डिजिटल शिक्षा के आने से अधिसंख्य बच्चे शिक्षा से होंगे महरूम

लहर डेस्क:राइट टू एजुकेशन (आरटीई) फोरम द्वारा शिक्षा-विमर्श की कड़ी में कोविड-19 के दौरान राज्यों के अनुभव विद्यालयों का खुलना, शिक्षा शुल्क की पेचीदगियाॅ तथा डिजिटल पढ़ाई विषय पर आयोजित वेबिनार में दिल्ली उच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक़्ता अशोक अग्रवाल, आरटीई फोरम, पश्चिम बंगाल के संयोजक प्रवीण बासु तथा आरटीई फोरम, उड़ीसा के संयोजक अनिल प्रधान नें अपने विचार व्यक्त किए। वेबिनार का संचालन केयर इंडिया के बालिका शिक्षा कार्यक्रम के अधिकारी डॉ• गीता वर्मा नें किया। जबकि राइट टू एजुकेशन फोरम के राष्ट्रीय संयोजक अम्बरीष राय नें सबका स्वागत करते हुए विषय की प्रसांगिकता का उल्लेख किया। वेबिनार को तकनीकी सहयोग नेशनल आरटीई फोरम से सृजिता मजूमदार ने दिया। बेविनार में 20 राज्यों के 300 से अधिक प्रतिनिधियों नें शिरकत की। वेबिनार को सम्बोधित करते हुए उच्च न्यायालय के अधिवक्ता अशोक अग्रवाल नें कहा कि विद्यालयों को इस साल नहीं खोलना चाहिये। प्रत्येक बच्चों को आगे की कक्षा में स्वत: प्रोन्नति दे देनी चाहिए। अधिकांश अभिभावकों की भी यही राय है। प्रत्येक अभिभावक यही चाहते हैं कि पहले बच्चों की सुरक्षा हो, उसके बाद शिक्षा की बात हो। उन्होँने कहा निजी विद्यालयों के संचालक विद्यालय को खोलने हेतु दवाब बना रहे हैं। लेकिन 80 प्रतिशत अभिभावक वर्तमान स्थिति में विद्यालय को खोलने के पक्ष में नहीं है। ऑनलाइन पढ़ाई की प्रक्रिया जटिल और सर्वसामान्य वर्ग की पहूॅच से बाहर हैं। जिसके साथ तालमेल बैठाना बच्चे,अभिभावक तथा शिक्षक सभी के लिए एक कठिन कार्य हैं। पाठ्यक्रम में बदलाव कर के डिजिटल शिक्षा देने के लिए कुछ लोगों द्वारा सुझाव दिया जा रहा है जो कि शिक्षा के व्यवसायिकरण का हीं परिष्कृत रुप है।
शिक्षा का एक नया बाजार बनाने की दिशा में प्रयास हो रहा हैं जिसका परिणाम बहुसंख्यक आवादी को भुगतना होंगा। उन्होनें स्पष्ट कहा कि ऑनलाइन शिक्षा सिर्फ लोगों को एक छलावे में रखने और मूल समस्या से ध्यान हटाने का सरकारी प्रयास है और यह नियमित विद्यालयी शिक्षा का विकल्प कतई नहीं हो सकता है। श्री अग्रवाल नें कहा कि जहाॅ तक विद्यालय शुल्क की बात है, तो विगत कई दशकों से इस भयावह समस्या से हमारे देश के सामान्य, वंचित समूह के अविभावक जुझ रहे हैं। जब से शिक्षा में निजी विद्यालयों का दखल बढ़ा है। फिलहाल कोरोना संकट में अभिभाकों के काम धन्धे भी तो बंद हैं। ऐसे में वे विद्यालय का शुल्क कैसे जमा करेंगे। हालत ये है कि 40 प्रतिशत अभिभावकों ने ऑनलाइन शिक्षा से अपने बच्चों को अलग कर लिया है। क्योंकि उनके पास कमाई का कोई जरिया नहीं बचा है। 85 प्रतिशत छोटे निजी स्कूलों नें आय की कमी की वजह से अपने शिक्षकों को हटा दिया है। 15 प्रतिशत बड़े निजी स्कूलों नें इतनी कमाई की है कि अपने शिक्षकों को साल भर पैसे दे हीं सकते हैं। उन्होनें कहा कि अगले लॉक डाउन अवधि में स्कूलों की फीस वसूली पर रोक और शिक्षकों का वेतन मिलने की गांरटी करने के लिए सरकारों को स्पष्ट दिशा-निर्देश जारी करने चाहिए। सरकारी विद्यालयों की मजबूती पर ध्यान देनें की जरुरत है।
इससे पहले सभी प्रतिभागियों का स्वागत करते हुए आरटीई फोरम के राष्ट्रीय संयोजक अम्बरीष राय नें कहा कि कोविड महामारी नें देश को बहुत नुकसान पहुॅचाया है। विशेष कर बच्चे इससे अधिक प्रभावित हुए हैं। लेकिन सरकार की नजर इन बच्चों की ओर नहीं है। डिजिटल शिक्षा देने के लिए कुछ निजी कंपनीयों के द्वारा सरकार पर दवाब बनाया जा रहा है। श्री राय नें कहा कि डिजिटल शिक्षा की वजह से 70 प्रतिशत से अधिक बच्चे शिक्षा से वंचित रह जायेंगे। क्योंकि न तो उनके पास डिजिटल व्यवस्था है और न उनके अभिभावको के पास इसके पर्याप्त संसाधन और पैसे हैं। अब सवाल ये है कि इन बच्चों की पढ़ाई कैसे सुनिश्चित हो। सरकार नें तो लोगों को अपनी हालात पर छोड़ दिया है। राजनीतिक दल चुनाव प्रचार में लग गए हैं। वंचित समाज के बारे में सोचने का वक़्त उनके पास नहीं है। वेबिनार में शामिल सभी ने एकमत से कहा कि सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य को मजबूत करने के लिए सरकार को उन क्षेत्रों में बजट बढ़ाने की जरुरत हैं।
समस्तीपुर से राईट टू एजूकेशन फोरम के जिला संयोजक सुरेन्द्र कुमार नें वेबिनार में अपनी बात रखते हुए कहा कि आज इस कोविद-19 की आर में हमारी यह मनुवादी सोंच वाली राज्य और केन्द्र सरकार आजादी के पूर्व और आजादी के तुरंत बाद वाली स्थिति लाना चाहती है। फिर कोई एकलव्य का अंगुठा काटने का कुत्सित सरकारी प्रयास शुरू हुआ है। मनु स्मृति बनाम मार्केट स्मृति का शिकंजा कसता जा रहा है। हमारी संवैधानिक लोकतांत्रिक कल्याणकारी सरकारें अपने जनता की भलाई के वजाए तानशाही तरीके से कारपोरेट घराने की चाकरी करने में कोई भी कसर नहीं छोड़ रही है। चहुॅओर नीजीकरण का असर और बोलबाला है। स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार, आजीविका, सरकारी उपक्रम सभी जगह नीजी कम्पनियों का बोलबाला है। अब समय आ गया है कि हमारे देश के नौजवान सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, वैचारिक समानता के लिए और सर्वमान्य सत्ता पाने हेतु आजादी की दूसरी लड़ाई के लिए तैयार हों। आने वाले बिहार विधान सभा चुनाव में पुरे दमखम के साथ सामाजिक बदलाव में विश्वास रखने वाले सामाजिक- सांस्कृतिक संगठन के साथी चुनावी राजनीति में आयें और वर्तमान दोहरी व्यवस्था को बदलने का काम करें।