किराये का लोकतंत्र बनाम जनता का लोकतंत्र

फाइल फोटो - गुडगाँव और कापसहेड़ा के पास के उद्योग


कापसहेड़ा और इसके जैसी कई मज़दूर बस्तियां इस मौजूदा लोकतंत्र के रजिस्टर से गायब है।

इस मौजूदा लोकतंत्र के रजिस्टर मे कापस हेड़ा दक्षिण पश्चिमी दिल्ली का एक छोटा सा गाँव है।
यह गाँव हरियाणा के गुड़गाँव जिले के डूण्डाहेड़ा गाँव से सटा हुआ है।पूंजीवादी मुनाफ़ा और सामंती किराएदारी का बेहतर उदाहरण है कापस हेड़ा और डूण्डाहेड़ा।यहाँ फिलहाल बात राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के अंतर्गत आने वाले गाँव कापसहेड़ा की ही होगी। Revolutionary Democracy संगठन के लोग यहाँ 2007 से अध्ययनरत हैं और अनुभव साझा करते हैं।

किराए की टैक्स फ्री दौलत भारत के इस मौजूदा लोकतंत्र के कानूनों को रखैल बनाने का खासा दम रखती है। इस गाँव मे एक जाति विशेष के कुछ भूमिदार किसान रहते हैं। जाति विशेष का नाम यहाँ लिखना मै ठीक नहीं समझ रहा हूँ, क्योंकि पूरे भारत मे ये जाति मेहनतकशों की श्रेणी मे आती है।

इस गाँव के भूमिदार अपनी ज़मीनों पर दहाइयों और सैकड़ों मे कोठरियां बनवा ली हैं।
इन कोठरियों मे गुड़गाँव के गारमेंट मज़दूर महंगा रैन बसेरा करते हैं।ये आंकड़े मौजूदा लोकतांत्रिक सरकार के रजिस्टर मे नहीं मिलेंगे। उस रजिस्टर मे अभी भी वहाँ खेत और किसान हैं।लेकिन सनद रहे। ये कोई सरकारी लापरवाही का मामला नहीं है। एक सोची समझी प्लानिंग है।

NCR की मुनाफ़परस्त गारमेंट फैक्ट्रियां अपने कारीगरों की संख्या के आंकड़ों मे हेर फेर करती हैं।
कारिगरों के आवास का बन्दोबस्त करने का सवाल तो बचता ही नहीं।मुनाफ़ा परस्तों द्वारा पैदा की गई आवास की समस्या को सामंती परजीवी हाथो हाथ लेते हैं।

कापसहेड़ा के खेतों मे खड़ी बदबूदार अंधेरी कोठरियां छत तलाशते मज़दूरों की मजबूरी का स्वागत करती हैं। एवज मे “सरकारी किसानों” को लाखों रुपये किराया मिल जाता है।

नतीजा, यहाँ मज़दूर नामक एक भारी आबादी आबाद होती है, लेकिन सामंती किरायाखोरों के जूते तले।यकीन मानिए यहाँ वोट देने का अधिकार केवल किरायाखोर जमींदारों को ही है।यहाँ रहने वाला भारतीय? मज़दूर चुनाव आयोग के कर्मचारियों द्वारा दुत्कार के भगाया जाता है।कर्मचारी किरायाखोरों की जमात के हैं। जो नहीं चाहते कि बाहर से आए लोग लोकतंत्र का प्रतिनिधि मज़दूर चुने। बाहर मतलब बाहर से आए लोग। भारत, भारतीय, भारतमाता, भारत माता के बच्चे और देशभक्ति; वो सब अलग चीज़ है।

ये हक यहाँ केवल किरायाखोरों का है। ये संघर्ष है किराए का लोकतंत्र बनाम जनता का लोकतंत्र।

पदम कुमार की वाल से साभार