जाते हैं. इसलिए केवल शिक्षित होने से काम नहीं चलेगा, मुखिया जब तक खुद नहीं चाहेगा कि उसका गांव विकास करे, तब तक कुछ नहीं हो सकता. 

बिहार के मुंगेर से बेबी देवी एक और अहम मसला उठा रही हैं. वे कहती हैं कि गांव के चुनाव में महिलाओं की स्थिति दयनीय है. अगर पुरूष शिक्षित नहीं है तो वह अपने घर की शिक्षित महिला को चुनाव में खडा कर देते हैं और फिर महिला के जीत जाने के बाद उसे बस नाम का मुखिया बनाए रखते हैं. सारा कामकाज वही देखते हैं. यानि गांव में प्रधानी का चुनाव प्रतिष्ठा से जुडा है. चुनाव में वही जीत रहा है या शामिल हो रहा है जो पहले से जीतता आया है. ऐसे में नए युवाओं को कितना मौका मिलता है ये तो वक्त बताएगा. जनता अगर नया निर्णय लेना भी चाहे तब भी उसके पास विकल्पों की कमी है. जब तक प्रतिनिधियों में कोई नया नाम, नया चेहरा और शिक्षित युवा शामिल नहीं होगा, ग्रामीणों की मजबूरी है कि वे पुराने लोगों को ही वोट देते रहें. 

बेरोजगारी और पलायन की समस्या को दूर करने वाला मुखिया चाहिए

अभियान में कई लोगों ने अपनी राय रिकॉर्ड की और उनके अनुसार मुखिया/प्रधान बेरोजगारी की समस्या को स्वीकार करे और उसे काम करने के लिए विभिन्न योजनाओं को धरातल पर लागू करे , कई लोगों ने माना है की मुखिया की मिली भगत से मनरेगा में मजदूरों से काम न कराकर जी सी बी का नहर की खुदाई , उराही और सड़क भ्दने का काम किया गया ,स्थानीय श्रमिक जब काम मांगने गए तो उनसे कह दिया गया की पंचायत में अभी काम नहीं है जब की काम था , इसलिए मुखिया ऐसा हो जो जनता की दुखती दर्द बेरोगारी की समस्या के लिए मंरेगा के तहत ग्रामसभा के माध्यम से मनरेगा के तहत काम की योजना बनायें , पंचायत में रोज़गार दिवस को संचालित करें और ज्यादा से ज्यादा निर्धन ग्रामीण जनता को काम से जोड़ें , गाँव के बाहर जारहे मजदूरों का रजिस्टर तैयार कर उनके परिवार की मदद से भवन एवं अन्य निर्माण कार्य बोर्ड के तहत परिवार के सदस्यों का नामांकन कराएँ, नामांकन कराने में आरही समस्याओं का समाधान अधिकारीयों के साथ मिलकर करें , खुद अपनी जिम्मेदारी को समझें और अधिकारीयों को भी उनकी जिम्मदारियों का एहसास दिलाएं अधिकारीयों की जिम्मेदारी को सुनिश्चित करने में ग्रामीणों का समर्थन करें , उदाहरण के लिए गिधौर प्रखंड से नीता देवी की राय सुनें. 

एक श्रोता  कहते हैं की मेरा मुखिया ऐसा व्यक्ति हो जो समज में सभी से गले मिले , उंच नीच , जात पात से ऊपर उठकर ग्रामीण समस्याओं का निपटान करे, सभी योजनाओं का लाभ प्रत्येक व्यक्ति तक पहुंचाए, समान भाव से लोगों से पेश आए तो एक भी ग्रामीण योजनाओं से वंचित नहीं रह पायेगा , हमने देखा है की अपने परिचित , बिरादरी के लोगों को मुखिया ज्यादा लाभ पहुंचाते है और बाकी जनता को वैसे ही छोड़ दिया जाता है 

क्यों बवाल है शैक्षणिक योग्यता

अब बात करते हैं असली मसले पर. असल में देश के अधिकांश राज्यों में मुखिया या प्रधान पद के लिए न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता तय नहीं है. पहली बार हरियाणा में मुखिया पद को मजबूत बनाने के लिए कदम उठाया गया था, साल 2015 के चुनाव के दौरान. जब हरियाणा पंचायती राज एक्ट संशोधन के मुताबिक वही व्यक्ति चुनाव में प्रत्याशी हो सकता है जो कम से कम साक्षर हो. इस बात का काफी विरोध भी हुआ था फिर सुप्रीम कोर्ट ने 10 दिसंबर 2015 को इस मामले में आदेश दिया कि सरकार सही है. सामान्य वर्ग के लिए 10वीं, महिलाओं और अनुसूचित जाति के लिए 8वीं तक का पैमाना तय किया गया है. अनुसूचित जाति से पंच बनने की इच्छुक महिलाओं के लिए 5वीं कक्षा पास करने का पैमाना निर्धारित हुआ है. ऐसा ही एक कदम राजस्थान सरकार ने उठाया और अपने राज्य के पंचायती चुनावों के लिए मुखिया की शैक्षणिक योग्यता कम से कम 8वीं पास कर दी. लेकिन बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड समेत कई राज्य हैं जहां मुखिया का साक्षर होना मायने नहीं रखता. 

शैक्षणिक योग्यता तय करने वाले प्रावधानों को लेकर कम पढ़े लिखे भावी प्रत्याशी कहते हैं कि  आज़ादी के इतने सालों बाद भी शिक्षा मुहैया नहीं करा पाना सरकारों की असफलता है, ऐसे में शिक्षा को चुनाव लड़ने का पैमाना बनाना एकदम ग़लत है. हालांकि शिक्षा का पैमाना तय करने वाले कहते हैं कि गांव में तकनीक पहुंच रही है, कागजों का काम कम्प्यूटर पर हो रहा है, अगर मुखिया अनपढ होगा तो ये काम कैसे होंगे? फिर पंचायत कार्यालयों में ऐसे युवाओं को तैनात किया जाएगा जिन्हें बस पढ़ना लिखना आता है और वे कागजी काम कर सकते हैं. ये बात और है कि उन्हें राजनीतिक और सरकारी समझ ना हो. अब सोचिए कि इसमें कितने सारे लूप प्वांइट हैं. जो मुखिया है उसे नहीं पता कि सरकारी कागज में क्या लिखा है? जो कागजी काम करने वाला है उसे ये नहीं पता कि जो लिखा है वो सही है या नहीं! 

सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के चलते हरियाणा सरकार को पंचायती राज एक्ट में किए गए संशोधन के मामले में काफी बल मिला है. पर इसके कारण ग्रामीण स्तर पर नेताओं के सारे समीकरण बिगड़ गए. शायद यही वजह रही कि हरियाणा और राजस्थान के बाद और प्रदेशों में इस तरह की पहल नहीं हुई. ग्रामीण जनता भले ही अपने लिए शिक्षित मुखिया की मांग कर रही हो पर प्रत्याशियों के लिए शिक्षा कोई बाधा नहीं. भारत में करीब 250000 ग्राम पंचायत है! और दुख की बात है कि इनमें से 10 फीसदी भी ऐसी नहीं है जहां गांव को शिक्षित मुखिया मिला हो. काम भले गांव है पर मुखिया पद पर होने की बहुत सी जवाबदेही होती है. वित्तीय लेन-देन में सरपंच, प्रधान और जिला प्रमुख के हस्ताक्षर से ही चेक जारी होते हैं. शैक्षणिक योग्यता अनिवार्य करने के पीछे तर्क है कि हस्ताक्षर करने से पहले ये जनप्रतिनिधि खुद पढ़कर समझ सकें. विभिन्न बैठकों की प्रोसिडिंग समझकर टिप्पणी लिख सकेंगे और आदेश जारी कर सके. योजनाओं का बेहतर क्रियान्वयन कर सकें. अगर वह गांव में स्कूल खोलना चाहता है तो लोग ये ना कहें कि खुद ने पढ़ाई क्यों नहीं की? बुद्दी जीवियों के ये सरे तर्क ठीक हो सकते हैं लेकिन सम्पूर्ण विकास के लिए यह तर्क उतना तार्किक नहीं लगता क्यों की हमारे विधायक और संसद के लिए भी तो ऐसी कोई योग्यता का मापदंड लागू नहीं होता . 

ग्रामीण जनता की राय पंचायत चुनाव पर सुन कर ऐसा लग रहा ही की जनता पंचायत की कार्यवाही , पंचायत प्रतिनिधि की जिम्मेदारी और योजनाओं के लाभ को लेकर काफी चिंतित है, वह सामजिक बुराई भेदभाव पर भी अपनी राय खुल कर रख रही है जिसका मतलब यह भी हो सकता है जागरूक जनता के पंचायत में ज्यादा दिनों तक जात पात और भेदभाव की राजनीती काम नहीं करेगी, शिक्षा , रोजगार, सुरक्षा , समानता जनता का पर्मुख मुद्दा है , अब देखना होगा की यही जनता जब अपने मत का प्रयोग करेगी तो इन मुद्दों को ध्यान में रखेगी या फिर एक बार भवनात्मक बहाव में बहकर अपने मत का प्रयोग कर अगले 5 साल के लिए खुद को कोसती रहेगी .